हम सभी जानते हैं कि संवाद केवल तभी होता है जब कोई वक्ता और श्रोता दोनो होते हैं। संवाद सदैव दो-तरफा प्रक्रिया मानी जाती है, जिसका अर्थ है कि असरदार संवाद केवल तभी माना जाता है जब श्रोता या रिसीवर यह स्वीकार करता है कि उसे संदेश प्राप्त हुआ है, चाहे वह केवल सिर हिलाकर ही क्यों न बताए।
हम यह भी जानते हैं कि भगवान ने हमें सुनने के लिए दो कान दिए हैं और एक मुंह बोलने के लिए दिया है। इसका मतलब है कि हमें दिनभर की बातचीत में बोलना कम और सुनना अधिक चाहिए। जब हम सुनते हैं, तो हम सीखते हैं जबकि बोलते समय हम केवल वही कहते हैं जो कि हम जानते हैं और इसलिए हमारे ज्ञान में कोई मूल्यवर्धन नहीं होता। इसलिए सुनना हमेशा हमारे लिए फायदेमंद होता है जबकि बोलना एक ऊर्जा खर्च करने वाली एक प्रक्रिया है।
सक्रिय हो कर सुनना एक बहुत महत्वपूर्ण कला है जिसे हमें हमेशा सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। हमारी नौकरी में हमारे प्रदर्शन और प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम कितनी अच्छी तरह से सुनते हैं। सुनने की कला से हमारे उन लोगों के साथ अच्छे संबंध पैदा होते हैं जिनके साथ हम बातचीत करते हैं। याद रखें, सभी महान नेता महान श्रोता होते हैं। दुर्भाग्य से, हमारे जीवन में जो लोग आते हैं ज्यादातार ‘बुरे श्रोता’ होते हैं। वे बातचीत के दौरान फोन कॉल अथवा फाइल देखने जैसी अनावश्यक हरकते करते रहते हैं और यह सब संवाद में बाधा उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार के श्रोताओं के साथ बातचीत आगे नहीं बढ़ती और अन्तता वे बुरे प्रबंधक व नेता साबित होते हैं।
मैं इस लेख को लिखते समय अपनी पत्नी और बेटी के बीच चल रही वार्तालाप सुन सकता हूं क्योंकि मेरी पत्नी स्पीकर फोन पर है। लेकिन मैं उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा हूं। मेरी एकाग्रता इस लेख को लिखने में पूरी तरह से है। इसलिए मुझे उनकी वार्तालाप की सटीक सामग्री के बारे में पता नहीं है, हालांकि मुझे ये पता है कि वे अगले महीने रणथंभौर में मेरे अगले ऑफसाइट/आउटबाउंड कार्यक्रम के बारे में बात कर रहे हैं, जहां मेरी बेटी के मेरे साथ आने की उ मीद है। इससे ज़्यादा मुझे वार्तालाप के बारे कोई सही जानकारी नहीं है क्योंकि मेरा ध्यान इस लेख पर केंद्रित है।
कल, जब मैंने एक कंपनी के कॉर्पोरेट कार्यालय का दौरा किया और उनके सीईओ के साथ लगभग आधे घंटे तक बैठक की, तो मैंने पूरी एकाग्रता के साथ उनकी बात सुनी। मैं इस कंपनी के सामने आने वाले मुद्दों को पूरी तरह से समझने की कोशिश कर रहा था और उनके सीईओ चाहते थे कि मैं रिसॉर्ट में प्रशिक्षण सत्र के दौरान उन मुद्दों को संबोधित करूं। मैंने खुद को बैठक से पहले याद दिलाया था और असल में बैठक के दौरान भी मेरा लक्ष्य था कि सीईओ क्या कह रहे हैं मैं केवल वह सुनूं। असल में, मैंने अन्य सभी विचारों को जो मेरे मन में आ रहे थे उन्हें अलग थलग कर दिया था और मैं केवल उनके संदेश पर केंद्रित था और मैं अपनी डायरी में कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को भी जोड़ रहा था। मेरा मोबाइल फोन साइलेंट मोड में नहीं था, बल्कि मीटिंग शुरू होने से पहले मैंने उसे बंद कर दिया था। क्योंकि यह साइलेंट मोड में भी वाइब्रेशन करता है और इससे ध्यान विचलित हो जाता है। बीच में, मैं कुछ सवाल पूछ रहा था, जो यह व्यक्त कर रहा था कि सीईओ जो कह रहे थे, उसे मैंने पूरी तरह से समझ लिया है। और अंत में मैंने सीईओ के सन्देश को मेरे अपने शब्दों में दोहराया था। इसी को हम ‘सक्रिय सुनना’ कहते हैं।
