जब जब विरोधियों को लगता है कि मोदी का ग्राफ गिर रहा है और वह कमजोर हो रहे हैं तभी अचानक मोदी खेमा ऐसे वापसी करता है कि विपक्षी खेमा चारों खाने चित्त हो जाता है। चूंकि राजनीति में विमर्श का बड़ा महत्व होता है। जनता के बीच चलने वाला विमर्श ही राजनीतिक दलों का वोट बैंक निर्धारित करता है। इसलिए तीन प्रमुख राज्यों में हार के बाद राष्ट्रीय विमर्श कांग्रेस की सत्ता में वापसी एवं मोदी का गिरता ग्राफ बन गया था। मोदी विरोध एवं मोदी समर्थन वाले मीडिया समूह अपनी अपनी ढपली पर अपने अपने राग अलाप रहे थे। राम मंदिर चुनावी मुद्दा बनता दिख रहा था। संतों के द्वारा एक समानान्तर आंदोलन चलाया जा रहा था। सवर्णों को आधार बनाकर 2019 के लोकसभा चुनावों हेतु समीकरण दिये जा रहे थे। इसी बीच मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण का संवैधानिक संशोधन करके एक बड़ा दांव चल दिया। देश में विमर्श की दिशा ही बदल गयी। मोदी से नाराज़ चल रहा सवर्ण उससे वापस जुड़ गया। इसके बाद जीएसटी में परिवर्तन करके मोदी ने व्यापारी वर्ग की नाराजगी कम कर दी। इतना ही नहीं आयकर सीमा बढ़ाकर 5 लाख करना, आयुष्मान भारत योजना का विस्तार, अवैध बांग्लादेश प्रवासियों पर निर्णय एवं किसानों को प्रति एकड़ 12 हज़ार रुपये प्रतिवर्ष देने जैसी घोषणाएं पाइप लाइन में हैं। चूंकि मोदी से लोग सिर्फ नाराज़ थे, हताश नहीं थे इसलिए राष्ट्रीय विमर्श को मोदी की तरफ स्थानांतरित होने में देर नहीं लगी । रही सही कसर चुनाव से पूर्व आने वाली घोषणाएं पूरी करने वाली हैं। इवैंट के द्वारा माहौल अपनी तरफ बनाने में मोदी की महारत से विपक्ष में बड़ी हलचल मच गयी है। भ्रष्टाचार में फंसे क्षेत्रीय दलों के नेता अब स्वयं को बचाने के लिए एक मंच पर आ गए हैं। कभी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर भ्रष्ट नेताओं के नाम उजागर करने वाले केजरीवाल जब उन्हीं नेताओं के साथ मंच पर खड़े दिखते हैं तो जनता में उनकी विश्वसनीयता की पोल खुल जाती है। प्रियंका वाड्रा को कांग्रेस के द्वारा सक्रिय राजनीति में लाना एवं माया-मुलायम की वर्षों पुरानी तल्खियों के मध्य बुआ-बबुआ साथ आकर भाजपा के समीकरण गड़बड़ाने लगे हैं। दूर से देखने पर एकजुटता दिखाता एवं बंगाल में ममता की रैली में एक मंच पर दिखा विपक्ष भीतर ही भीतर कई खेमों में बंटा हुआ है। राफेल पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय, आरक्षण पर मास्टर स्ट्रोक और बहुत से लोकलुभावन निर्णयों के बाद मोदी के दांव ब्रह्मास्त्र बन कर सामने आ रहे हैं।
अमित त्यागी
न 2019 के प्रथम सप्ताह से ही देश लोकसभा चुनाव के मोड़ में आ चुका था। मोदी सरकार के पांच साल के कार्यकाल का मूल्यांकन शुरू हो चुका था। विपक्ष में किसी भी तरह सत्ता में आने की खेमाबंदी शुरू हो गयी थी। राम मंदिर और तीन राज्यों में कांग्रेस की वापसी राष्ट्रीय विमर्श का विषय बना हुआ था। अचानक हवा का रुख बदला। गरीबों को आरक्षण का कानून पास हुआ और देखते ही देखते सारा राष्ट्रीय विमर्श इस पर आकर ठहर गया। भाजपा के समर्थकों ने इसे मोदी का मास्टर स्ट्रोक कहा तो विपक्षी खेमे के द्वारा भी इसके विरोध की हि मत नहीं हुयी। मोदी के संदर्भ में आर्थिक आरक्षण का सबसे सकारात्मक पक्ष यह रहा कि यह सबका साथ सबका विकास की रूपरेखा को पूर्ण कर गया। आर्थिक आरक्षण सभी धर्मों एवं सभी जातियों को लाभ देने वाला निर्णय बन कर उभर रहा है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्मों और समुदायों के कमजोर तबके को इसका लाभ मिलने जा रहा है। उत्तर प्रदेश, गुजरात जैसे कुछ राज्यों ने इसे अपने राज्यों में लागू भी कर लिया है किन्तु मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने इसमें अड़ंगा अड़ा लिया है। 