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उत्तर प्रदेश में गठबंधन चूक या चौका

उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का औपचारिक गठबंधन होने पर भाजपा के माथे पर बल पड़ गये। एक दशक पूर्व ये दोनों क्षेत्रीय दल उत्तर प्रदेश की राजनीति में नंबर एक और दो की हैसियत रखते थे। 2014 में भाजपा का ग्राफ बढऩे एवं 2017 की प्रचंड जीत के बाद भाजपा एक नंबर का दल हो गयी। अब अपनी राजनैतिक हैसियत बचाने के लिए सपा-बसपा का एक साथ आना एक बड़ा राजनैतिक दांव है। कांग्रेस को इस गठबंधन में शामिल न करके जब इन दलों ने तीसरे मोर्चे की तैयारी तेज़ की ही थी कि तभी कांग्रेस ने प्रियंका वाड्रा को महासचिव का पद देकर पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना दिया और इस तरह सपा-बसपा का चौका दिखता गठबंधन अब कहीं चूक न बन जाये।

अमित त्यागी

त्तर प्रदेश में पूरे भारत की आत्मा निवास करती है। देश को उत्तर प्रदेश 80 लोकसभा की सीटें देता है। 2014 में भाजपा को 73 सीटों पर प्रचंड जीत मिली थी। सपा को 05, कांग्रेस को 02 और बसपा को शून्य सीट मिली थीं। मायावती के लिए यह राजनैतिक अंत की स्थिति थी। इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनावों में सपा और कांग्रेस ने गठबंधन किया। बसपा ने अकेले दम पर चुनाव लड़ा। यहां भी भाजपा ने प्रचंड जीत हासिल की। सपा-कांग्रेस का गठबंधन फेल हो गया। मायावती को भी मुंह की खानी पड़ी। इसके बाद मायावती को छोड़कर जाने वालों का तांता लग गया। उनके कुछ सिपहसालार 2017 के पहले उन्हें छोड़ गए थे तो कुछ ने 2017 के बाद उनका साथ छोड़ दिया। नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य, बृजेश पाठक, जयवीर सिंह, जुगल किशोर, आर.के. चौधरी कुछ ऐसे ही बड़े नाम थे। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी में भी अखिलेश और शिवपाल के बीच झगड़ा चल रहा था। 2017 के चुनाव के कुछ महीने पहले सार्वजनिक हुये चचा-भतीजे के झगड़े ने मीडिया में खूब सुर्खियां पायी थी। लोगों ने इनके झगड़ों में भरपूर आनंद लिया था। अखिलेश यादव को लगता था कि विकास और एक्सप्रेवे के नाम पर वह चुनाव जीत लेंगे। जब समाजवादियों को लग रहा था कि उनके झगड़े के बावजूद जनता उन्हें वोट देगी तब जनता ने उनका गुरूर तोड़ दिया। सपा-कांग्रेस गठबंधन की करारी हार हुयी। इसके बाद अखिलेश यादव और शिवपाल के रास्ते अलग हो गये। समाजवादी पार्टी दो फाड़ हो गयी। इस बीच भाजपा का ग्राफ लगातार बढ़ता चला गया। उत्तर भारत में धाक जमाने के बाद भाजपा पूर्वोत्तर एवं दक्षिण में भी अपने पैर जमाने लगी। ऐसा लगने लगा कि भाजपा अब अपराजेय हो गयी है। जनता की नब्ज़ भाजपा का आलाकमान पकड़ चुका था। ऐसे में सपा और बसपा के आलाकमान को अपनी बची फौज को बचाने के लिए गठबंधन के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं रह गया था।