पहले 20 मिनट में 95 प्रतिशत बात सीईओ ने कही। मैं केवल अपने संदेहों को दूर करने के लिए कुछ प्रश्न पूछ रहा था। फिर सीईओ चाहते थे कि मैं उनसे प्रस्तावित स्थल, परिवहन के तरीकों और इस तरह के ऑफसाइट्स के संचालन के अपने पिछले अनुभव के बारे में बात करूं। शुरुआती 20 मिनट में मेरे सक्रिय सुनने से एक अनुकूल माहौल पैदा हो गया था। अब सीईओ साहब पूरी तरह से ग्रहणशील मोड में आ चुके थे और जो भी मैं संवाद करना चाहता था उसे सुनने के लिए वे तैयार थे। संक्षेप में, यह दो तरफ़ा संवाद का एक अच्छा सत्र था। मुझे इस बात की सराहना करनी चाहिए कि कंपनी के सीईओ भी एक महान श्रोता थे जब मैं उन्हें ऑफसाइट के बारे में ब्रीफिंग दे रहा था, उन्होंने मुझे बीच में बिल्कुल नहीं टोका। हालांकि बाद में उन्होंने मुझसे रिसॉर्ट में लॉजिस्टिक व्यवस्था और दिल्ली से रिजॉर्ट की यात्रा के बारे में कुछ बहुत ही प्रासंगिक प्रश्न पूछे।
तो यह दोनों तरफ से सक्रिय श्रोता होने का एक अच्छा सत्र था। याद रखें, सुनना एक कला है जिससे हम सभी लाभान्वित हो सकते हैं। एक बेहतर श्रोता बनकर, हम अपनी उत्पादकता में सुधार कर सकते हैं, साथ ही साथ किसी पर प्रभाव डालने, किसी को मनाने और यहां तक कि बातचीत करने की हमारी क्षमता भी सुधार सकते हैं। सक्रिय सुनने के माध्यम से, हम संघर्ष व गलतफहमी से बच सकते हैं और यहां तक कि हमारे जूनियर से स मान और समर्थन भी पा सकते हैं।
सक्रिय होकर सुनने से हम न केवल शब्दों को सुनते हैं बल्कि दूसरे व्यक्ति के कुल संदेश को वास्तव में समझने की कोशिश करते हैं। इसमें दूसरे व्यक्ति की आंखों में देखना भी शामिल है लेकिन घूरना बिल्कुल भी नहीं। हम उसके हाव-भाव को भी देखते हैं। सुनते समय हम व्हाट्सएप संदेश या बीच में एक फोन कॉल प्राप्त करके खुद को विचलित करने की अनुमति नहीं दे सकते। वास्तव में, यदि टीवी या कुछ बैक ग्राउंड संगीत चालू है, तो इसे बंद कर दे और किसी भी प्रकार के अवरोध से बचने के लिए दरवाजा बंद कर दें। हम इस दो तरफा संवाद के बीच ध्यान नहीं भटका सकते। और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हमें खुले दिमाग से सुनना चाहिए।
मान लीजिए कि आपका कोई अत्यधिक परेशान और उत्तेजित कर्मचारी आपके पास शिकायतों के बंडल के साथ आता है, तो यहां आप सक्रिय सुनकर चमत्कार कर सकते हैं। आप धैर्यता के साथ सक्रिय होकर दूसरे व्यक्ति की पूरी बात सुने। उस व्यक्ति को यह लगना चाहिए कि आप ध्यान से उसकी बात सुन रहे हैं। आपकी अंत:क्रियात्मक स्वीकृति आपके सिर को हिलाने अथवा ‘ओह, हां या हुह’ जैसी सरल हो सकती है। आपको यह इशारा भी देना होगा कि उसने जो कुछ बताया है उसे सुनकर आप उसकी समस्या को समझ चुके हैं। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप दूसरे व्यक्ति से सहमत हैं या नहीं। अकेले सक्रिय सुनने की यह प्रक्रिया उसे शांत कर देगी और वह खुश होगा कि आपने पूरी तरह से समस्या को सुनने के लिए अपना समय दिया। वास्तव में, आपको स्पीकर को बोलना जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि आपको पूरी जानकारी मिल सके जो आपको सुधारात्मक कार्रवाई करने में सक्षम करेगी। अकेले सक्रिय सुनवाई की यह प्रक्रिया समस्या को 50 प्रतिशत हल कर देगी।
कर्मचारी की समस्या के हल के लिए आपको तुरंत अपना फैसला नहीं देना पड़ेगा। हालांकि, अगर समस्या का समाधान आपके पास है और आप सुधारात्मक कार्रवाई के लिए सशक्त हैं उसकी व्यवहार्यता के बारे में पूरी तरह से आश्वस्त हैं तो आप तुरंत समाधान कर देवें। लेकिन अगर आपको लगता है कि इस मुद्दे पर कुछ और सहयोगियों या वरिष्ठों के साथ चर्चा की जानी चाहिए, तो बस उस व्यक्ति को बताएं कि उसकी समस्या को पूरी तरह से समझ लिया गया है और इस स बन्ध में जल्द से जल्द कार्रवाई की जाएगी।
कभी-कभी, संगठनों में प्रबंधन एवं श्रमिकों अथवा अधिकारियों एवं कर्मचारियों के बीच समस्याएं होती हैं और कभी-कभी यह स्ट्राइक का भी रूप ले लेती हैं। थोड़ा गहरा विश्लेषण बताएगा कि ये वास्तव में वरिष्ठों और अधीनस्थों के बीच संवाद की विफलता के कारण होता है। लोग केवल तभी प्रतिशोध करते हैं जब उन्हें लगता है कि कोई भी उन्हें सुन नहीं रहा है। इसलिए नेताओं/प्रबंधकों को सक्रिय सुनवाई की कला सीखनी चाहिए।