1990 में वी पी सिंह द्वारा मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के बाद जो आरक्षण की शुरुआत हुयी थी उसके अगले कदम के रूप में 2019 में मोदी सरकार का यह कदम बन गया है। इसके साथ ही आयुष्मान भारत योजना के द्वारा मोदी 10 करोड़ परिवारों को स्वास्थ्य बीमा देने जा रहे हैं। भारत जहां प्रतिवर्ष तीन प्रतिशत आबादी सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण बीपीएल में चली जाती हो वहां आयुष्मान योजना भारत में एक बड़ा जमीनी बदलाव पैदा कर सकती है। पिछले साल सरकार ने 47,353 करोड़ रुपये स्वास्थ्य बजट के रूप में रखे थे जो इस बार बढ़ाकर 52,800 करोड़ रुपये कर दिये गए हैं। इसके साथ ही मोदी सरकार देश के दस करोड़ बेरोजगारों को 2500 रुपये महीने का बेरोजगारी भत्ता देने की योजना बना रही है। इसकी घोषणा होने पर बेरोजगार युवा सरकार की तरफ आकर्षित हो सकता है। इसके बाद किसानों को प्रति एकड़ 12 हज़ार रुपये प्रतिवर्ष की प्रस्तावित न्यूनतम गारंटी लाभ के द्वारा किसानों का एक बड़ा वर्ग मोदी की तरफ फिर से आकर्षित होगा। तीन राज्यों में सरकार बनने के बाद जिस तरह से कांग्रेस ने किसानों की कर्जमाफ़ी को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया उसका विकल्प यह योजना बनने जा रही है।
अब हवा का रुख मोदी के पक्ष में बन रहा है क्योंकि लोगों का राहुल पर भरोसा अभी जमा नहीं है और मोदी अपने विरोध के बावजूद लोगों के दिलों से उतरे नहीं हैं। लोगों की जिन जिन अपेक्षाओं पर मोदी खरे नहीं उतर पा रहे थे उन उन विषयों पर वह काम करते दिख रहे हैं। मोदी के सामने चुनौती 2014 की प्रचंड जीत को दोहराने की है। मोदी के कुछ प्रमुख निर्णय ब्रह्मास्त्र की तरह अचूक बनते दिख रहे हैं।
आयुष्मान भारत योजना : स्वस्थ भारत की वैश्विक तस्वीर
महात्मा गांधी का कहना था कि जब विशिष्ट वर्ग का संसाधनो पर एकाधिकार हो जाता है तब वो शिष्टता और नैतिकता को तांक पर रखकर धन और शक्ति अर्जित करने की प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। गांधी जी का यह कथन हर वह व्यक्ति समझ सकता है जो किसी न किसी बीमारी की वजह से किसी अस्पताल में फंस चुका होता है। सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था की बदहाली भारत में एक चिंता का विषय है। देश की आम जनता अपने अनुभव से इसे महसूस करती रहती है। अनेक अध्ययन और विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े इस कटु सत्य से समय-समय पर हमें रूबरू करते रहे हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में हम बांग्लादेश और केन्या जैसे गरीब देशों से भी पिछड़ चुके हैं। नई-नई बीमारियों के द्वारा निजी अस्पताल पैसा कमाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। जापानी बुखार, डेंगू, स्वाइन लू के द्वारा मुनाफे को केंद्र में रख कर चलने वाले चिकित्सा के कारोबारियों से यह उ मीद नहीं की जा सकती कि वे इन समस्याओं से निपटने को प्राथमिकता देंगे। इनका ध्यान