बुआ और बबुआ : दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है 

गठबंधन के दल दोनों दलों को मिले मत प्रतिशत के कुल जमा के आधार पर अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे हैं। यदि आंकड़ों की बात करें तो 2014 में भाजपा को 42.63 प्रतिशत वोट मिले थे। सपा और बसपा के अगर मतों को जोड़ दें तो यह आंकड़ा 42.19 प्रतिशत बैठता है। इसमें अगर लोकदल के मत जोड़ दें तो यह भाजपा से आगे निकल जाता है। जीत का यही सूत्र है सपा और बसपा का। अगर 2017 के मत प्रतिशत की बात करें तो मायावती को 22.23 प्रतिशत वोट मिले थे। सपा को 28.32 प्रतिशत मत प्राप्त हुये थे। इन दोनों दलों का मत प्रतिशत मिलकर 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा बैठ रहा है। इस आंकड़े के हिसाब से सपा और बसपा गठबंधन बड़ी बढ़त लेता दिख रहा है। पर पुराने आंकड़े और वर्तमान समय में एक अंतर आ चुका है। सपा से शिवपाल यादव अलग होकर एक पार्टी बना चुके हैं। मायावती के कई सिपहसालार और कद्दावर नेता बाहर जा चुके हैं। 2017 में सपा को मिले मत प्रतिशत में कांग्रेस का भी सहयोग रहा था इसलिए कांग्रेस के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। अब कांग्रेस गठबंधन से बाहर है। कांग्रेस को बाहर रखने के कुछ प्रमुख कारण कुछ यूं हो सकते हैं।

चूंकि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बेहद कमजोर है और सपा के साथ गठबंधन का प्रयोग पूर्व में असफल रह चुका है इसलिए कांग्रेस को गठबंधन में नहीं लिया गया। दूसरा महत्वपूर्ण कारण है कि कांग्रेस का वोट हस्तांतरित नहीं होता है। सपा और कांग्रेस में पुरानी तल्खियों की वजह से मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार में एक भी सपा विधायक को मंत्री पद नहीं दिया गया। हालांकि, क्षेत्रीय दलों को भाजपा के खिलाफ एक मंच पर लाने की शुरुआत कांग्रेस ने ही की थी किन्तु बाद में तीसरे मोर्चे के उभरने के कारण कांग्रेस के नेतृत्व में क्षेत्रीय दल एकजुट नहीं हुये। चौथा प्रमुख कारण मायावती का वह डर है कि कांग्रेस के साथ आने से दलित मतदाता वापस कांग्रेस का रुख कर सकता है। मायावती जाटव मतदाताओं पर तो भरोसा कर सकती हैं किन्तु अन्य जातियों पर वह यह भरोसा नहीं कर सकती कि एक बार उनसे छिटकने के बाद वह उनके पास वापस आएगा भी या नहीं। पांचवा कारण यह लगता है कि कांग्रेस बाहर रहकर गठबंधन को ज़्यादा फायदा दे सकती है। वह भाजपा के मतदाताओं को विभाजित करके उनमें से कुछ मत अपनी तरफ ला सकती है। ऐसा होने की स्थिति में जाने अंजाने गठबंधन को ही फायदा होगा। दलित, पिछड़े और अल्पसं यकों के जोड़ के द्वारा गठबंधन जीत की आस लगाए बैठा है।

चूंकि अब प्रियंका सक्रिय राजनीति में आ चुकी हैं तो इससे गठबंधन कमजोर हो रहा है। प्रियंका का फायदा भाजपा और कांग्रेस दोनों को होता दिखने लगा है। राफेल का मुद्दा उठाने वाले राहुल अब जब जब इस मुद्दे को उठाएंगे तब तब भाजपा के द्वारा रॉबर्ट वाड्रा का नाम आगे कर दिया जाएगा। इस तरह से दोनों मुद्दे एक दूसरे के द्वारा संतुलित कर दिये जाएंगे। कांग्रेस के द्वारा कुछ मुस्लिम वोट भी काटे जाएंगे जिसका फायदा सीधे तौर पर भाजपा को होने जा रहा है। प्रियंका के राजनीति में आने की जितनी खुशी कांग्रेस को है उससे ज़्यादा खुशी भाजपा के खेमे में दिखाई देती है। प्रियंका फैक्टर के बाद अमेठी के विकास और बनारस के विकास पर बात होगी। अमेठी बनाम बनारस की चर्चा शुरू होगी। बनारस में एनआरआई स मेलन में भाजपा ने एक बड़े प्रवासी वर्ग को भी खुद के साथ जोड़ लिया है। कुल मिलाकर गठबंधन के असर को प्रियंका गांधी कम करती दिख रही हैं। गठबंधन के आंकड़े पर निदा फाजली का एक शेर सटीक बैठता है कि ‘दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है। सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला॥’

