विभिन्न देशों में वेतनमान और पेट्रोल की कीमतें
– ऑस्ट्रेलिया में न्यूनतम वेतन लगभग 1,55,000 रुपए (एक लाख पचपन हजार रुपए) महीना है। पेट्रोल की कीमत औसतन 78 रुपए प्रति लीटर है।
– फ्रांस में न्यूनतम वेतन लगभग 1,20,000 रुपए (एक लाख बीस हजार रुपए) महीना है। पेट्रोल की कीमत औसतन 112 रुपए प्रति लीटर है।
– इंग्लैंड में न्यूनतम वेतन लगभग 1,20,000 रुपए (एक लाख बीस हजार रुपए) महीना है। पेट्रोल की कीमत औसतन 105 रुपए प्रति लीटर है।
– जर्मनी में न्यूनतम वेतन लगभग 1,20,000 रुपए (एक लाख बीस हजार रुपए) महीना है। पेट्रोल की कीमत औसतन 120 रुपए प्रति लीटर है।
– अमेरिका में न्यूनतम वेतन लगभग 85,000 रुपए (पिच्चासी हजार रुपए) महीना है। पेट्रोल की कीमत औसतन 65 रुपए प्रति लीटर है।
– चीन मेंं सरकारी घोषित न्यूनतम वेतन (एक्चुल वेतन बहुत कम है) लगभग 20,000 रुपए (बीस हजार रुपए) महीना है। पेट्रोल की कीमत औसतन 85 रुपए लीटर है।
दुनिया में पेट्रोल की कीमत औसतन लगभग 83 रुपए प्रति लीटर है।
भारत में तो लाखों लोग 2000 रुपए महीना या इससे भी कम में काम करते हैं। फिर भी यदि ‘नेशनल फ्लोर लेवल न्यूनतम वेतन’ की ही बात की जाए तो भारत में सरकारी तौर पर न्यूनतम वेतन लगभग 5000 रुपए महीना है। पेट्रोल की कीमत औसतन 75 रुपए प्रति लीटर है।
फ्रांस में पेट्रोल की कीमतें इतनी अधिक नहीं हैं कि वहां के लोगों का जीवन अस्तव्यस्त हो जाएगा। सबसे प्रमुख बात यह कि फ्रांस के राष्ट्रपति ने पेट्रोल की कीमतें पर्यावरण की दृष्टि से बढ़ाई हैं। फ्रांस में बहुत ही सस्ती, बेहतर व व्यवस्थित सरकारी पब्लिक-ट्रांसपोर्ट सेवाएं हैं। फ्रांस में जगह-जगह बैटरी से चलने वाली कारों के लिए सरकारी रिचार्ज-सेंटर हैं। लोगों के पास पेट्रोल/डीजल कारों के प्रयोग की बजाय बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं, उनका प्रयोग कर सकते हैं।
मैं व्यक्तिगत रूप से फ्रांस में पेट्रोल की कीमत बढ़ाए जाने के समर्थन में हूं। भले ही मेरे समर्थन/विरोध का फ्रांस में कोई भी व्यावहारिक मतलब नहीं। मैं इस संदर्भ में अंग्रेजी भाषा में अंतर्राष्ट्रीय जरनल में भी लिखूंगा।
विभिन्न देशों में आयकर एवं छूट
अमेरिका – शून्य रुपए आय से लेकर लगभग 6,50,000 रुपए (साढ़े छ: लाख रुपए) सालाना तक 10 प्रतिशत आयकर। मतलब यह कि यदि आप एक रुपए की भी आय करते हैं तो आपको कम से कम 10 प्रतिशत आयकर देना होगा। बढ़ते हुए क्रम में कई आयकर स्तर हैं। सबसे अधिक आयकर लगभग 39.6 प्रतिशत होता है, जो लगभग तीन करोड़ रुपए की सालाना आय या अधिक पर लगता है। अमेरिका आयकर में कई प्रकार की छूटें देता है। प्रति बच्चा आयकर में छूट देता है।
ऑस्ट्रेलिया- लगभग 11,00,000 रुपए (ग्यारह लाख रुपए) तक की सालाना आय पर कोई आयकर नहीं। बढ़ते हुए क्रम में कई आयकर स्तर हैं। सबसे अधिक आयकर लगभग 47 प्रतिशत होता है, जो लगभग 93,00,000 रुपए (तिरान्वे लाख रुपए) की सालाना आय या अधिक पर लगता है। ऑस्ट्रेलिया लगभग ग्यारह लाख रुपए साल तक की आय में कोई आयकर नहीं लेता है, ऊपर से आयकर में कई प्रकार की छूटें भी देता है। प्रति बच्चा आयकर में छूट देता है।