सिर्फ डर के माध्यम से पैसे की उगाही ज़्यादा लगता है। ये लोग हमसे, हमारा ही पैसा लेकर, हम पर ही अपनी दवाओं का परीक्षण कर रहे हैं। भारतीय नागरिकों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा किए जा रहे अवैध परीक्षणों पर पूर्व में उच्चतम न्यायालय ने मनमोहन सरकार को चेताया भी था कि ”दवाओं के अवैध परीक्षण देश में ‘बर्बादी’ ला रहे हैं। नागरिकों की मौत के जि मेदार परीक्षणों के इस ‘धंधे’ को रोकने के लिए एक समुचित तंत्र स्थापित करने में सरकार क्यों विफल रही है।’’ न्यायालय ने इसके साथ ही निर्देश भी दिया था कि देश में भविष्य में अब सभी दवाओं के परीक्षण केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव की देखरेख में ही होंगे। सरकार को स्थिति की गंभीरता को समझते हुए तत्काल इस समस्या से निबटना चाहिए। अनियंत्रित परीक्षण देश में बर्बादी ला रहे हैं और सरकार गहरी नींद में है।
इस संदर्भ से देखने पर मोदी सरकार के ब्रह्मास्त्र के रूप में आयुष्मान भारत योजना एक बड़ा हथियार बनकर उभरी है। 10 करोड़ से ज़्यादा परिवारों के स्वास्थ्य पर यह योजना प्रभाव डालने जा रही है। इस योजना के अंतर्गत सरकार गरीब और कमजोर परिवारों को हर साल पांच लाख रुपये तक का बीमा देने जा रही है। लगभग 10 करोड़ परिवारों को 50 हज़ार रुपये तक बीमा मिलने का इसमें प्रावधान है। इस योजना को 30 राज्यों और 443 जिलों में प्रार भ किया गया है। झारखंड से शुरू होने वाली यह योजना दुनिया की सबसे बड़ी सरकारी योजना है। आयुष्मान भारत योजना के लिए 1200 करोड़ रुपये का फंड प्रस्तावित किया गया है जिसके द्वारा 1.5 लाख उपकेन्द्रों पर इस धन का उपयोग किया जाएगा। अभी तक भारत में चिकित्सा पर सत्तर फीसद स्वास्थ्य-खर्च निजी स्रोतों से पूरा किया जाता रहा है। एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अमेरिका जैसे विकसित और धनी देश में भी लोगों को अपनी जेब से चिकित्सा में इतना व्यय नहीं करना पड़ता है। अधिकतर विकसित देशों ने सार्वजनिक चिकित्सा तंत्र को कमजोर करने की गलती नहीं की थी। अब भारत भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ निकला है। अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव में बराक ओबामा को दुबारा कामयाबी की एक बड़ी वजह उनकी ‘हेल्थ केयर’ योजना भी थी। शायद मोदी जी को भी आयुष्मान भारत योजना दूसरा टर्म देने में कामयाब हो जाये।
आयुष्मान भारत योजना की प्रमुख विशेषताएं
- सरकार प्रत्येक परिवार को 5 लाख प्रदान करेगी।
- अस्पतालों में विभिन्न मेडिकल चेक अप होंगे।
- सरकार द्वारा 24 नए मेडिकल कॉलेज खोले जाएंगे।
- जि़ला अस्पतालों में सुविधाएं बढ़ायी जाएंगी। सरकारी और निजी दोनों अस्पताल में इलाज़ की सुविधा होगी।
- 8735 अस्पतालों को आयुष्मान भारत योजना से जोड़ा जाएगा।
- मरीज का अस्पताल में भर्ती होने से पहले और बाद का खर्च सरकार द्वारा वहन होगा।
जीएसटी, किसानों को न्यूनतम गारंटी लाभ, बेरोजगारी भत्ता और अन्य ब्रह्मास्त्र