ब्राह्मण एवं सवर्ण वोट बैंक बनेगा महत्वपूर्ण 

उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोटों की बेहद अहमियत रहती है। पिछले बीस सालों का यह इतिहास रहा है कि जिस दल की तरफ ब्राह्मण वोट बैंक का झुकाव हुआ है उसकी सरकार बनी है। इसकी बानगी इस बात से साबित होती है कि जब जब ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है तब तब उस दल ने सत्ता पर अपने कदम जमाये हैं। उत्तर प्रदेश के कुल वोटर में ब्राह्मणों की 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। उत्तर प्रदेश के मध्य भाग में अवध एवं रूहेलखंड के क्षेत्र एवं पूर्वांचल की सीटों पर ब्राह्मणों का वोट अहम किरदार निभाता रहा है। इन क्षेत्रों में ब्राह्मण निर्णायक राजनैतिक चोट करने में सक्षम हैं। उत्तर प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी ब्राह्मण इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि यह अभी भी अन्य जातियों को प्रभावित करने वाले कारक हैं। इनका सामाजिक प्रभाव है। इनके किसी एक दल में जाने पर कुछ अन्य जातियां भी इनके प्रभाव में आकर वोट देती हैं। इस तरह से यह वोट बैंक सिर्फ 10 प्रतिशत न होकर लगभग 15 प्रतिशत तक का वोट बैंक बन जाता है। ब्राह्मण एक ऐसा वोट बैंक है जो सिर्फ जाति के आधार पर वोट नहीं देता बल्कि समझ के आधार पर वोट देता रहा है। सबसे पहले कांग्रेस का परंपरागत वोटर रहा ब्राह्मण समाज बाद में बसपा एवं सपा के खेमे में जाकर देख चुका है। 2014 और 2017 में यह वोटबैंक भाजपा के साथ गया। इसके साथ एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि किसी ाी दल को ऐसी खुशफ़हमी नहीं पालनी चाहिए कि ब्राह्मण उसका वोट बैंक है। यह वर्ग हमेशा स मान और पहचान को अहमियत देता है। इससे ज़्यादा की अपेक्षा उसे नहीं रहती है। इसलिए ब्राह्मण वर्ग एक निर्णायक ‘शि िटंग वोटबैंक’ की तरह काम करता है। एससीएसटी एक्ट के बाद भाजपा से नाराज़ हुआ ब्राह्मण अब आर्थिक आधार पर मिले आरक्षण के बाद भाजपा से लगभग संतुष्ट है। कांग्रेस के द्वारा ज़्यादा से ज़्यादा सीटों पर ब्राह्मण या सवर्ण उ मीदवार उतारे जाने की उ मीद है ताकि वह भाजपा के कोर वोटबैंक में सेंध लगा सकें। कांग्रेस ने 2017 में शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश की मु यमंत्री के रूप में पेश किया था ताकि वह ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध लगा सके। तब कांग्रेस का ब्राह्मण कार्ड फेल हो गया था। लोकसभा 2019 के कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी एवं प्रियंका वाड्रा को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया है। शीला दीक्षित दिल्ली में कमान संभाल रही हैं। यानि कि सवर्णों के वोटों की तरफ कांग्रेस का पूरा ध्यान है। अब 2019 में सवर्ण वोट क्या कांग्रेस में जाएगा इसके ऊपर उत्तर प्रदेश के परिणाम तय होंगे।

इसके साथ ही शिवपाल यादव की कांग्रेस के साथ जाने की खबरें भी आ रही हैं। शिवपाल और कांग्रेस के साथ आने की स्थिति में यादव में से कुछ हिस्सा शिवपाल के साथ जा सकता है। यानि कि कांग्रेस और शिवपाल दोनों भाजपा और गठबंधन के वोट काटने का काम करने जा रहे हैं। सपा-बसपा के साथ न जाने का फायदा कांग्रेस को यह होगा कि उसका अपना कैडर विकसित होगा। प्रियंका के आने से कांग्रेसी कार्यकर्ता बहुत खुश हैं। सपा बसपा के द्वारा गठबंधन में साथ न लिए जाने की टीस प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने से खत्म हो गयी है। कांग्रेस को गठबंधन में न लेने की एक वजह भी है। दलित और पिछड़ा एक समय कांग्रेस का वोटर था। सपा और बसपा जैसे क्षेत्रीय दलों के उभार के बाद यह वर्ग कांग्रेस से छिटक गया। चूंकि दलित पर बसपा एवं पिछड़ों पर सपा अपना हक़ समझती है इसलिए कांग्रेस को मजबूत करके यह दोनों दल अपना जनाधार नहीं खोना चाहते। इसी डर की वजह से इन्होंने कांग्रेस को बाहर कर दिया।