ऑस्ट्रेलिया लगभग 300,000 रुपए (तीन लाख रुपए) महीना तक की आय वालों को ‘लो-इन्कम’ मानते हुए उनकी आय के आधार पर आयकर में विभिन्न प्रतिशत स्तर की छूट देता है। ऑस्ट्रेलिया लगभग 5,40,000 रुपए (पांच लाख चालीस हजार रुपए) महीना तक की आय वालों को ‘मिडल-इन्कम’ मानते हुए उनकी आय के आधार पर आयकर में विभिन्न प्रतिशत की छूट देता है।
इन सबके अतिरिक्त ऑस्ट्रेलिया चाइल्ड केयर पर माता-पिता को भारी भरकम आर्थिक सहयोग करता है (आयकर में छूट के अतिरिक्त)। 16 वर्ष से 24 वर्ष तक की आयु के युवाओं को युवा भत्ता देता है। वृद्ध लोगों के लिए भत्ते, सुविधाओं व बहुत सारी छूटें देता है।
सबसे बड़ी बात ऑस्ट्रेलिया में स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकार की है। यदि आप प्राइवेट डॉक्टर के पास भी जाते हैं तो भी सरकार आपकी बीमारी के आधार पर आपको 90 प्रतिशत तक का खर्च देती है। सरकारी अस्पतालों में तो सबकुछ मुफ्त है ही। बहुत प्रकार की जांचे ऐसी हैं जो आप किसी भी प्राइवेट लैब में चले जाएं, आपको एक रुपया नहीं देना पड़ता है, सरकार देती है। विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा में भी छात्रों को बिना-शर्त भारी आर्थिक सुविधाएं, छूट इत्यादि ऑस्ट्रेलिया सरकार देती है।
अमेरिका एक रुपए की आय पर भी आयकर लेता है। सबसे ऊपर वाला स्लैब तीन करोड़ रुपए सालाना आय पर है, मतलब अमीरों को और अमीर होने का रास्ता खोलता है। सभी लोगों से आयकर लेने के बावजूद, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि की जिम्मेदारी नहीं लेता है।
ऑस्ट्रेलिया लगभग ग्यारह लाख रुपए साल की आय तक आयकर नहीं लेता है। लगभग 90 लाख रुपए से कुछ अधिक आय पर ही सबसे ऊपर वाले स्लैब का 47 प्रतिशत का आयकर लगा देता है। लो-इन्कम, मिडल-इन्कम वालों को आयकर में अतिरिक्त छूट देता है। ऑस्ट्रेलिया आयकर से बहुत लोगों को बाहर रखने के बावजूद स्वास्थ्य, शिक्षा व चाइल्ड केयर इत्यादि की जिम्मेदारी लेता है तथा भारी भरकम खर्च करता है।
मैं सदैव कहता हूं कि अमेरिका को केवल भारत जैसे सामंती मानसिकता वाले समाजों के लोग ही आदर्श या मॉडल के रूप में देखते हैं। जबकि यथार्थ यह है कि अमेरिका, यूरोप व ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तुलना में कहीं नहीं ठहरता है। हिंसात्मक रूप से ताकतवर होने का मतलब बेहतर होना नहीं होता। अमेरिका तो इतना बीमार समाज है कि अमेरिका के बहुत स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा जांच होती है, जैसे हमारी आपकी सुरक्षा जांच एयरपोर्ट में होती है।
दुनिया में यदि मानव विकास जिसमें देश के लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा, जीवन की गुणवत्ता, सुविधापूर्ण जीवन व संपन्नता इत्यादि की बात की जाए तो नार्वे व स्विट्जरलैंड के बाद ऑस्ट्रेलिया का तीसरा नंबर आता है।
कनाडा बारहवें नंबर पर आता है।
अमेरिका तेरहवें नंबर पर आता है।
भारत व चीन इस संदर्भ में दी जाने वाली रैंकिंग में नहीं आते हैं। जबकि लगभग 60 तक रैंक दी जाती है।