नोटबंदी और जीएसटी मोदी कार्यकाल के दो बड़े क्रांतिकारी कदम रहे हैं। नोटबंदी के बाद भाजपा ने उत्तर प्रदेश का चुनाव जीता तो जीएसटी के बाद भाजपा गुजरात चुनाव जीतने में सफल रही। गुजरात चूंकि व्यापारियों का गढ़ है इसलिए वहां की जीत जीएसटी पर मुहर की तरह देखी गयी। हालांकि, जीएसटी के द्वारा व्यापारियों को आने वाली समस्याएं सरकार के लिए मुसीबत बनती रही हैं। वित्त मंत्री के द्वारा बार बार जीएसटी के प्रारूप में बदलाव किया जाता रहा है। 28 प्रतिशत और 18 प्रतिशत के स्लैब कई बार बदले गए। पर हर बदलाव के बाद महत्वपूर्ण वस्तुओं के दाम कम ही हुये। अब सरकार द्वारा जीएसटी फाइल करने की प्रक्रिया सुलभ करने पर ज़ोर है। कृषि क्षेत्र पर सरकार का विशेष ध्यान है। किसानों की ऋण माफी एक बड़ा राजनैतिक हथियार बन कर उभरा है किन्तु इसके द्वारा किसानों को सिर्फ क्षणिक और राजनैतिक लाभ ही मिलता है। मोदी सरकार के कार्यकाल में यूरिया के लिए वह मारामारी नहीं दिखी जो पिछली सरकारों में देखी जाती थी। 2017-18 में सरकार द्वारा उर्वरकों पर 65,000 करोड़ की सब्सिडी दी गयी। 2017-18 में खाद्य सब्सिडी 1,40,000 करोड़ रुपये रही। सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य डेढ़ गुना किया जाना भी किसानों को पसंद आया है।
2022 तक किसानों की आय दुगनी करने का लक्ष्य लेकर चल रही सरकार को जीडीपी में कृषि के योगदान के आंकड़े पर भी गौर करना होगा। 1950-51 में कृषि का जीडीपी में योगदान 51.9 प्रतिशत था जो 2017-18 आते आते 13.6 प्रतिशत रह गया है। जब तक कृषि का जीडीपी में योगदान नहीं बढ़ेगा तबतक किसानों का वास्तविक भला होना मुश्किल है चाहें सरकारी स्तर पर कितनी ही नीतियां बना दी जाएं। भारत में श्रम बल का 45 प्रतिशत हिस्सा अब भी कृषि पर आधारित है फिर भी किसानों की औसत आय अन्यों से काफी कम है। 2015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार 68.5 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जिनके पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है। पीढिय़ों में ज़मीन बंटवारे के कारण ऐसी स्थिति बनी है। ऐसे में किसानों को प्रति एकड़ 12 हज़ार रुपये प्रतिवर्ष देने जैसी घोषणाएं किसानों के लिए बड़ा प्रभावी कदम होगा। इसी तरह 2500 रुपये बेरोजगारी भत्ते का प्रावधान मोदी सरकार का एक ब्रह्मास्त्र हो सकता है। इन सब घोषणाओं और अपेक्षित घोषणाओं के बीच मोदी का सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र आर्थिक आधार पर आरक्षण बना है। इस एक तीर से तो शायद मोदी ने कई शिकार एक साथ कर दिये हैं।
इसके साथ ही समान नागरिक संहिता की तरफ भी सरकार के कदम बढऩे पर भाजपा का एजेंडा मजबूत होगा। 1995 में सरला जैन के वाद में उच्चतम न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को निर्देशित किया कि वह समान नागरिक संहिता को लागू करें। न्यायालय ने तब सरकार से पूछा था कि आप कृपया बताएं कि सरकार इस विषय पर कितना आगे बढ़ी है। एक चूक उस समय नरसिंह राव ने की थी और अब मोदी यदि इस विषय पर कुछ नहीं करते हैं तो दूसरी बड़ी राजनैतिक चूक उनकी होगी। राम मंदिर और 370 पर मोदी सरकार से जनता को काफी अपेक्षाएं थीं किन्तु इस पर जनता को मोदी से हताशा हाथ लगी है। चूंकि, इन पर मामले न्यायालय में लंबित है इसलिए अगर चुनाव के पूर्व इस पर फैसले आ जाते हैं तो यह मोदी के लिए सबसे बड़े ब्रह्मास्त्र साबित होंगे। यह सब ताबड़तोड़ फैसले इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि 2014 में प्रचंड बहुमत प्राप्त करने वाले मोदी के पहले राजीव गांधी 1984 में तीन चौथाई बहुमत के साथ सत्ता में आए थे।
