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आखिर क्यों हम तोड़ते हैं कतार

हाल ही में कुछ अखबारों ने एक फोटो छापी थी। उसमें संसार के सबसे धनी इंसान बिल गेट्स कतार में खड़े हैं। वह तस्वीर अपने-आप में बहुत कुछ कहती है,   कतार के महत्व को भलीभांति समझाती है। हमारे अपने यहां रोज बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, सिनेमा घर वगैरहवगैरह में, हर जगह कतारों के तोड़ने की घटना को दर्शाती घटनाओं की साक्षी हिन्दुस्तानियों के लिए उपर्युक्त चित्र अकल्पनीय अहसास दे जाते हैं। यकीन ही नहीं होता कि माइक्रोसाफ्ट कंपनी का संस्थापक बिल गेट्स कायदे से कतार में खड़ा है। उनके पास कतार में खड़े होने का वक्त है। वे अपने पैसे के रसूख से कतार को तोड़ते की हिमाकत नहीं करता। क्या आप भारत में इस तरह की घटना की कल्पना कर सकते हैं कि भारत का कोई नामवर या असरदार इंसान भी कतार में खड़ा होअसंभव है। कतार को तोड़ने के मामले में सारा देश एक है। भारत का अमीर और शक्तिशाली तो लाइन में खड़ा होना अपनी शान के खिलाफ समझता है। इसलिए वे मंदिरों से लेकर एयरपोर्ट पर लाइन में खड़ा होने से बचते हैं। उनके मंदिरों में विशेष दर्शन के लिए अलग से वी. आई. पी. पंडाल और चोर दरवाजे से उन्हें आनन-फानन में दर्शन करवा दिए जाते हैं, ताकि कतार का चक्कर ही ना रहे। बस, उनसे बदले में ले लिए जाते हैं कुछ दान-दक्षिणा या कोई सरकारी योजना। मतलब वे रुपये अदा करके नियमों को ध्वस्त करने के लिए स्वतंत्र है। समाज ने भी यह मान लिया है कि चूंकि उनके पास धन और सत्ता की शक्ति है, इसलिए उन्हें लाइन में खड़ा होने की आवश्यकता नहीं है। अपने देश में कितने ही तीर्थस्थलों में आपको लाइन तोड़कर देवी-देवताओं के दर्शन करने की अनुमति प्राप्त है।

क्यों हम आजाद होने के 70 साल गुजर जाने पर भी कतार में खड़े होने या चलने का सलीका नहीं सीख सके हैं? हम कब तक हम रहेंगे निरक्षर, और अनुशासनहीन? हम क्यों नहीं सुधर रहे? इन सब सवालों पर गहन चिंतन-मनन और तत्काल सख्ती से अमल करने की आवश्यकता है।

कतार तोड़ने की अपनी मानसिकता के कारण ही हमने अपने देश में लगभग रोज़ ही भागदड़ों में मासूमों को कुचलते हुए देखते रहे हैं। इसके तमाम उदाहरण हमारे पास मौजूद हैं। कितने ही मेलों, धार्मिक, राजनीतिक सभाओं आदि में कतार को तोड़ने के कारण ही भगदड़ मचने से लोग दबते-कुचलते रहते हैं। पर इन सब बातों का हम पर अबतक तो कोई असर नहीं हुआ है। हम अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे हैं। हम तो जैसे मान कर बैठे हैं कि कतार को तोड़े बिना हमारा जीवन ही व्यर्थ है।  

हां, हम तब कतार तब नहीं तोड़ते जब हमें कोई देख रहा होता है या कोई विरोध में मुखर हो जाता है। आप दिल्ली मेट्रो रेलवे के स्टेशनों को देख लीजिए। इसके दर्जनों स्टेशनों में काम पूरी मुस्तैदी से चल रहा होता है। पर मजाल है कि कहीं कोई अराजरता या अव्यवस्था पैदा हो जाये। सब यात्री लाइन से टिकट ले रहे होते हैं या फिर मेट्रो के डब्बों में इस पर चढ़ रहे होते हैं। जाहिर है, मेट्रों में हम इसलिए सुधर जाते हैं, क्योंकि हमें मालूम है कि गड़बड़ करते ही हमें तगड़ा दंड देना होगा। वहां पर सुरक्षाकर्मी आपके साथ किसी तरह की रियायत नहीं करेंगे। वहां किसी नेता या अफसर की पैरवी भी नहीं चलेगी। इसलिए दिल्ली मेट्रो रेल में लाखों लोग पूरे अनुशासन के साथ सफर करते हैं। पर मेट्रो स्टेशनों से बाहर आते ही हम तुरंत फिर से हम पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं।