दुनिया में प्रति व्यक्ति की संपत्ति के मीडियन के अनुसार ऑस्ट्रेलिया, आइसलैंड नामक देश के बाद दुनिया का सबसे अमीर देश है। स्विट्जरलैंड तीसरा सबसे अमीर देश है। मीडियन का मतलब यह हुआ कि अधिकतर लोग कैसा जीवन जीते हैं। मजेदार बात यह है कि भारत के 100 रुपए से आइसलैंड की करेंसी का 175 मिलता है। करेंसी वाली बात यहां इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि भारत में बहुत लोग विकास व समद्धि का संबंध करेंसी कन्वर्जन से लगाते हैं।
कनाडा 8 वें नंबर पर आता है।
अमेरिका 21 वें नंबर पर आता है।
चीन 42 वें नंबर पर आता है।
श्रीलंका 106 वें नंबर पर आता है।
पाकिस्तान 116 वें नंबर पर आता है।
भारत 126 वें नंबर पर आता है।
भारत में बचपन से ही भारतीय मीडिया, सुनी सुनाई बातों इत्यादि के माध्यम से हमारे आपके मन में ऐसी कंडीशनिंग हो जाती है कि हमें अमेरिका, इग्लैंड, फ्रांस, जापान, इत्यादि देश दुनिया के सबसे बेहतरीन देश लगते हैं। जबकि यथार्थ यह है कि इनमें से कोई भी देश दुनिया के पांच सबसे समृद्ध व विकसित देशों में नहीं आता है।
मजेदार बात यह है कि दुनिया के अधिकतर सबसे समृद्ध व विकसित देश वे हैं जो हथियारों के बड़े सौदागर नहीं हैं। तकनीकी रूप से भी बेहद समृद्ध ये देश यदि हथियारों के सौदागर भी बन जाएं तो कितना अमीर हो जाएंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
अमेरिका जीडीपी का लगभग 3.3 प्रतिशत सेना पर खर्च करता है।
भारत जीडीपी का लगभग 2 प्रतिशत सेना पर खर्च करता है।
कनाडा जीडीपी का लगभग 1.5 प्रतिशत सेना पर खर्च करता है।
चीन जीडीपी का लगभग 1.2 प्रतिशत सेना पर खर्च करता है।
ऑस्ट्रेलिया जीडीपी का लगभग 2.5 प्रतिशत सेना पर खर्च करता है।
जीडीपी, जनसंख्या व क्षेत्रफल
भारत में मैंने एक भयंकर मानसिकता महसूस की है कि हर बात में भारत की जनसंख्या को दोष दे दिया जाता है। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा या इसी तरह के देशों की बात कीजिए तो जनसंख्या कम होने की बात कर दी जाती है। अधिकतर भारतीयों को तो यह भी नहीं मालूम कि दुनिया में कई देश ऐसे हैं, जहां जनसंख्या घनत्व भारत से भी अधिक है, प्राकृतिक संसाधन भारत से कम हैं, लेकिन फिर भी वे देश विकसित हैं, समृद्ध हैं तथा बहुत बेहतर लोकतांत्रिक मूल्यों वाले देश हैं।
एक चीज होती है जिसे जीडीपी कहा जाता है। जीडीपी की गणना करने के लिए कई प्रकार के फॉर्मूले चलते हैं, जिनमें से भारत उस फॉर्मूले का प्रयोग करता है जो अब विकसित देश प्रयोग नहीं करते हैं, विकसित देश बेहतर फॉर्मूलों की ओर बढ़ चुके हैं। लेकिन भारत पुराने फॉर्मूले का प्रयोग इसलिए करता है क्योंकि इससे जीडीपी बढ़ी हुई लगती है। जीडीपी की गणना के फॉर्मूलों की बात न भी की जाए तो भी एक बात तो बिलकुल साफ ही होती है कि अधिक जनसंख्या मतलब अधिक जीडीपी होती है।
चीन व भारत की जनसंख्या लगभग बराबर है लेकिन चीन की जीडीपी भारत की जीडीपी से लगभग साढ़े चार गुना अधिक है। चूंकि चीन का क्षेत्रफल भारत से लगभग तीन गुना बड़ा है। इसलिए जनसंख्या व क्षेत्रफल के अनुपात से यह माना जा सकता है कि चीन की जीडीपी भारत की जीडीपी से लगभग डेढ़ गुना अधिक है।
