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कितने दागदार हैं आलोक वर्मा

ये पहली बार सुना कि एक सरकारी अफसर ने दिली चाहत ज़ाहिर की है कि उसे उसके मन का ही विभाग मिले। अगर नहीं मिलेगा तो वह उसे संभालेगा ही नहीं। वह सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे देगा। यही तो किया पिछले ह ते देश की सर्वोच्च संस्था सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा ने। उनकी सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के निदेशक पद पर बहाली कर दी थी। उसके बाद उन्हें सरकार की उच्चस्तरीय समिति ने एक नई जि मेदारी दे दी। पर उनके दुस्साहस को तो देखिए कि उन्होंने उस नए पद को लेने से ही मना कर दिया। क्या कोई अर्ध-सैनिक वर्दीधारी पदाधिकारी इस तरह का आचरण कर सकता है?

जब मोदी सरकार ने आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक बनाया था, तब तो उन्होंने इस पद को खुशी-खुशी हथिया लिया था। जबकि उन्हें इस विभाग में पहले काम करने का रत्तीभर भी अनुभव नहीं था। कहते हैं कि तब सीबीआई निदेशक के नाम पर विचार के लिए बुलाई उच्चस्तरीय समिति बैठक में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने आलोक वर्मा के नाम पर आपत्ति भी जताई थी। पर सेलेक्शन पैनल ने बहुमत के आधार पर उनकी नियुक्ति कर दी थी। उस पैनेल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सुप्रीम कोर्ट के मु य न्यायाधीश भी थे। खडग़े अब वर्मा के हटाए जाने का विरोध कर रहे थे। यानी वे आजकल हर जगह विरोध करते ही दिखते हैं। अब प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली तीन सदस्यीय सेलेक्शन कमेटी ने काफी सोच विचार कर आलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक पद से हटाने का फैसला किया। प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठजज ए.के. सीकरी ने आलोक वर्मा को हटाने के हक में वोट दिया। वहीं मल्लिकार्जुन खडग़े ने उनके फैसले का विरोध किया।

पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने अपनी फेसबुक पर पोस्ट लिखा है- ‘मैं  सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एके सीकरी को तब से जानता हूं जब वे दिल्ली हार्ई कोर्ट में जज थे। मैं तब मु य न्यायाधीश था। आलोक वर्मा को सीबीआई के चीफ पद से हटाए जाने पर मैंने जस्टिस सीकरी से बात की। जस्टिस सीकरी ने बताया कि सीवीसी के सामने जो सबूत आए थे उसके आधार पर कहा जा सकता है कि आलोक वर्मा पर पहली नजर में ही भ्रष्टाचार का केस बनता है। सीकरी का मानना था कि जब तक उनका दोष साबित नहीं हो जाता या वो निर्दोष करार नहीं दे दिए जाते तब तक उन्हें इस पद पर नहीं होना चाहिए।’ तो प्रधानमंत्री मोदी और जस्टिस एके सीकरी सीवीसी की सिफारिश के अनुसार आलोक वर्मा को हटाने के हक में ही फैसला किया। जबकि मल्लिकार्जुन खडग़े ने इसका विरोध किया। कहना ना होगा कि सीकरी की राय के बाद तो अब वर्मा साहब को डूब के मर जाना चाहिए।

दरअसल सीबीआई के निदेशक  बनने के बाद से ही आलोक वर्मा पर करप्शन के गंभीर आरोप लगने लगे थे। आलोक वर्मा पर पहला आरोप लगा कि उन्होंने मीट कारोबारी मोईन कुरैशी से रिश्वत ली। इसी तरह उन पर सोना तस्कर की मदद, पशु तस्करों से संबंध, दागी अधिकारियों की नियुक्ति, ईडी के मामले में दखल के आरोप लगते रहे।

आलोक वर्मा को दूध का धुला कहने वाले वे ही लोग हैं, जिन्हें मोदी सरकार के केन्द्र में होने पर तकलीफ रही है। ये बिना किसी प्रमाण के मोदी सरकार पर ऱाफेल मामले में घूस लेने के आरोप लगाते रहते हैं। ये ही हर हाल में आलोक वर्मा को साधु साबित करने की हड़बड़ी में हैं! सच यही है कि वर्मा के ‘सत्कर्मों’ का इन्हें अभी अंदाजा तक नहीं है। वो पता चल गया तो इनके पैरों तले जमीन खिसक जाएगी। आप लोगों का राफेल जांच वाला जुमला सुनकर तो हंसी रोकना असंभव हो जाता है कि आलोक वर्मा इस मामले की जांच करके सरकार में बैठे लोगों को फंसा देते। कौन विश्वास करेगा कि सरकार की मर्जी के खिलाफ सीबीआई डायरेक्टर रक्षा मंत्रालय, पीएमओ से लेकर फ्रांस की दसाल्ट और अन्य कंपनियों की जांच भी कर लेता और अपने दो-तीन महीने भरके बचे कार्यकाल में जांच को किसी परिणति तक भी पहुंचा देता।