मोदी के खिलाफ गठबंधन को कांग्रेस नेतृत्व अस्वीकार

विभिन्न प्रदेशों के क्षेत्रीय दल सत्ता तो प्राप्त करना चाहते हैं किन्तु कांग्रेस का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं है। दूसरी तरफ भाजपा लगातार सहयोगी दलों को मनाने में लगी है। बिहार में भाजपा ने जेडीयू को अपने खाते से जीती हुयी पांच सीटें दे दीं। रामविलास पासवान को राज्यसभा भेजने की हामी भर ली। बंगाल में ममता के मंच पर राहुल गांधी नहीं दिखे। कांग्रेस के साथ तो वाम दल भी साथ नहीं आ रहे हैं। केरल अकेला ऐसा प्रदेश है जहां वाम दलों की सरकार है। वहां कांग्रेस से उनका सीधा मुकाबला होता है। कांग्रेस के साथ आने से केरल भी वामपंथियों के हाथ से निकल जाएगा। वाम दल ममता के नेतृत्व वाले तीसरे मोर्चे के साथ भी नहीं जा सकते हैं क्योंकि बंगाल में दोनों आमने सामने रहते हैं। क्षेत्रीय दलों के पास कोई एक राष्ट्रीय सोच और सर्वमान्य नेता न होना भी जनता में उनकी विश्वसनीयता नहीं बना पा रहा है। अब सपा-बसपा का ममता के साथ जाने से मंच तो साझा होता दिख रहा है किन्तु कांग्रेस के बाहर रहने से कोई बड़ी राष्ट्रीय पार्टी इस गठबंधन को बड़ा नुकसान करेगी। लोकसभा चुनावों में मतदाता प्रधानमंत्री पद का चेहरा एवं राष्ट्रीय दृष्टिकोण देखता है। चुनाव के समीकरण को प्रभावित करने वाला लोटिंग वोटर बिना किसी बड़े चेहरे के मोदी को छोड़कर जाने वाला नहीं है। ऐसे में चौका दिखने वाला गठबंधन कहीं एक चूक बनकर न रह जाये।

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 दलों के दलदल एवं कुम्भ का प्रताप

लोकसभा चुनाव के संदर्भ में तीन पांच का खेल तेज़ी के साथ चल रहा है। जो जिसके साथ दिख रहा है वह उसके साथ होने के साथ ही अन्य के साथ भी पींगे बढ़ा रहा है। जो एक दूसरे से दूर दिख रहे हैं वह अंदर ही अंदर करीब आ चुके हैं। एक ओर शिवपाल यादव अपने अपमान का राजनीतिक बदला लेने के लिए अखिलेश यादव के सामने खड़े हैं तो दूसरी तरफ गेस्ट हाउस कांड को भुलाने की बात कहकर मायावती अखिलेश यादव के साथ आ गयी हैं। मायावती ज़ीरो से अपनी सीटें बढ़ाकर केंद्र में सौदेबाजी की प्रक्रिया में आना चाहती हैं। मायावती पर सीबीआई के दबाव के चलते मायावती सपा के साथ रहते हुये भी भाजपा के खेमे से जुड़ी हुयी हैं। चुनाव के बाद सीटें जीतने की स्थिति में मायावती भाजपा के साथ जाकर कोई बड़ा पद पा सकती हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया की शिवराज चौहान से मुलाकात भी बेवजह नहीं है। कमलनाथ की अल्पमत कांग्रेस सरकार स्थायी नहीं दिखती है क्योंकि सिंधिया परिवार में एक बड़ा वर्ग भाजपा से जुड़ा रहा है। ज्योतिरादित्य की दादी विजयराजे सिंधिया एवं वसुंधरा राजे सिंधिया भाजपा की राजनीति में बड़ा प्रभाव रखती हैं। स्थिति को भांपते हुये ज्योतिरादित्य को कांग्रेस ने पश्चिम उत्तर प्रदेश का प्रभार एवं पार्टी महासचिव का पद सौंपकर इधर उलझा दिया है। जहां तक भाजपा की 2019 में दावेदारी का प्रश्न है तो फिक्की, एसोचैम जैसे व्यापारिक संगठन एक ऐसी धारणा बनाए हुये हैं कि 2019 में मोदी की वापसी लगभग तय है। व्यापारिक संगठन चुनाव के पूर्व उस राजनैतिक दल से करीबी दिखाते हैं जिसे वह सत्ता में आता हुआ देखते हैं। भारत में कॉर्पोरेट का सरकार पर एक बड़ा एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव सदा से रहा है। सिर्फ भारत ही नहीं विश्व के अन्य देशों में भी कमोवेश यही स्थिति है। भारत की मीडिया पर अपनी पकड़ रखने वाले अंबानी के आंतरिक सर्वे में भी मोदी को प्रधानमंत्री तय माना जा रहा है। ऐसी सभी स्थिति के बीच चुनावी वर्ष में आने वाला अन्तरिम बजट इस बार पूरे बजट के बराबर धन वाला होगा जिसमें बड़ी घोषणाएं होंगी। उनके लिए धन होगा। कुछ लोलीपोप होंगे तो कुछ वास्तविक योजनाएं भी होंगी।