भारत की जनसंख्या ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या से लगभग 56 गुनी अधिक है लेकिन जीडीपी केवल पौने दो गुनी ही अधिक है। ऑस्ट्रेलिया का क्षेत्रफल भारत से लगभग ढाई गुना बड़ा है। जनसंख्या व क्षेत्रफल के अनुपात से भी भारत की जीडीपी ऑस्ट्रेलिया की जीडीपी से लगभग 23 गुनी अधिक होनी चाहिए, जबकि है दो गुनी से भी कम।
कनाडा की जनसंख्या ऑस्ट्रेलिया से लगभग डेढ़ गुनी अधिक है। कनाडा की जीडीपी ऑस्ट्रेलिया की जीडीपी से लगभग सवा गुनी अधिक है। कनाडा का क्षेत्रफल ऑस्ट्रेलिया से लगभग एक तिहाई गुना अधिक है। जनसंख्या व क्षेत्रफल के अनुपात से कनाडा की जीडीपी ऑस्ट्रेलिया की जीडीपी से लगभग दुगुनी होनी चाहिए।
अमेरिका की जनसंख्या ऑस्ट्रेलिया से 13 गुनी अधिक है। अमेरिका की जीडीपी ऑस्ट्रेलिया की जीडीपी से 14 गुनी अधिक है। अमेरिका का क्षेत्रफल ऑस्ट्रेलिया के क्षेत्रफल से लगभग सवा गुना अधिक है। जनसंख्या व क्षेत्रफल के अनुपात से अमेरिका की जीडीपी ऑस्ट्रेलिया की जीडीपी से लगभग साढ़े सोलह गुना अधिक होनी चाहिए।
जीडीपी का मतलब होता है, किसी देश का कुल घरेलू उत्पादन। उत्पादन देश का समाज व लोग करते हैं। मोटा मोटी सीधा साधा हिसाब बड़ी जनसंख्या बड़ी जीडीपी।
भारी भरकम जनसंख्या के कारण चीन व भारत की जीडीपी संख्या के हिसाब से भले ही बहुत बड़ी हों, लेकिन यदि देश की जनसंख्या व क्षेत्रफल इत्यादि के आनुपातिक रूप से देखा जाए तो चीन व भारत अकल्पनीय रूप से बहुत ही अधिक पीछे हैं। ऐसा होने के बहुत कारण हैं, जिनमें से प्रमुख कारण- मानव संसाधन का उचित व बेहतर प्रयोग न हो पाना, अधिक लोगों के परिश्रम पर कम लोगों की मौज करना, शोषण आधारित सामाजिक व व्यवस्था/सरकारी-तंत्रों के ढांचे, व्यवस्था/सरकारी तंत्रों का देश के लोगों के प्रति जवाबदेह व जिम्मेदार न होना। इत्यादि-इत्यादि हैं।
सौर ऊर्जा : सस्ता वैकल्पिक साधन
ऑस्ट्रेलिया में लगभग 85 लाख घर हैं। 20 लाख से अधिक घर सौर-ऊर्जा से संचालित हैं, मतलब लगभग 24 प्रतिशत घर सौर-ऊर्जा से संचालित हैं। सौर-ऊर्जा से संचालित घर का मतलब वाशिंग मशीन, फ्रिज, टीवी, एयरकंडीशनर इत्यादि का सौर-ऊर्जा से चलना।
ऑस्ट्रेलिया में सौर-ऊर्जा से चलने वाले घर, अपने आकार-प्रकार व बिजली की जरूरत के आधार पर लगभग 4 किलोवाट से लेकर 20 किलोवाट या अधिक क्षमता के सोलर-पैनल प्रयोग करते हैं।
यहां सिर्फ उन घरों की चर्चा की जा रही है जिन घरों के लोगों ने अपने घरों को व्यक्तिगत रूप से सौर-ऊर्जा से ऊर्जा में स्वावलंबित कर रखा है।
ऑस्ट्रेलिया दुनिया का वह देश है जहां सौर-ऊर्जा से संचालित घरों का प्रतिशत सबसे अधिक है, यह संख्या लगातार हर वर्ष बढ़ती भी जा रही है। ऑस्ट्रेलिया में एक सुविधा यह भी है कि यदि आप अपनी जरूरत से अधिक सौर-ऊर्जा का उत्पादन करते हैं तो आप सरकार को अपनी सौर-ऊर्जा बेच भी सकते हैं।
चीन-भक्तों /चीन के साम्यवाद का कसीदा पढऩे वालों के लिए