यहजानना भी जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को कभी कोई क्लीन चिट नहीं दी थी। उसमें वर्मा पर लगे आरोपों की मेरिट पर कुछ कहा तक नहीं गया है। वर्मा की बहाली इसलिए हुई, क्योंकि तकनीकी रूप से उन्हें छुट्टी पर भेजने का आदेश न्यायालय ने गलत पाया। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को बहाल इसलिए किया, क्योंकि कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि प्रधानमंत्री, मु य न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष की हाई पावर कमेटी जो सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति करती है, उसे ही डायरेक्टर के ट्रांसफर या उसे छुट्टी पर भेजने का अधिकार है, सरकार या सीवीसी को नहीं।

एक और झूठ जो बहुत सारे लोग पूरी निर्लज्जता से बोल रहे हैं वह यह है कि वर्मा को मोदी सरकार ने हटा दिया। सरकार अपनी मर्जी से सीबीआई डायरेक्टर को न तो नियुक्त कर सकती है न ही हटा सकती है। क्योंकि, यह काम जो कमेटी करती है उसमें प्रधानमंत्री के अलावा नेता प्रतिपक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के मु य न्यायाधीश के रूप में दो अन्य अति महत्वपूर्ण और प्रभावी लोग होते हैं। प्रधानमंत्री तो उस समिति में तीन में एकमात्र सरकार का प्रतिनिधित्व करता है। एक तो साफ तौर पर सरकार का विरोधी ही होता है और दूसरा देश में न्यायव्यवस्था का सबसे बड़ा संरक्षक होता है। ये दोनों एक मत के हो जाएं तो प्रधानमंत्री कुछ नहीं कर सकता। इस मामले में भी मल्लिकार्जुन खडग़े ने तो वर्मा को हटाने का विरोध ही किया था, लेकिन प्रधानमंत्री और मु य न्यायाधीश के प्रतिनिधि वर्मा को हटाने पर एकमत थे।

एक और हास्यास्पद तर्क आलोक वर्मा के हक में यह भी दिया जा रहा है कि उन्हें अन्य विभागों का प्रभार क्यों दिया गया था। यह बातें करने वाले जऱा यह भी जान लें कि वर्मा के खिलाफ जांच सी. वी. सी. की अभी पूरी नहीं हुई है। हां, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर जस्टिस पटनायक की निगरानी में सीवीसी ने कोर्ट द्वारा निर्धारित दो ह ते के समय में जांच करके जो प्राथमिक रिपोर्ट सौंपी, उसमें कई आरोपों को प्रथमदृष्ट्या सही पाते हुए ही आगे विस्तृत जांच की आवश्यकता बतायी गयी। बड़ी सामान्य सी बात है कि जिस पद पर रहते हुए आपके द्वारा किये गये संदिग्ध आचरण की जांच की जा रही है, जांच के दौरान आप उसी पद पर बने नहीं रह सकते।

नरेंद्र मोदी ने सन 2014 में प्रधानमंत्री पद को संभालते ही सरकारी बाबुओं  को चेतावनी दी थी कि ‘न मैं खाऊंगा और न ही किसी को खाने दूंगा’ और ‘न चैन से बैठूंगा, न चैन से बैठने दूंगा।’ यह तो उन्होंने स्वयं तो मनसा-वाचा-कर्मा सिद्ध कर दिया है। आलोक वर्मा जैसे कुछ बाबू अब भी समझ नहीं पाए हैं कि उन्हें जन प्रतिनतिधियों के आदेशों-निर्देशों को मानना ही होगा। ये अब भी करप्शन में लिप्त हैं। ये घनघोर सुविधाभोगी हैं। इन्हें सिर्फ अपना पेट भरना होता है।

कहते हैं कि अंग्रेज चले गये पर अपनी औलाद इन बाबुओं की नस्ल में छोड़ गये। सच पूछिए तो 1947 में भारत में आजादी के साथ सत्ता परिवर्तन तो हो गया, किन्तु व्यवस्था परिवर्तन तो हुआ ही नहीं। अंग्रेजों ने नौकरशाहों को देश की आम जनता को प्रताडि़त करने और राजस्व के नाम पर लूट/ खसोट करने के लिए ही ट्रेंनिंग देकर तैयार किया था। उस समय जिलाधिकारी को ‘कलेक्टर’ यानी ‘वसूली करनेवाला’ कहा जाता था। आजादी के बाद परिवर्तन मात्र इतना ही हुआ है कि अब उन्हें ‘कलेक्टर एण्ड डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट’ कहा जाने लगा। प्रधानमंत्री स्वयं को देश का ‘प्रधान सेवक’ कहते हैं, लेकिन, जि़लाधिकारी अभी भी ‘जिले के प्रथम सेवक’ बनने की बजाय “कलेक्टर” वाली ही मानसिकता लेकर बैठे हुए हैं।

बहरहाल, आलोक वर्मा प्रकरण उनके जैसे बाबुओं के लिए एक कड़ा संदेश तो दे ही गया है।

(लेखक राज्य सभा सांसद हैं)

 

पूर्व सीबीआई चीफ आलोक वर्मा ने नीरव मोदी और माल्या को भगाने में की थी मदद?

