यूं तो हमारा देश पुरातन काल से ही ॠषियों, मुनियों, मनीषियों, समाज सुधारकों व महापुरुषों का जनक रहा है जिन्होंने न सिर्फ भारत बल्कि पूरे विश्व का मार्गदर्शन कर जगत कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। किंतु आधुनिक युग की बदलती हुई परिस्थितियों में ऐसे महापुरुष बिरले ही हैं। ग्यारह अक्टूबर, 1916 को महाराष्ट्र के परभणी जिले के एक छोटे से ग्राम कडोली में जन्मे चंडिका दास अमृतराव देशमुख ने अपने बाल्यावस्था में शायद ही ऐसी कल्पना की होगी कि वह अपने जीवन काल में किये गये सेवा, संस्कार व शिक्षा के प्रसार के माध्यम से 50,000से अधिक विद्यालयों की स्थापना, 500 से अधिक ग्रामों का विकास, भारतीय जनसंघ, जनता पार्टी, दीनदयाल शोध संस्थान, राष्ट्र, धर्म, पांचजन्य व‘दैनिक स्वदेश’ का संपादन/प्रबंधन के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम पूरे विश्व में फैलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा पायेगा। भारत सरकार उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित कर राज्यसभा के लिए स्वतः मनोनीत करेगी यह तो सोचा ही कैसे जा सकता था।
अपने 94 वर्षों की लंबी निष्काम सेवा ने उनका असली नाम चंडिका दास अमृतराव देशमुख से नानाजी देशमुख रख दिया। निर्धनता के कारण सब्जी बेच किताबें जुटाकर पढ़ने वाले नानाजी देशमुख लोकमान्य तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हैडगेवार की राष्ट्र निष्ठा ने उन्हें संघ से जोड़ा। 1940 में उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया तथा आगरा से संघ प्रचारक के रूप में अपना समाज जीवन आरंभ किया। विषम आर्थिक परिस्थितियों व राजनैतिक विरोधों के बावजूद उन्होंने मात्र 3 वर्षों में गोरखपुर के आसपास 250 से अधिक संघ शाखाएं प्रारम्भ करवायीं। शिक्षा की दुर्दशा को देखते हुए 1950 में गोरखपुर में ही उन्होंने पहला सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय खुलवाया। संस्कारवान व राष्ट्रनिष्ठ नागरिक बनाने वाले ऐसे 50000 से अधिक विद्यालय आज देश के कोने- कोने में चल रहे हैं। ‘राष्ट्रधर्म’, ‘पांचजन्य’ व ‘दैनिक स्वदेश’ जैसे विख्यात प्रकाशन नानाजी के मार्गदर्शन की ही देन हैं।
1951 में जनसंघ की स्थापना के बाद नानाजी को उत्तर प्रदेश का प्रदेश संगठन मंत्री बनाया गया जिन्होंने 1957 तक प्रदेश के सभी जिलों में जनसंघ का अलख जगाया। उत्तर प्रदेश की 412 सदस्यों वाली विधानसभा में जनसंघ के 99 विधायक चुनवाकर काँग्रेस की चूलें हिला दीं थी। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान के पश्चात् पंडित दीन दयाल उपाध्याय को जनसंघ का अखिल भारतीय महामंत्री तथा नानाजी को अखिल भारतीय संगठन मंत्री बनाया गया। जहां एक ओर श्री विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया तो वहीं दूसरी ओर श्री जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के दौरान पटना में अपने ऊपर लाठियां खाकर श्री जयप्रकाश नारायण को बचाया। आपातकाल में जयप्रकाश नारायण की गिरफ्तारी के उपरांत वे प्रथम सत्याग्रही बने और देश भर के कार्यकर्ताओं का नेतृत्व करते रहे। 1977 में आपात काल समाप्ति पर देशभर की सरकारों में जनसंघ सहयोगी रहा तथा नानाजी को केंद्र में उद्योग मंत्री का प्रस्ताव भेजा जिसे नानाजी ने सविनय ठुकरा दिया। 60 वर्ष की आयु में राजनीति छोड़ उत्तर प्रदेश के गोण्डा जनपद में ग्राम विकास में जुटकर वे महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के दर्शन को अमली जामा पहनाने वाले महामनीषी बने। प्रचार से दूर रहने वाले निष्काम कर्मयोगी द्वारा केवल गांवों की दशा सुधार का उन्हें अपने बलबूते पर खड़कर आत्मनिर्भर बनाने के लिए जो कार्यक्रम प्रारंभ किये गये उन्होंने भारतीय जनमानस पर अमिट छाप छोड़ दी। 2005 में प्रारंभ किये गये चित्रकूट ग्रामोदय प्रकल्प ने चित्रकूट के आसपास 500 से अधिक ग्रामों को स्वाबलंबी बना दिया तथा देश को पहला ग्रामोदय विश्वविद्यालय प्रदान किया। वे ग्राम विकास के सच्चे पुरोधा थे। सफल ग्रामोत्थान के इन्ही प्रयोगों के लिए उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से विभूषित कर राज्यसभा के लिए भी मनोनीत किया गया था। दीनदयाल शोध संस्थान नानाजी की कल्पना का ही एक साकार रूप है।
लगभग एक शतक लंबी राष्ट्र को समर्पित आयु के अंतिम पड़ाव से पूर्व ही उन्होंने तय कर लिया था कि जब तक जीवित हैं तब तक स्वयं तथा मृत्यु के बाद उनकी देह राष्ट्र के काम आये। दिल्ली की दधीचि देहदान समिति को अपने देहदान संबंधी शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए नाना जी ने कहा था कि मैंने जीवन भर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में होने वाली दैनिक प्रार्थना में बोला है -‘पतत्वेष कायो, नमस्ते-नमस्ते’ अर्थात् हे भारत माता मैं अपनी यह काया हंसते हंसते तेरे ऊपर अर्पण कर दूं। अतः मृत्योपरांत उन्होंने न सिर्फ अपना देह दान कर चिकित्सा-शास्त्र पढ़ने वाले युवकों के अध्यापन हेतु अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को समर्पित करने का संकल्प किया बल्कि दस हजार रुपये की अग्रिम राशि भी समिति को दी जिससे देश के किसी भी भाग से उनका शांत शरीर इस कार्य हेतु उचित स्थान पर लाया जा सके।
ऐसे त्यागी राष्ट्र-धर्म को समर्पित महात्मा को भारत रत्न दिया जाना उनके अनुकरणीय व्यक्तित्व व कृतित्व से अधिक राष्ट्र का सम्मान है।
ऐसे राष्ट्र पुरुष व महामनीषी को हम सब का शत् शत् नमन् !
– विनोद बंसल
(लेखक विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)