एक जमाने में बिहार में एक लोकप्रिय नारा था “जेल का फाटक टूटेगा–जार्ज फर्नांडीज छूटेगा।” ये उन दिनों की बातें हैं जब देश में इमरजेंसी लगी थी। जार्ज फर्नांडिस पर झूठा राजद्रोह का मुकदमा लगाकर इंदिरा सरकार ने उन्हें और उनके सहयोगी लाडली मोहन निगम को जेल में ठूंस दकय था। जार्ज भले ही दक्षिण भारत से आते थे, पर बिहार उन्हें अपना मानता था और वे बिहार को अपना मानते थे । बिहार ने उन्हें तहेदिल से आदर भी दिया। उन्होंने भी बिहार को पूरी तरह अपना लिया था। वे भोजपुरी भाषा और मैथली भाषा भी मजेकी बोल लिया करते थे। जॉर्ज साहब कई वर्षों से बीमार थे,उनकी स्मरण शक्ति भी जा चुकी थी।पर उनका अपने बीच होना एक सुखद अहसास अवश्य कराता रहता था कि अभी एक दिग्गज राष्ट्र भक्त नेता की छत्रछाया हमारे ऊपर है। उनका व्यक्तित्व सम्मोहित करने वाला था। बिखरे बाल, बिना प्रेस कियाहुआ खादी का कुर्ता-पायजामा, मामूली सी चप्पल पहनने वाले जार्ज साहब जैसा मजदूर नेता, प्रखर वक्ता, उसूलों की राजनीति करने वाले इंसान अब फिर से देश शायद ही देखेगा। वे चिर बागी थे। वे भाषाविद् भी थे। वे किसी भी गोरे से बेहतर ही अंग्रेजी भी बोल सकते थे। वो हिंदी तमिल , मराठी , कन्नड़ ,उर्दू आदि भाषाओं के अच्छे जानकार तो थे ही । वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री, संचार मंत्री, उद्योग मंत्रीऔर रेल मंत्री रहे। लेकिन, उनका कभी भी कोई अपना चुनावी इलाका कभी नहीं रहा। उनकी कोई चुनावी जातीय समीकरण भी नहीं था । उनका कोई संगठित काडर भी नहीं था, फिर भी वह अंतरराष्ट्रीय हैसियत के नेता थे।
एक दौर मेंजार्जफर्नाडीजदेश के सबसे दिग्गज विपक्षी नेता थे। बड़े ट्रेड यूनियन नेता के रूप में भी उन्होंने देश भर में नाम कमाया। जब मुंबई को देश बंबई के रूप में जानता था, तब वे वहां के बेहद सम्मानित रेलवे मजदूर नेता थे। उनकी एक आवाज पर रेल मजदूरकिसी भी तरह के आंदोलन करने के लिए तैयार हो जाते थे।फिर बाद में भी मोराजी देसाई से लेकरवाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रहे।
जार्ज साहब जब संसद में बोलते थे तो सारा सदन उन्हें ध्यानपूर्वक चुपचाप सुनता था। वे पूरी तैयारी करके संसद में बोला करते थे। वे कभी हल्की बात नहीं करते थे। गरिमा का पर्याय थे जार्ज साहब। इसी तरह से वे चाहें बिहार के किसी छोटे से गांव में बोलें या फिर मुंबई के रेल मजदूरों के बीच में,वे श्रोताओं के बिच छा जाते थे।बिहार के लोग मीलों का सफरतय करके उन्हें सुनने के लिए सभा स्थल पर पहुँच जाते थे।
जार्ज साहब 1998 से 2004 तक अटल जी की सरकार में रक्षा मंत्री थे। वे जब देश के रक्षा मंत्री थे तब अटल इरादे के धनी अटल बिहारी बाजपेयी ने 11 मई 1998 को राजस्थान (जैसलमेर) केपोखरणमें परमाणु विस्फोट किया था। याद कीजिए उस लम्हें की फोटो को जिसमें देश के प्रख्यात वैज्ञानिक भारत रत्न डा० अब्दुल कलाम,जो आगे चलकर देश के राष्ट्रपति बने, अटल जी और जार्ज साहब विजयी मुद्रा में खड़े हैं। कहते हैं कि जार्ज साहब ने अटल जी के परमाणु परीक्षण करने के फैसले का पूरी तरह से समर्थन किया था।