चीन अपने देश के लोगों से प्रतिवर्ष लगभग 440000 करोड़ (चार लाख चालीस हजार करोड़) रुपए सड़कों पर टोल-टैक्स से वसूलता है। टोल-टैक्स के नाम पर लोगों को इतना लूटने के बावजूद चीन का सड़क विभाग बेइंतहा घाटे में रहता है, इसलिए टोल-टैक्स बढ़ता रहता है। दुनिया में कुल जितनी टोल-टैक्स सड़के हैं, उसकी 70 प्रतिशत केवल चीन में हैं। चीन में लगभग पौने दो लाख किलोमीटर की सड़कें टोल-टैक्स वाली हैं।
चीन में पक्की सड़कों की लंबाई लगभग 25 लाख किलोमीटर है, मतलब प्रति 1000 व्यक्ति पर लगभग 1.8 किलोमीटर (पौने दो किलोमीटर) का औसत। (भारत का औसत भी लगभग इतना ही है)
चीन की कुल जनसंख्या के लगभग 23 प्रतिशत लोगों के पास मोटर-वाहन है। चीन में प्रतिवर्ष सड़क दुर्घटनाओं से लगभग 300,000 (तीन लाख) लोगों की मृत्यु होती है। सबसे मजेदार बात यह है कि चीन में अधिकतर टोल-टैक्स वाली सड़कों की मालिक चीन की सरकार नहीं है, बल्कि निजी कंपनियां हैं, जो चीन के बैंकों से लोन लेकर सड़कें बनाती हैं।
यह कौन सा साम्यवाद है, जबकि देश के अधिकतर लोग देश के लिए बेगार मजदूर ही हैं। अपने लोगों का खून चूस कर सस्ते में दुनिया को सामान उपलब्ध करा पाता है। इसको इकोनोमी कहता है, साम्यवाद कहता है। यदि साम्यवाद के फर्जी रोमांस से बाहर आकर गहराई से व वस्तुनिष्ठता से देखा समझा जाए तो चीन दुनिया का सबसे धूर्त व हिंसक साम्राज्यवादी देश है, क्योंकि अपने ही देश के लोगों के साथ धूर्तता व हिंसा करता है।
भारत में मिट्टी, पगडंडी, खड़ंजा, कांक्रीट व डामर सभी प्रकार की सड़कों की कुल लंबाई लगभग 56 लाख किलोमीटर है। जिसमें लगभग 30 लाख किलोमीटर की सड़कें मिट्टी, पगडंडी या ईंटों के खड़ंजों वाले रास्ते हैं। बाकी बची लगभग 26 लाख किलोमीटर, मतलब जो पक्की सड़कें हैं उनका लगभग 10 प्रतिशत मतलब लगभग 2.5 (ढाई) लाख किलोमीटर सड़कें टोल-टैक्स वाली हैं।
भारत में कुल जनसंख्या के लगभग 5 प्रतिशत लोगों के पास मोटर-वाहन हैं। भारत में सड़क दुर्घटनाओं से प्रतिवर्ष लगभग 2,50,000 (ढाई लाख) मौतें होती हैं। केवल भारत सरकार ही सालाना लगभग 7000 करोड़ रुपए टोल-टैक्स वसूलती है। राज्य सरकारों द्वारा वसूला जाने वाला टोल-टैक्स इसमें शामिल नहीं है।
ऑस्ट्रेलिया जिसे साम्राज्यवादी देश माना जाता है। वहां पूरे देश में टोल-टैक्स वाली सड़कों की कुल लंबाई केवल लगभग 240 किलोमीटर है। जबकि प्रति 1000 व्यक्ति पर पक्की सड़क की लंबाई 20 किलोमीटर से भी अधिक है। भारत व चीन में पक्की सड़क का औसत लगभग पौने दो किलोमीटर प्रति 1000 व्यक्ति है। चूंकि वाहन खरीदते समय पंजीकरण शुल्क तथा रोड-टैक्स सरकारें वसूलती ही हैं, इसलिए केवल निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए पीपीपी का फ्रॉड रचते हुए टोल-टैक्स वसूलना देश के आम लोगों को लूटने के तरीके की धूर्तता के सिवाय कुछ भी नहीं। भारत में तो सैंकड़ों जगहों पर बिना सड़क बने ही अग्रिम टोल-टैक्स बाकायदा सरकारी-गुंडई के साथ पूरे तामझाम के साथ वसूले जाते हैं।
ऑस्ट्रेलिया डायरी
ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय राजधानी कैनबरा है। जनसंख्या चार लाख है। सरकारी लोकल बसों की संख्या लगभग 500 है। कैनबरा में लोकल बस का किराया सस्ता है। किराया दूरी के हिसाब से नहीं लिया जाता है। सरकार लोगों से लूट-खसोट नहीं करती है। एक सिंगल ट्रिप का किराया वयस्क के लिए लगभग 2.5 डॉलर है। दिन का अधिकतम किराया लगभग 9 डॉलर है। छुट्टियों में दिन का अधिकतम किराया 5.75 डॉलर है। महीने का अधिकतम किराया लगभग 100 डॉलर है।
छात्रों के लिए सिंगल ट्रिप 1.5 डॉलर, दिन का अधिकतम लगभग 4 डॉलर, महीने का अधिकतम लगभग 50 डॉलर है। छुट्टियों में दिन का अधिकतम लगभग 2 डॉलर है। 70 वर्ष से अधिक के लिए बिलकुल मुफ्त है। 60 से 70 वर्ष के लिए केवल पीक आवर्स में किराया पड़ता है, बाकी बिलकुल मुफ्त है। पीक आवर्स में भी किराया सिंगल ट्रिप का लगभग 1.5 डॉलर है। अधिकतम किराए की गणना यात्रा स्मार्ट कार्ड स्वत: कर लेता है। बसें व व्यवस्था हाईटेक है।
सिंगल ट्रिप का मतलब यह कि एक बस से उतर कर दूसरी बस में 90 मिनट (डेढ़ घंटा) के अंदर चढ़ जाना। इस पूरी यात्रा का किराया एक ही होगा, भले ही आपने दो बसों में 100 किलोमीटर की यात्रा ही क्यों न की हो। (कैनबरा की एक लोकल बस)
ऑस्ट्रेलिया में होमलेस लोग भी रहते हैं। जरूरी नहीं कि जो होमलेस हैं वह मजबूर ही है। होमलेस होना लोगों के द्वारा अपने जीवन में चुनी गई प्राथमिकताओं के कारण भी हो सकता है। होमलेस होना लोगों के द्वारा सरकार द्वारा दी गई सुविधाओं का स्वेच्छा से न लिया जाना भी हो सकता है। अरबों रुपए की संपत्तियों का वारिस भी अपनी संपत्तियों को दान करके होमलेस होने का निर्णय ले सकता है, ऐसे लोग मिलना भी अचंभे की बात नहीं।
आपको ऐसे होमलेस मिल जाएंगे जिनके पास बहुत महंगी मोटरसाइकिल या साइकिल या तिपहिया साइकिल होगी। गर्म कपड़े, गर्म स्लीपिंग सूट व बैग भी होंगे। किताबें भी होगीं। खाने पीने का सामान भी होगा।
किसी नदी या झील किनारे, तंबू लगाए आपको कोई व्यक्ति मोटी-मोटी किताबें पढ़ता मिल जाएगा। मालूम पड़ेगा कि वह व्यक्ति दुनिया की कई भाषाएं जानता है, हजारों किताबें पढ़ चुका है, दुनिया के कई देश घूम चुका है। वह व्यक्ति होमलेस इसलिए है क्योंकि वह अपना जीवन बाजार व मुद्रा की गदहापचीसी में नहीं लगाना चाहता है। भोजन लायक आय कर लेता है, रहने के लिए तंबू है ही या किसी पार्क में किसी शेड के नीचे अपनी व्यवस्था कर ली। आज यहां कल वहां, उन्मुक्त जीवन।
ऐसे भी होमलेस होंगे जिनके पास घर नहीं होगा लेकिन ऐसी नाव होगी जिसमें बेडरूम होगा, टॉयलेट, किचेन होगा तथा नाव यात्रा भी करती होगी। यहां मैं नीदरलैंड के नाव-घरों की बात नहीं कर रहा, जो घर के रूप में पंजीकृत होते हैं। जमीन कम तथा समुद्री बाढ़ अधिक होने के कारण नीदरलैंड में लोगों ने सैकड़ों-हजारों वर्ष पूर्व स्थाई रूप से नाव-घरों में रहना शुरू किया होगा। मैं ऐसे लोगों की बात कर रहा हूं जिन्होंने जीवन में चुना कि वे घर नहीं खरीदेंगे, नाव में ही रहेंगे। बहुत ऐसे लोग भी होंगे जिनकी नावों की कीमत महंगे घरों से अधिक होगी। होमलेस लोग होमलेस क्यों हैं, इसके अनेक कारण हो सकते हैं।