पर आखिर में सवाल आकर इस बात पर टिकता है कि 2014 की तरह हिन्दू वोट बैंक अगर एकजुट नहीं हुआ तो भाजपा की सारी रणनीति धरी की धरी रह जाएंगी। इसके लिए अर्ध कुम्भ  को पूर्ण कुम्भ  की तरह प्रचारित और प्रसारित करके भाजपा सरकार ने हिन्दू वोट बैंक को एकजुट कर लिया है। संतों को पेंशन की घोषणा से संतों में खुशी हैं। राम मंदिर निर्माण की मांग कर रहे संत पेंशन के बाद सरकार पर नर्म पड़ेंगे। सूत्रों से ऐसी जानकारी भी आ रही है कि चुनाव के पूर्व मोदी का अयोध्या दौरा भी हो सकता है। चूंकि, राम मंदिर निर्माण का कोई रास्ता चुनाव के पहले न्यायालय द्वारा आता नहीं दिख रहा है इसलिए मोदी का अयोध्या दौरा ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। संघ के द्वारा भी राम मंदिर निर्माण के लिए मोदी से मांग लगातार की जा रही है। जिस तरह से संत एवं राष्ट्रवादी नेता अयोध्या विषय को उबाले हुये हैं उसके हिसाब से तो यह सबकी मिलीभगत लगती है। 370 और कश्मीर विषय पर कुछ बड़ा उल्लेखनीय न होने से भाजपा के लिए 2019 आसान नहीं है। गठबंधन के द्वारा भी भाजपा को बड़ा नुकसान संभव है। 2014 की तरह बदलाव की बयार इस बार नहीं है। 2014 में जनता विकल्प तलाश रही थी किन्तु 2019 में वह कार्यों का मूल्यांकन करेगी। जातिगत राजनीति भी अब सतह पर आ चुकी है। इस तरह भाजपा की आस अब कुम्भ  के द्वारा होने वाले हिन्दुत्व कार्ड पर आकर टिक  गयी दिखती है।

-अमित त्यागी (लेखक स्तंभकार हैं)

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रिवर फ्रंट और खनन घोटाला : घिरते अखिलेश यादव 