वे समता पार्टी बनाने के बाद से ही भाजपा के करीब आने लगे थे। वे शरद यादव, मुलायम सिंह यादव या लालू यादव के साथ काम करने में अपने को असहज महसूस कर पा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि ये सब के सब अब समाजवादी विचारों से दूर हो गए हैं। ये जाति की राजनीति कर रहे हैं। तब उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा में एक उम्मीद दिखाई दी। भाजपा ने भी उनका दिल खोलकर सम्मान भी किया। वे अटल जी की सरकार में अहम मंत्रालयों को देखते रहे। जिस समय इंदिरा गांधी की तानाशाही चरम पर थी, तबजार्ज साहब ने रेलवे की हड़ताल कर सरकार की नाक में दम कर दिया था। इंदिरा जी ने आपात काल लागू कर दिया। जार्ज साहब को गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें भारी-भरकम लोहे की हथकड़ी बेड़ी तक पहनाई गई जैसी किसी दुर्दांत अपराधी को पहनाई जाती है। आपको याद ही होगा कि लोहा पहने हाथ उठाए जार्ज साहब की तस्वीर आपात काल के अत्याचार की पोस्टर तस्वीर भी बनी थी।
जीवन भर ईमानदारी से राजनीति करने वालेजार्ज साहब पर कारगिल के युद्ध के बाद कांग्रेस ने ताबूतचोरी के आरोप लगाए। दरअसल पहले की जंगों में रण भूमि में जवानों की मृत्यु होने पर उन्हें वहीं दफ़ना दिया जाता था। तब सैनिकों के शव घर तक नहीं आते थे केवल उनके कुछ निजी सामान निशानी के तौर पर कपड़े आते थे। जार्ज साहब ने शहीदों के शव उनके परिवार को अंतिम दर्शन और संस्कार के लिए मिले, इसके लिए ताबूत खरीदे जिसके बाद ही यह संभव हो पाया। लेकिन, कांग्रेस साथ साल में सैनिकों के परिवारों के इस अरमान को पूरा तो नहीं कर पाई, बात का बतंगड़ जरूर बनाया।
परन्तु, उनका व देश का दुर्भाग्य देखिए उस संत व्यक्ति पर भी कांग्रेस ने ताबूत घोटाले के आरोप लगाये जैसे वह आजकल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर राफेल सौदे में भ्रष्टाचार का आरोप लगा रही है। तब जार्ज साहब की देखरेख में सेना ने जहाँ जहाँ से सम्भव था ताबूत ख़रीद कर एक एक जवान के शव को ससम्मान उनके परिवारा जनों तक पहुँचाया। यह करने से हर सवाल पर सैनिकों के शवों का भव्य स्वागत हुआ था और देश का कोना-कोना राष्ट्रभक्त की भावना से भर उठा था। यह सब करने का नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस ने उन पर ताबूत खरीद में पैसा खाने के आरोप लगाए। जार्ज साहब जिनके ऊपर कभी किसी ने ऊँगली तक नही उठाई थी, उन्हेंबुढ़ापे में घोटाले का आरोप झेलना पड़ा। पर कोर्ट ने जार्ज साहब को तमाम आरोपों से बरी तो कर दिया लेकिन, जार्ज साहब इस अपमान और आघात को बर्दास्त नहीं कर पाए और मृत्यु शैया पर चले गए।
भारत की राजनीति पर आधी सदी तक छाए रहने वाले जार्ज साहब पिछले काफी समय से शांत थे। वे बीमार थे। वे साउथ दिल्ली में अपनी पत्नी लैला के साथ रहते थे। उनके घर में उनका हाल-चाल पूछने वाला भी कोई नहीं आता था। कभी उनके साथी रहे जनता दल, सपा या राजद कोई नेता उनका हाल-चाल जानने का वक्त नहीं निकालता था। उनके पिछले जन्म दिन पर लाल कृष्ण आडवाणी उनसे जरूर मिलने गए थे। दोनों पुराने साथी थे।
कौन भूल सकता है उनके राजधानी के कृष्ण मेनन मार्ग स्थित आवास को। वहां पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं से लेकर दूसरे तमाम जनवादी आंदोलनों से जुड़े लोगों का जमघट लगा रहता था। उनके आवास के एक हिस्से में बर्मा के युवा आंदोलनकारी भी रहते थे। वे अपने देश की सैनिक सरकार के खिलाफ भारत से विरोध में आंदोलन चला रहे थे।
जार्जसाहब ने उन्हें अपने घर में काम करने की इजाजत दे रखी थी। उनके घर के बाहर कोई सुरक्षा गार्ड खड़ा नहीं होता था। वे मूलत: और अंतत: तो एक जन नेता और एक आंदोलनकारी ही थे।
आर.के.सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)