ऑस्ट्रेलिया में सरकार ने आदिवासियों के लिए आदिवासी क्षेत्रों में प्रति परिवार करोड़ों रुपए के आधुनिक सुविधाओं के साथ घर बनवा कर दिए हैं। वह अलग बात है कि आदिवासी परिवार उस घर का प्रयोग केवल टॉयलेट करने के लिए करे और उसी के सामने झोपड़ी या तंबू गाड़ कर रहे। आदिवासियों को बहुत सारी सुविधाएं प्राप्त हैं, साथ ही जितनी उनकी जनसंख्या है विभिन्न स्तरों पर उतना आरक्षण सरकारी नौकरियों में है।
ऑस्ट्रेलिया सरकार गैर-आदिवासी गरीब लोगों के लिए भी विभिन्न प्रकार के भत्ते व आवास सुविधाएं देती है ताकि गरीब लोग भी सम्मान व सुविधा पूर्वक जीवन जी सकें। ऐसे परिसर मुख्य रिहाइशी इलाकों में ही बनाए जाते हैं, न कि दूर-दराज व अलग-थलग इलाकों में। यदि आपको बताया न जाए तो देख कर अंदाजा नहीं लग सकता कि यह परिसर गरीबों के लिए सरकारी योजना के तहत बने आवास हैं।
ऑस्ट्रेलिया व वहां के आदिवासी
ऑस्ट्रेलिया में आदिवासियों के लिए सरकारी नौकरियों में विभिन्न स्तरों पर जितना प्रतिशत उनकी जनसंख्या है उतना प्रतिशत आरक्षण है। चूंकि आदिवासियों की संख्या लगातार बढ़ रही है इसलिए उनके लिए आरक्षण भी लगातार बढ़ रहा है। योग्यता इत्यादि के बेहूदे तर्कों के द्वारा आदिवासियों के आरक्षण का विरोध नहीं होता क्योंकि आरक्षण को सामाजिक न्याय व समता की ओर बढऩे के लिए आवश्यक माना जाता है तथा किए गए अन्याय के लिए क्षमा प्रार्थना के रूप में भी देखा जाता है।
ऑस्ट्रेलिया में आदिवासियों की कुल जनसंख्या लगभग साढ़े सात लाख है। सरकारों ने आदिवासियों को करोड़ों रुपये की लागत के लाखों बेहतरीन घर बनवा कर दिए हैं।
ऑस्ट्रेलिया व आदिवासी संरक्षित क्षेत्र
ऑस्ट्रेलिया में आदिवासियों की कुल जनसंख्या लगभग साढ़े सात लाख है। इनके लिए ऑस्ट्रेलिया में कुल 75 आदिवासी संरक्षित क्षेत्र हैं, जिनका कुल क्षेत्रफल भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के क्षेत्रफल से दुगुने से भी बड़ा है। इन 75 आदिवासी संरक्षित क्षेत्रों में से सबसे बड़े आदिवासी संरक्षित क्षेत्र का क्षेत्रफल भारत के बिहार राज्य से भी बड़ा है। कुल मिलाकर बात यह कि ऑस्ट्रेलिया के कुल प्राकृतिक संरक्षित क्षेत्र का लगभग 50 प्रतिशत आदिवासियों के संरक्षण में दे दिया गया है।
ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी संरक्षित क्षेत्रों में बिना आदिवासियों की लिखित अनुमति के आम नागरिक प्रवेश नहीं कर सकता है। सरकार द्वारा लाखों रुपए के जुर्माने व सजा इत्यादि का प्रावधान है। ऐसा इसलिए है ताकि गैर-आदिवासी लोग, आदिवासी संस्कृति व जीवन को व्यवधान न दें और आदिवासी अपनी परंपराओं को अपने ढंग से जीने व संरक्षित करने के लिए स्वतंत्र रहें।
ऑस्ट्रेलिया में 1788 में अंग्रेज पहुंचे। तब तक ऑस्ट्रेलिया के लोग पाषाण काल में ही जी रहे थे। उनको ब्रोंज व लोहे का प्रयोग तक नहीं मालूम था। कपड़ा नहीं जानते थे। खेती नहीं जानते थे। पशुपालन नहीं जानते थे। गांव, नगर इत्यादि नहीं जानते थे। स्थायी कबीला तक नहीं होता था। लिपि तक नहीं थी। बाकी दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी थी लेकिन 1788 में अंग्रेजों के ऑस्ट्रेलिया पहुंचने के पहले तक ऑस्ट्रेलिया के लोग पचासों हजार साल पीछे के पाषाण युग में ही जी रहे थे। उस समय वहां की कुल जनसंख्या लगभग सात लाख थी और बोलियां 700 से अधिक थीं, लिपि थी ही नहीं।