हाल ही में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) निदेशक पद से हटाए जाने के बाद नौकरी से इस्तीफा देने वाले आलोक वर्मा की मुश्किल और बढ़ गई है। आलोक वर्मा के खिलाफ सीवीसी ने छह और आरोपों की जांच शुरू कर दी है। केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने आलोक वर्मा के खिलाफ नीरव मोदी और माल्या को विदेश भागने में मदद करने का आरोप लगाया है। इसके साथ ही सीवीसी ने एयरसेल के पूर्व प्रमोटर सी शिवशंकरन के खिलाफ लुक आउट सर्कुलर के आंतरिक ईमेल लीक करने का भी आरोप लगाया है। इन सभी आरोपों की जांच भी शुरू कर दी गई है। सीवीसी ने आलोक वर्मा के खिलाफ लगाए छह आरोपों के बारे में सरकार को सूचित कर दिया है।

मालूम हो कि सीबीआई में उठे आंतरिक कलह के दौरान सीबीआई के संयुक्त निदेशक राकेश अस्थाना द्वारा वर्मा पर लगाए गए 10 आरोपों से ये आरोप अलग हैं। सीवीसी के एक सूत्र से मिली जानकारी के मुताबिक सीवीसी ने 26 दिसंबर को पत्र लिखकर इन मामलों से संबंधित फाइले और दस्तावेज उपलब्ध कराने को कहा था। लेकिन सीबीआई ने जनवरी में ये फाइलें और दस्तावेज उपलब्ध कराए। जिससे साफ होता है कि माल्या और नीरव मोदी को भगाने में आलोक वर्मा ने मदद पहुंचाई थी। यहां बता दें कि माल्या और नीरव मोदी दोनों अभी देश से फरार हैं। माल्या को यूके सरकार प्रत्यर्पण का आदेश दे चुका है।

सीवीसी ने वर्मा पर आरोप लगाया है कि जब नीरव मोदी मामले में सीबीआई के कुछ आंतरिक ईमेल लीक हो गए थे तब उसे ढूंढने की बजाए आलोक वर्मा ने इस मामले को छिपाने की कोशिश की थी। जबकि उस समय पीएनबी घोटाले की जांच अपने चरम पर थी। उस फाइल से यह भी पता चला है कि सीबीआई ने उस समय नीरव मोदी मामले की जांच कर रहे संयुक्त निदेशक राजीव सिंह के कमरे को बंद कर उनका डेटा प्राप्त करने का प्रयास किया था। ऐसा क्यों किया गया इसके बारे में कभी किसी को कोई जानकारी नहीं दी गई।

दूसरा आरोप वर्मा पर एयरसेल के पूर्व मालिक सी शिवशंकरन के खिलाफ जारी लुकआउट सर्कुलर को कमजोर करने का लगाया गया है। इसी कारण 600 करोड़ रुपये के आईडीबीआई बैंक ऋण धोखाधड़ी के प्रमुख आरोपी शिवशंकरण को देश छोडऩे की अनुमति मिली थी। कहा गया है कि सीबीआई की आंतरिक प्रक्रिया का उल्लंघन कर संयुक्त निदेशक स्तर के एक अधिकारी ने शिवशंकरन से फाइव स्टार होटल तथा द तर में भेंट की थी।

इतना ही नहीं आलोक वर्मा पर शराब व्यापारी विजय माल्या के खिलाफ जारी लुकआउट सर्कुलर को भी कमजोर करने का आरोप लगाया गया है। मालूम हो कि माल्या 900 करोड़ रुपये के आईडीबीआई बैंक धोखाधड़ी मामले में भगोड़ा है। इसी मामले में हाल ही के यूके कोर्ट ने उसका भारत प्रत्यर्पण का आदेश दिया है।

इतना ही नहीं सीबीआई की लखनऊ बेंच के एक अतिरिक्त एसपी सुधांशु खरे ने भी आलोक वर्मा की ईमानदारी पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया है कि उन्होंने ही यूपी पुलिस के कुछ अधिकारियों को बचाने के लिए अतिरिक्त एसपी राजेश साहनी की आत्महत्या मामले की जांच करने से इंकार कर दिया था। जबकि योगी सरकार ने सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी थी। मु यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सिफारिश के बावजूद वर्मा ने उस मामले में सीबीआई जांच नहीं होने दी।

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