उसके तीस साल बाद 2014 नरेंद्र मोदी ने लगभग दो तिहाई बहुमत प्राप्त किया। राजीव गांधी ने शाहबानों प्रकरण में उच्चतम न्यायालय का फैसला कानून बनाकर पलट दिया तो नरेंद्र मोदी ने एससीएसटी एक्ट में उच्चतम न्यायालय का फैसला कानून बनाकर पलट दिया था। इस निर्णय का खामियाजा भाजपा ने तीन राज्यों में सत्ता गंवा कर भुगता है। शाहबानो प्रकरण के बाद राजीव गांधी मुस्लिम वोटबैंक के प्रति आश्वस्त थे। हिन्दू वोट पाने के लिए उन्होंने राम मंदिर के ताले खुलवा दिये और अगले लोकसभा चुनावों में मुंह की खाई। ठीक उसी तरह मोदी ने एससीएसटी संशोधन के बाद दलित वोटों की चाह में तीन राज्यों की सत्ता गंवाई। राजीव गांधी और मोदी दोनों ने उच्चतम न्यायालय के फैसले को वोट के कारण पलटा और दोनों को अपने अगले चुनावों में हार देखनी पड़ी। नब्बे के दशक में भारत की राजनीति में मण्डल और कमंडल का उदय हुआ। आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान करके वर्तमान में मोदी मण्डल और कमंडल दोनों को साथ लेकर चल रहे हैं। किसानों और बेरोजगारों पर भी उनकी निगाहें हैं। राम मंदिर और 370 पर भी भाजपा का ध्यान है। मोदी 2004 में अटल जी के कार्यकाल में की गयी उस गलती को नहीं दोहराना चाहते हैं जब पांच साल बेहतर कार्य करने के बावजूद ताबूत घोटाले के आरोपों के कारण अटल सरकार की किरकिरी हुयी थी और सत्ता दुबारा हाथों में आने से रह गयी थी। वर्तमान में राफेल के मुद्दे पर न्यायालय से क्लीन चिट के बाद 2004 की गलती को दोहराने से तो भाजपा बच गयी दिखती है। भाजपा को संजीवनी तो आखिर में आर्थिक आधार पर आरक्षण से ही प्राप्त होती दिख रही है।
राम मंदिर नहीं, आर्थिक आरक्षण बना मोदी का रामबाण
जब पूरे देश में राष्ट्रीय विमर्श का विषय राम मंदिर बना हुआ था तब अचानक आर्थिक आधार पर आरक्षण का विषय राम बाण की तरह आया और अपने अचूक वार से सभी विरोधियों को एक झटके में चित कर गया। जब तक विपक्षी कुछ समझ पाते तब तक रामबाण अपना काम कर चुका था। संविधान में 124 वा संशोधन कराने में सरकार को किसी भी विपक्षी दल को मनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। विपक्षी दलों के पास इसका समर्थन करने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं था। चूंकि इसके द्वारा सभी धर्मों और सवर्ण जातियों को फायदा मिलना था इसलिए इनकी नाराजगी लेने का राजनैतिक नुकसान कोई दल नहीं लेना चाहता था। भाजपा के कार्यकर्ताओं में पिछले एक साल से कुछ रोष भरता जा रहा था। हिन्दुत्व के मुद्दे से भटकने के कारण भाजपा का कार्यकर्ता जनता को जवाब नहीं दे पा रहा था। चूंकि भाजपा का एक बड़ा मतदाता वर्ग सवर्ण है इसलिए एससीएसटी एक्ट के बाद उसका जोश भी नदारद था। तीन राज्यों में मिली हार ने भाजपा को सबक भी दे दिया था। इस कानून के द्वारा मोदी अब राष्ट्रीय विमर्श को अपने हिसाब से सेट करने में कामयाब हो गए हैं। जो लोग इस कानून को सिर्फ चुनाव से जोड़कर देख रहे हैं उनको समझना चाहिए कि चुनावी वर्ष में ऐसा होना पहली बार नहीं है। पूर्व में भी चुनाव के समय ऐसा होता आया है। 2009 में मनमोहन सरकार ने किसानों की कजऱ् माफी करके किसानों को अपनी तरफ कर लिया था। 2014 में यूपीए सरकार द्वारा मुसलमानों और जाटों को आरक्षण भी कुछ इसी तरह के कदम थे। खाद्य सुरक्षा कानून भी चुनाव के कुछ पूर्व में लाया गया था। हां, यह बात ज़रूर है कि किसानों की कर्जमाफ़ी को छोड़कर अन्य किसी विषय का लाभ कांग्रेस को नहीं मिला। अब 2018 के विधानसभा चुनावों में भी किसानों की कजऱ् माफी के द्वारा कांग्रेस ने सफलता प्राप्त की है। इस तरह से देखा जाए तो आर्थिक आधार पर आरक्षण मोदी का मास्टर स्ट्रोक तो है किन्तु इसके द्वारा पिछड़े, दलित एवं मुसलमानों का वोट भाजपा को मिलेगा इसमें अभी भी संदेह है। हां, उसके कोर वोटबैंक सवर्णों में नाराजगी अवश्य दूर हो गयी है। जीएसटी में सुधार से वैश्य वर्ग भी अब राहत महसूस कर रहा है।