केवल साढ़े सात लाख लोगों के लिए राजस्थान राज्य से दुगुने से भी बड़ा जंगल पहाड़ नदी झील समुद्र संरक्षित है। आदिवासियों के लिए करोड़ों रुपये के घर, अत्याधुनिक अस्पताल, बेहतरीन स्कूल, हजारों हजार स्वीमिंग पूल, खेलने के लिए अत्याधुनिक आउटडोर, इनडोर क्रीड़ा-स्थल, ढेर सारे भत्ते इत्यादि की सुविधाएं हैं।
इतना सब होने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया में सरकारी नौकरियों में विभिन्न स्तरों पर ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या का जितना प्रतिशत आदिवासी जनसंख्या है, उतना आरक्षण है। जो लोग 200 साल पहले तक पाषाण काल में जीते रहे हों, उनको दिए जाने वाले आरक्षण का विरोध ऑस्ट्रेलिया के लोग नहीं करते हैं जबकि दुनिया के सबसे विकसित देश के लोग हैं, 200 साल पहले ऑस्ट्रेलिया आने के बहुत पहले ही भाप का इंजन, दूरदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, परमाणु इत्यादि जैसी खोजें कर चुके थे।
ऑस्ट्रेलिया एक बेहद परिपक्व समाज है, इसलिए आरक्षण को सामाजिक न्याय के रूप में देखता है, न कि योग्यता इत्यादि के नाम पर बेहूदगी व बेशर्मी के साथ विरोध करता है। आधुनिक ऑस्ट्रेलिया समाज अपने पूर्वजों द्वारा की गई गलतियों, हिंसा व शोषण से शर्मिंदगी महसूस करता है। सामाजिक न्याय, मानवाधिकारों व लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरे से बिना ढोंग व बिना आदर्शों की खोखली बतोलेबाजी के समझता है, वह व्यवहार में जीने के लिए प्रयासरत रहता है।
सामाजिक न्याय बेहद गहरा, सूक्ष्म व ईमानदार सामाजिक व नैतिक मूल्य होता है, जिसे प्रामाणिकता के साथ जीना पड़ता है। दुनिया के बहुत कम समाज, अपवाद समाज ही वास्तव में प्रामाणिकता के साथ जीने का निरंतर प्रयास कर पाते हैं।
पर्यावरण, ऊर्जा व ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय राजधानी कैनबरा
लगभग 23 वर्ष पहले कैनबरा दुनिया का पहला शहर बन गया था जिसने यह निर्णय लिया कि कैनबरा ‘जीरो-वेस्ट’ वाला शहर होगा। 75 प्रतिशत से अधिक वेस्ट रिसाइकिल होने लगा है। जीरो वेस्ट का मतलब ऐसा वेस्ट जो कहीं फेका नहीं जाएगा, न जमीन पर, न समुद्र पर न ही कहीं और। सभी को रिसाइकिल किया जाएगा।
2020 तक कैनबरा की बिजली 100 प्रतिशत नवीकरणीय ऊर्जा’ हो जाएगी
‘सोलर फार्म’ बन रहे हैं, लाखों पैनल्स के सोलर फार्म बन कर तैयार होकर काम शुरू भी कर चुके हैं। कैनबरा में सरकारी भवनों, अस्पतालों, सिविक-सेंटर, बाजारों व यूनिवर्सिटियों की छतों पर भी सोलर सरणियां बनाई जा रहीं हैं, बन भी चुकी हैं।
‘पवन-ऊर्जा फार्म’ बन चुके हैं, बन रहे हैं। सरकार कैनबरा के बाहर दूसरे राज्यों में जमीन लेकर या निवेश करके पवन-ऊर्जा फार्म बनवा रही है, बन भी चुके हैं ताकि कैनबरा को बिजली सप्लाई की जा सके।
विवेक उमराव