प्रकृति का नियम है पका फल पेड़ पर अधिक देर तक लगा रह ही नहीं सकता वह टपकेगा ही कभी न कभी। पेड़ की फल देने की भी एक क्षमता होती है उसके बाद नए पेड़ आते हैं। यही क्रिया मानव जीवन की भी है। नई पीढ़ी को तैयार करना ही मानव धर्म है। पुरानों को जो कि अपना कर्म कर चुके होते हैं, उन्हें जाना ही होता है। उनका कर्म कैसा रहा, उनका योगदान क्या रहा या उन्हें क्या करना चाहिए था। इन सब बातों की आलोचना और विवेचना में अब और ऊर्जा व समय नहीं गंवाना है। पुरानी त्रुटियों से यह सीखना है कि हमें यह नहीं करना होगा।
धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक क्षेत्रों में जो भी विकृतियां आ गई हैं उन्हें अपने प्रेम, सत्य व कर्म से दूर करने का पुरुषार्थ ही अब नए प्रभात की ओर जाने का मार्ग है। हमारी सारी समस्याओं की जड़ यह है कि हम समस्याओं के हल अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार निकालकर उसी से जूझते रहते हैं। हल को लागू करने में और भी समस्याएं पैदा कर लेते हैं। कुछ ऐसी मानसिकता हो गई है कि समस्याएं हैं तो हम हैं। हमारे अहम् का वज़ूद है, कि हम कुछ कर रहे हैं। कर्ताभाव की प्रधानता है जबकि गीता में स्पष्टï कहा है कि कर्म करो पर कर्ताभाव न हो।
सब गुटों के लोग समस्याओं का हल अपने ही तरीके से ढूंढकर, उसे ही सही मानकर एक दूसरे से टकराते रहते हैं। सहयोगी या सहभागी नहीं बनते। समस्याओं के होने के कारण की जि़म्मेदारी किस पर डाली जाए यही प्रयत्न रहता है। सबका दावा रहता है कि हमारे पास ही हल है और सब जुटे हैं जोर शोर से तो समस्याएं हल क्यों नहीं हो रहीं? मजऱ् बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।
यह सब इसलिए है कि जो बात धर्म समाज और राजनीति की नींव होनी चाहिए और जिसको जानते सब हैं मगर उसी को भुला बैठे हैं। सब धर्मों का निचोड़ सत्य, कर्म व प्रेम है और यही प्रकृति का वह अटल सत्य है, जिस पर मानवता का आनन्द निर्भर है। पर धर्म मानवता को प्रेम का पाठ सत्यता से पढ़ाने के बजाए अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठïता सिद्ध करने में प्रचार में व धर्मग्रंथों के घोंटे लगाने में लगा है। यही हाल राजनीति का भी है। देशप्रेम हितों व देशसेवा का पाठ उदाहरण बनकर सिखाने की बजाए अपने स्वार्थपूर्ण हितों व गुटों की सत्तालोलुपता के विस्तार में सारी बुद्धि व समय लगाया जा रहा है।
सामाजिक रीति-रिवाजों के नाम पर, कितने अंधाधुंध व्यय, जीवन-स्तर ऊंचा दिखाने की चूहा-दौड़ ने क्या उदाहरण दिया है समाज को सब जानते हैं। तो दोष किसे दें? हम सब भी तो जाने-अनजाने इस व्यवस्था के भागीदार बने हुए हैं। एक तो हमारी आलसी मानसिकता कि हमें क्या करना है, कौन पड़े झगड़े में, हमारा काम तो चल ही रहा है न।
क्यों नहीं हमारा कत्र्तव्य कर्म का भाव जोर मारता। क्योंकि हम अपने अंदर दैवीय गुण नहीं जगा रहे। इसलिए असुरों के गुण वालों का काम बखूबी चल रहा है। सब जान रहे हैं अपूर्णता कहां नहीं है? कुछ करना भी चाहते हैं, मन में संकल्प भी उठ रहे हंै। उनको कर्म में बदलने के लिए दैवीय शक्ति चाहिए। इस शक्ति को जगाने के लिए श्रीकृष्ण ने गीता में दैवीय संपदा वाले गुण बताए हैं जिन्हें धारण करने से दैवीय गुण जागृत हो जाते हैं।
– मेरे ही भरोसे में दृढ़ रहकर निर्भय रहना
– मुझे प्राप्त करने का ही एक निश्चय
– मुझे तत्व से जानने के लिए हर परिस्थिति में सम रहना
– इच्छारहित सात्विक दान देना।
– इन्द्रियों को वश में रखना।
– कत्र्तव्य का पूर्णता से पालन, शास्त्रानुसार जीवन बिताना।
– मानव-धर्म पालन में आई कठिनाइयों को प्रसन्नतापूर्वक सहना।
– तन मन वाणी की सरलता और इनसे किसी भी प्राणी को जऱा सा भी कष्टï न देना।
– मेरा स्वरूप समझ किसी पर भी क्रोध न करना।
– देखा, सुना, समझा वैसा का वैसा ही प्रिय-शब्दों में कह देना।
– सांसारिक कामनाओं का त्याग, कर्म का नहीं, अंत:करण में राग-द्वेषजनित हलचल का न होना।
– चुगली नहीं, दयाभाव व लालचरहित होना।
– शरीर में तेज और वाणी में ओज होना, श्रेष्ठïता का भाव न होना।
– शरीर शुद्धता का धर्म पालन।
– धैर्यवान, बदले की भावना न होना अपने में सजा देने की सामथ्र्य होने पर भी अपराधी के अपराध को माफ कर देना।
यह आंतरिक तपस्या है। दैवीय गुणों व लक्षणों को अपनाने का प्रयत्न करने से ही अनंत शक्ति व विवेक जागृत होकर कल्याणकारी कर्मों की स्थापना करने में सक्षम होता है। जो आसुरी संपत्ति वाले लक्षणों के प्रभाव का नाश कर देता है।
यही है प्रकृति का नियम, अन्य उपाय समस्या को दबाकर कुछ समय के लिए राहत दे सकते हैं, पर आसुरी प्रवृत्तियों को समूल नष्टï करने के लिए दैवीय सम्पदा वाली प्रवृत्ति चाहिए, यही है जागृति की शक्ति। जिन दैवीय गुणों को अपनाकर विवेकानंद जी ने विवेक जगाने की शक्ति पाई। गांधीजी ने भारत को आज़ाद कराने की लहर जगाई यह विश्व के महानतम ग्रंथ गीता की ही देन है।
मानव की इन शक्तियों को प्रणाम, इन गुणों का महत्व बताने वाले और अपनाकर जीवन सफल बनाने वालों को व सही जीना सिखाने वालों को प्रणाम का प्रणाम!
नया हो तन, नया मन, नए हों दिन और रात
बीते युग की करो क्या अब बात दैवीय गुण हों जीवन की सौगात।
– प्रणाम मीना ऊँ