इसके साथ ही आरक्षण के कुछ साइड इफैक्ट भी समाज पर पड़ रहे थे। उत्तर भारत, जहां जातिगत राजनीति कुछ ज़्यादा ही होती है वहां पर भाजपा को खुद को संभालना तक मुश्किल हो गया था। मोदी सरकार के साढ़े चार साल के अच्छे कार्य भी नेपथ्य में जाने लगे थे। जातिगत आरक्षण के कारण समाज में जातियों के उत्थान से ज़्यादा आपसी वैमनस्यता बढ़ रही थी। एससीएसटी एक्ट के पास होने पर तो यह वैमनस्यता सतह पर ही आ गयी थी और अगड़ी-पिछड़ी जातियां आमने सामने आकर खड़ी हो गईं थीं। देश में दो तरह के तबके बन चुके थे। एक वह जिसे आरक्षण का लाभ मिल रहा था। और एक वह जिसे आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा था। देश में कई समृद्ध जातियां आरक्षण का लाभ लेने के लिए पिछड़ी जातियों में स िमलित होने के लिए आंदोलन कर रही थीं। महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार, हरियाणा में जाट, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में गुर्जर जातियां समृद्ध होने के बावजूद आरक्षित वर्ग में शामिल होने के लिए हिंसक और उग्र आंदोलन कर रही थीं। आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू होने के बाद इन जातियों को आरक्षण दिलवाने के नाम पर आंदोलन करने वाले नेताओं की राजनीतिक हैसियत घट चुकी है। शायद यही मोदी का मास्टर स्ट्रोक है। जिसमें एक तीर से कई निशाने सध गए दिखते हैं।
आर्थिक आरक्षण मोदी सरकार के साढ़े चार साल के उस कार्यकाल को भी अब परिलक्षित कर रहा है जिसमें सामाजिक आधार को विकास का मापदंड बताया जा रहा था। दलित और पिछड़े वर्ग में सेंध लगाने के लिए मोदी सरकार की उज्जवला एवं जन-धन योजना कारगर साबित हुयी हैं। शौचालय निर्माण के द्वारा दलित और सवर्णों की खाई पाटने की पहल के परिणाम निकट भविष्य में दिखाई देंगे किन्तु एक तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि दलित एवं पिछड़े वर्ग को लेकर किए गए कार्य वोट बैंक में तब्दील होते नहीं दिख रहे हैं। 1990 में वीपी सिंह ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिलवाने के क्रम में अपनी सरकार तक कुर्बान कर दी थी। तब वीपी सिंह को लगता था कि उनकी इस नीति से पिछड़ा वर्ग उनके साथ आ जाएगा। तब पिछड़े वर्ग को आरक्षण तो मिल गया किन्तु वीपी सिंह कभी सत्ता में वापस नहीं लौटे। पिछड़े वर्ग के आरक्षण के समय सवर्णों में बेहद नाराजगी देखी गयी थी। एक झटके में 27 प्रतिशत अवसर कम होना उस समय एक बड़ा कदम था। एक तरफ सवर्णों को लग रहा था कि उनका हक़ छीनकर पिछड़े वर्ग को दिया जा रहा है तो पिछड़े वर्ग का मानना था कि देर से ही सही, उनका हक़ उन्हे मिल तो रहा है। दलित एवं आदिवासियों के आरक्षण के समय ऐसा भाव सवर्णों के मन में नहीं आया था क्योंकि इसके संवैधानिक प्रावधान होने के कारण देश का एक बड़ा वर्ग इसके लिए पहले से ही मानसिक रूप से तैयार था।
पिछड़े वर्ग में सबको नहीं मिलता आरक्षण का लाभ
सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट के बाद पिछड़े वर्गों की जातियों में सरकार को उन जातियों को चिन्हित करना होगा जिन्हें आरक्षण का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया है। अगर पिछड़े वर्ग की बात करें तो इनमें से हर जाति के लिए अलग अलग आरक्षण का प्रावधान हो ऐसा नहीं है। सबके लिए कुल 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि यादव जैसी सक्षम जाति को छोड़कर अन्य को आरक्षण का समुचित लाभ नहीं मिला। सरकारी तंत्र में यादव काफी सं या में पहुंचे किन्तु अन्य जातियों का पिछड़ापन दूर नहीं हुआ। इसी तरह अनुसुचित जाति में जाटव को छोड़कर अन्य जातियों को सरकारी नौकरी में अपेक्षाकृत बहुत कम प्रतिनिधित्व मिला। इन दोनों जातियों के नाम पर नेता भी खूब फले फूले। मुलायम सिंह यादव और मायावती ने अपनी राजनीति चमकाते हुये सरकारें बनाई। अपनी सरकारों में अपनी अपनी जातियों की खूब भर्ती कीं। इसका परिणाम यह हुआ कि पिछड़े और अनुसूचित वर्ग की अन्य जातियां पहले नौकरियों से वंचित हुईं और बाद में इन नेताओं के लिए उसमें गुस्सा भरने लगा। जिस मूल भावना से संविधान में दस साल के लिए बाबा साहब ने आरक्षण की व्यवस्था की थी वह मूल भावना ध्वस्त हो गयी। आरक्षण सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत हित साधने का औज़ार बन कर रह गया।
उत्तर भारत के गांवों में तो आज भी ऐसी स्थिति है कि आरक्षण के बावजूद बहुत सी पिछड़ी एवं दलित जातियों में सामाजिक उन्नति नहीं हुयी है। उनको जनतंत्र एवं लोकतन्त्र जैसे शब्दों की अवधारणा का ज्ञान नहीं है। वह आरक्षण एवं जातिगत व्यवस्था के जाल में ऐसे उलझे हैं कि थक हारकर उन्हें मान स मान और स्व जातीय नेताओं को प्राथमिकता देना ही अंतिम विकल्प नजऱ आता है। जो नेता या दल उन्हें स मान दे देता है उसे वह अपना हितैषी मान लेते हैं। शायद इसी कारण से उत्तर भारत अभी भी जातीय चंगुल से बाहर नहीं आ पाया है। उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन 1980 के आस पास विकसित हुआ। उपेक्षित वर्ग में बराबरी पाने की चाह इसी दौरान बलवती हुयी। पहले काशीराम और इसके बाद मायावती इस दलित आंदोलन का धार बने। इस बीच मुलायम सिंह यादव पिछड़े वर्ग के नेता बन कर उभरे। इन दोनों नेताओं ने अपने अपने क्षेत्रीय दलों की कई बार सरकारें बनाई। अस्मिता के नाम पर मोटा माल पैदा किया। आरक्षण के नाम पर सिर्फ अपनी अपनी जातियों को लाभ पहुंचाया। आरक्षण में शामिल अन्य जातियां सिर्फ स मान पाकर ही संतोष करती रहीं। उन्हें एक तरफ सवर्णों का डर दिखाया गया और दूसरी तरफ छद्म स मान दिया गया। उनके लिए किया कुछ नहीं गया। जब जब इस वंचित वर्ग को अलग से आरक्षण के लाभ की बात शुरू हुयी तो आरक्षण का निरंतर लाभ लेने वालों ने इसे आरक्षण खत्म होने की दिशा में कदम बता कर प्रचारित किया। इस तरह से वास्तविक लोगों का हक़ मारकर आरक्षित वर्ग में सिर्फ कुछ लोग ही लाभान्वित होते रहे। अब आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू होने से पिछड़े और दलित के लोग तो लाभान्वित नहीं होंगे किन्तु इसके द्वारा इन वर्गों के लोगों के लिए आरक्षण का लाभ लेने के दरवाजे भविष्य में खुलते दिखने लगे हैं। अब एकाधिकार खत्म होकर सर्वांगीण सामाजिक समरसता की तरफ कदम बढ़ते दिखने लगे हैं।
क्या आरक्षण है समस्या का सही समाधान?