गोमती रिवर फ्रंट योजना अखिलेश यादव की ड्रीम प्रोजेक्ट योजना थी। समाजवादी पार्टी के शासनकाल में लखनऊ में गोमती नदी के तट पर बने रिवर फ्रंट के निर्माण में भारी वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोप लगे थे। रिवरफ्रंट के निर्माण के लिए 747.49 करोड़ का बजट था। बाद में मु य सचिव की बैठक में निर्माण कार्य के लिए 1990.24 करोड़ रुपये का प्रस्ताव दिया गया था। जुलाई, 2016 में 1513.51 करोड़ रुपये मंजूर हुए थे। निर्माणकार्य में स्वीकृत राशि से 1437.83 करोड़ रुपये ही खर्च हुए थे, लेकिन उसमें करीब 60 फीसदी काम ही पूरा हो सका था। उप्र में भाजपा सरकार बनने के बाद मु यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद गोमती रिवरफ्रंट का दौरा किया था जिसके बाद गोमती नदी चैनलाइजेशन प्रोजेक्ट और गोमती नदी रिवरफ्रंट डेवलपमेंट में हुई वित्तीय अनियमितताओं की न्यायिक जांच उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आलोक सिंह की अध्यक्षता में गठित समिति ने की। समिति ने अपनी रिपोर्ट 16 मई 2017 को राज्य सरकार को सौंपी और दोषी पाए गए अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराए जाने की सिफारिश की गई। समिति ने जांच के घेरे में आए तत्कालीन मु य सचिव आलोक रंजन और तत्कालीन प्रमुख सचिव सिंचाई दीपक सिंघल के खिलाफ विभागीय जांच की सिफारिश भी की। प्रवर्तन निदेशालय ने मामले में नामजद आरोपियों तत्कालीन चीफ इंजीनियर गोलेश चंद्र (रिटायर्ड), एसएन शर्मा, काजिम अली और सुपरिटेंडेंट इंजीनियर शिवमंगल यादव (रिटायर्ड), अखिल रमन, कमलेश्र्वर सिंह, रूप सिंह यादव (रिटायर्ड) और एग्जीक्यूटिव इंजीनियर सुरेश यादव के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का केस दर्ज किया। इसके बाद उत्तर प्रदेश के लखनऊ में कई जगहों समेत देश के कई राज्यों (हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली शामिल) में एक साथ छापेमारी की गयी। कई इंजीनियर, सिंचाई विभाग के अधिकारियों के खिलाफ ये कार्रवाई की गयी।

इसी तरह अवैध खनन के एक अन्य मामले में जांच कर रही सीबीआई का दावा है कि मु यमंत्री रहते हुए अखिलेश यादव के कार्यालय ने एक ही दिन में 13 खनन पट्टों को मंजूरी दी थी। अखिलेश यादव के पास कुछ समय के लिए खनन विभाग भी था। उन्होंने 14 खनन पट्टों को मंजूरी दी थी, जिसमें 13 पट्टों को 17 फरवरी 2013 को मंजूरी दी गई। सीबीआई का दावा है कि 2012 की ई-टेंडर नीति का उल्लंघन करते हुए मु यमंत्री कार्यालय से मंजूरी हासिल करने के बाद 17 फरवरी को हमीरपुर की जिलाधिकारी बी चंद्रकला ने खनन पट्टे दिये थे। उस नीति को 29 जनवरी 2013 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मंजूरी दी थी। अवैध खनन के मामले में सीबीआई जांच झेल रहीं आईएएस अधिकारी बी. चंद्रकला को प्रवर्तन निदेशालय ने जब लखनऊ में तलब किया तो आरोपी आईएएस अधिकारी बी. चंद्रकला लखनऊ में ईडी द तर नहीं पहुंची। इसके बाद सीबीआई ने आईएएस अधिकारी बी चंद्रकला, समाजवादी पार्टी के विधान पार्षद रमेश कुमार मिश्रा और संजय दीक्षित (बसपा के टिकट पर 2017 में विधानसभा चुनाव लडऩे और हारने वाले) समेत 11 लोगों के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी के सिलसिले में लगातार छापेमारी भी की है। प्राथमिकी के अनुसार अखिलेश यादव 2012 से 2017 के बीच राज्य के मु यमंत्री थे और 2012-13 के दौरान खनन विभाग उनके पास ही था। जिसकी वजह से उनकी भूमिका जांच के दायरे में आई है।  उनके बाद 2013 में गायत्री प्रजापति खनन मंत्री बने थे।