कतार तोड़ने वाले नोटबंदी के दौरान भी सुधरे नहीं थे। वे भ्रष्ट बैंक कर्मियों को घूस आदि देकर अपना काम निकलवा ही ले रहे थे। इन्होंने भ्रष्टाचार पर हल्ला बोलने के एक बड़े अवसर को गंवा दिया। जब अधिकतर लोग अपने पुराने करेंसी नोट बदलवाने के लिए बैंकों की शाखाओं के बाहर खड़े होते थे कतार में, तब ये लोग अपना जुगाड़ बैठा कर अपना काला धंधा रहे होते थे। कई बैंक अफसर तो रात के अँधेरे मने कमीशन खाकर कालाबाजारियों के घर नए नोट पहुँचाते पकड़े भी गए। इन्हें तो लाइन में मानों किसी भी स्थिति में खड़ा नहीं होना था। कतार को तोड़कर आगे बढ़ने में नेता भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। आपको स्मरण होगा जब 2014 के आम चुनावों के दौरान केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता चिरंजीवी को हैदराबाद के एक मतदान केंद्र पर उस वक्त शर्मनाक स्थिति का सामना कर पड़ गया, जब कुछ मतदाताओं ने उनके कतार तोड़कर अंदर जाने पर विरोध जताया था।

दरअसल लाइन में लगे लोगों ने चिरंजीवी और उनके परिवार के अन्य सदस्यों को उस समय रोका, जब वे कतार तोड़कर मतदान केंद्र के भीतर जा रहे थे।

दरअसल कभी-कभी ये भी लगता है कि कतार का सम्मान करना हमें परिवारों- स्कूलों में नहीं सिखाया जाता है। इसलिए हम मौका मिलते ही लाइन तोड़ते रहते है। ये हमें अति सामान्य लगता है। हम शादियों में भोजन लेने के लिए भी अधीर हो जाते हैं। हमें भय सताने लगता है कि हमें शायद भोजन ही नहीं मिलेगा। हमारा सारा भोजन कोई और सफाचट कर लेगा। इसलिए हम अधिकारपूर्ण भाव से लाइन तोड़ते ही चले जाते हैं। ये सब करते हुए हमें शर्म तक नहीं आती। हम अपराधबोध से ग्रस्त तक नहीं होते। हम दूसरे इंसान के लाइन तोड़ने का कभी-कभी विरोध करते हैं,पर गाहे-बगाहे खुद भी उसके रास्ते पर कहीं न कहीं चल रहे होते हैं। अभी हाल ही में देश के एक प्रतिष्ठित मुस्लिम नेता के पुत्र की दावते वलीमा में शिरकत करने का सुअवसर मिला। वहां पर सुस्वादु व्यजनों की कोई कमी नहीं थी। सब कुछ पर्याप्त मात्रा में भी था। पर लाइन में खड़े होकर भोजन लेने से सबको परहेज था। इसलिए सारी व्यवस्था चरमरा गई। पंडाल के भीतर घोर अवस्था की स्थिति बनी रही। इसी तरह के मंजर शादी-ब्याह के अवसरों पर बार-बार तो देखने में मिलते रहते हैं। ये सब कुछ आखिर क्या प्रदर्शित करता है? ये ही ना कि हमें अभी सभ्यता के कुछ जरूरी अध्याय पढ़ लेने जरूरी हैं। उनको पढ़ने के कारण ही शायद हम इंसान नहीं बन पा रहे हैं।

आपने एक बात और भी नोटिस की ही होगी कि कतार को भंग करने की जब कोई व्यक्ति कोशिश कर रहा होता है,तब कुछ लोग उसका कड़ा विरोध करते हैं। पर प्राय: वे भी किसी दूसरी जगह जाकर कतार को तोड़ने का मौका छोड़ते नहीं हैं। मतलब लाइन तोड़ने के खेल में हम मौके मुताबिक दोहरे मापदंड अपनाते रहते हैं। पर हम अपने देश में भले ही लाइन की मर्यादा को भूल जाते हों, पर जैसे ही अपने देश से बाहर निकलते है तब हम लाइन के महत्व को समझ लेते हैं। हमें कतार में खड़ा होने के लाभ समझ में आने लगते हैं। आप लंदन,दुबईअबू धाबी या किसी भी उस देश या शहर में चले जाइये जहां पर भारतीयों की संख्या बहुत बड़ी है। आप देखेंगे कि सब जगहों पर भारतीय अनुशासन और नियमों का बखूबी पालन कर रहे हैं। वहां हमें लाइन तोड़ना याद तक नहीं रहता। तो क्या यह माना जाए कि हम सख्ती के बाद ही सुधरते हैं। जहां पर लगाम ढीली छोड़ दी जाती है, वहां पर हमारा असली चेहरा सबके सामने आ ही जाता है। आखिरकार, हम कब सुधरेंगे या सुधरेंगे भी नहीं ?     

आर.के.सिन्हा

(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)

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