इस प्रकरण पर अखिलेश के बयान भी बड़े रोचक हैं। उनका कहना है कि भाजपा विपक्षी दलों के नेताओं को धमकाने के लिये एक हथियार के रूप में सीबीआई का इस्तेमाल कर रही है। विपक्षी दलों में से कुछ के नेता सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं। अब हमें सीबीआई को बताना पड़ेगा कि गठबंधन में हमने कितनी सीटें वितरित की हैं। मुझे खुशी है कि कम से कम भाजपा ने अपना रंग दिखा दिया है। इससे पहले कांग्रेस ने हमें सीबीआई से मिलने का मौका दिया था और इस बार यह भाजपा है जिसने हमें यह अवसर दिया है। अब समाजवादी पार्टी लोकसभा की अधिक से अधिक सीटें जीतने का प्रयास कर रही है।  जो हमें रोकना चाहते हैं, उनके साथ सीबीआई है।

-अंबुज मिश्र (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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हां मैडम, तुम सिर्फ राजीव गांधी की बेटी ही हो’

 

सुभाष बाबू के जन्मदिवस पर उन्हें एक विशेष वंश से न होने के कारण कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने पर मजबूर करने वाले, इस देश को खुद की रियासत और इस देश की जनता को अपनी रियाया समझने वाले खानदान की ‘चश्मो-चराग’ और कुछ लोगों के लिए भगवान पैदा करने वाले परिवार की सदस्य ‘प्रियंका वाड्रा’ नामक एक नई देवी का भारतीय राजनीति में पदार्पण हुआ। देश का एक खास वर्ग जिसे आम बोल-चाल की भाषा में कांग्रेसी कहा जाता है, उनके राजनीति में प्रवेश की इवेंट को नाच-नाच कर ऐसे सेलिब्रेट कर रहा था मानो उनके घर में संतान ने जन्म लिया हो। खैर, मुझे इससे क्या, कोई किसी के आने पर कैसे भी खुश हो ये उसका लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन कांग्रेस के भगवान पैदा करने वाले इस परिवार की नई देवी के बारे में दो शब्द न सिर्फ सामयिक हैं बल्कि आवश्यक भी हैं। जऱा याद करें जब पिछले चुनावों में वंशवाद और बेईमानी के प्रतीक इस खानदान की ये देवी जब मोदी जी के विरुद्ध अपनी मां और भाई के समान अपशब्दों का प्रयोग करते हुए प्रचार कर रही थी तब मोदी जी ने इन देवी जी पर टिप्पणी करने से इंकार करते हुए ये कहा था कि ”अरे उस पर क्या टिप्पणी करना वो तो बेटी है’’, तब वंश के घमंड में चूर इन देवी जी द्वारा कहा गया था कि ”मैं किसी की नहीं सिर्फ राजीव गांधी की बेटी हूं।’’

उन्होंने सही ही कहा था। ‘हां मैडम तुम सिर्फ राजीव गांधी की बेटी ही हो और इसके अलावा कुछ भी नहीं हो’। हालांकि,  बिना किसी कारण इस खानदान के चरण चु बन करने वाले चारण और भाट जिन्हें मीडिया की भाषा में पत्रकार कहा जाता है, लगातार अपनी इन नई देवी के स्वभाव की विनम्रता का प्रचार करने में लग गये हैं। इसके बाद भी अब इस जागृत युग में इस जागृत देश की जागृत जनता को इन नई देवी और इनके ‘भूमिहीन पति’ और मिशेल व एंडरसन जैसे निकट रिश्तेदारों से अलग और विनम्र तथा ईमानदार दिखा पाना उनके अर्थात चरण और भाटों के लिए भी नितान्त मुश्किल होगा। ऐसा मैं चमचों की अक्षमता की वजह से नहीं मानता हूं बल्कि ऐसा मैं तकनीकी प्रगति के कारण मानता हूं। इनकी, इनके भाई और मां की स्वभावगत विशेषताओं, धूर्तताओं और मूर्खताओं के पकड़ में आ जाने की वजह से कह रहा हूं। उदाहरण के लिए जब इनके भाईजान संसद में प्रेम और सौहाद्र्र पर तैयार किया भाषण झाडऩे के बाद आंख मारकर अपनी धूर्तता की सफलता का संदेश अपने धूर्त सहयोगियों को दे रहे थे तो कैमरे की पकड़ में आ जाने से इनका असल चरित्र देश के सामने आ गया और पप्पू एक बार फिर पप्पू ही साबित हुआ। इसलिए देवी जी आ तो गई हो लेकिन ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की’।

आशीष त्रिपाठी(एड0)

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