आरक्षण का उद्देश्य सदा से वंचित वर्ग का उत्थान रहा है किन्तु आंकड़े इस बात की पुष्टि नहीं करते हैं। आरक्षण के बावजूद इस वर्ग से संबन्धित अपराधों में कमी नहीं आई। इन वर्गों के लोगों ने स्वयं तो सरकारी नौकरी पाकर स्वयं को व्यवस्था में व्यवस्थित किया किन्तु अपनी जातियों के अन्य लोगों के उत्थान के लिए कुछ विशेष प्रयास नहीं किए। एक बार नौकरी प्राप्त होने बाद अपने संबंध उच्च वर्ग में बनाए और उनके साथ ही उठना बैठना किया। इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि दलितों के खिलाफ मामले बढ़ते गए और खाई के पटने की संभावना खत्म होती गयी। मतदाताओं के रूप में दलित एवं आदिवासियों का प्रतिशत लगभग 20 प्रतिशत है। यह कुल जनसं या का पांचवा भाग है। आरक्षण चाहें सामाजिक आधार पर हो या आर्थिक आधार पर। इन सबसे महत्वपूर्ण है कि हमारे राजनैतिक दल आरक्षित सीटों पर जीतने वाले अपने प्रत्याशियों का रिपोर्ट कार्ड भी दुरुस्त करें। यह तय करें कि उनके दलित सांसद और विधायक अपने क्षेत्रों में बेहतर कार्य करें ताकि जनता में आरक्षण विरोधी भावना बलवती न हो।
इस तरह आर्थिक आधार पर आरक्षण राजनैतिक दृष्टि से तो बड़ा प्रभावी कदम दिखाई देता है किन्तु क्या किसी देश के विश्वगुरु बनने के क्रम में इस तरह के प्रावधान फायदा पहुंचाते हैं? आज जब सरकारी नौकरी लगातार कम होती जा रही हों, सरकारी नौकरी में आरक्षित वर्ग के लोगों की भरमार होने के कारण सिर्फ एक खास वर्ग को लाभ मिल रहा हो, सरकारी तंत्र लगातार चरमरा रहा हो, काम के बोझ से कार्यालय दबे पड़े हों, एक योग्य व्यक्ति के ऊपर अपेक्षाकृत कम योग्य व्यक्ति को तरजीह दी जा रही हो तब कैसे सुधार हो सकता है? क्या सिर्फ आरक्षण के द्वारा नौकरी पाने मात्र से सरकारी तंत्र सुचारु रूप से चलने लगेगा? क्या मेधा को आधार मानकर प्राप्त होने वाली शिक्षा व्यवस्था सिर्फ आरक्षण के आधार सरकारी तंत्र को चलाएगी? ये कुछ बड़े व्यापक प्रश्न है जिस पर नेताओं का ध्यान जाकर भी ठहर जाता है। वोट बैंक की राजनीति नें देश को अंदर से कितना खोखला किया है उसका अंदाज़ा सिर्फ वही छात्र लगा पाता है जो लगातार प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ रहा होता है। इसका दर्द वही जान पाता है जब 100 में से 70 अंक पाने वाला छात्र व्यवस्था के बाहर रह जाता है और 30 अंक पाने वाला व्यवस्था में जगह पा जाता है। इसके बाद अब ऐसा चलन हो गया है कि प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम आने पर मामला न्यायालय में लंबित होता ही है। तो फिर चाहे आरक्षण आर्थिक आधार पर हो या सामाजिक आधार पर। यह राजनीतिक रूप से तो ब्रह्मास्त्र दिखाई देता है किन्तु वास्तविक छात्रों का दर्द तो तभी दूर होगा जब प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम समय पर आयें और परिणाम न्यायालय में लंबित न हों।
ब्रह्मास्त्र तभी कारगर होता है जब उसका प्रभाव ज़मीन पर दिखाई दे। लोगों के रहन सहन में सुधार हो। उनके जीवन यापन में सुधार हो। वरना कहीं आर्थिक आधार पर आरक्षण का हाल भी देश में सत्तर साल से चल रही किसान कल्याणकारी योजनाओं के जैसा न हो जाये। वर्तमान में जीडीपी में कृषि का योगदान 15 प्रतिशत से भी कम है किन्तु राजनैतिक दृष्टि से किसान का योगदान लगभग 60 प्रतिशत है। किसान आधारित नीति तो बनती हैं किन्तु उस तक पहुंचती नहीं है। किसान की कजऱ् माफी चुनाव जीतने का हथियार तो बन रही है किन्तु किसान की हालत सुधारने का माध्यम नहीं बन पा रही है। किसान और युवा 2019 में अहम मतदाता होने जा रहा है। बेरोजगारी भत्ता एवं जीएसटी के सुधार के बाद मोदी के ये सारे ब्रह्मास्त्र राजनैतिक दृष्टि से मोदी के रामबाण भी बनेंगे इसकी आशा हर भारतीय कर रहा है।
आरक्षण से संबन्धित कुछ प्रमुख घटनाएं एवं तथ्य
- भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों एवं जन जातियों को प्रार िभक दस साल के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी जिसे समय समय पर बढ़ाया गया।
- 1979 में मोरारजी देसाई सरकार द्वारा सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए संसद सदस्य बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता में मण्डल आयोग का गठन किया गया। सीटों के आरक्षण और कोटे का निर्धारण भी इस आयोग का उद्देश्य था।
- मण्डल आयोग के पास अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल उप जातियों का वास्तविक आंकड़ा उपलब्ध नहीं था इसलिए आयोग ने 1930 के जनसं या आंकड़ों के अनुसार 1257 समुदायों को पिछड़ा घोषित कर दिया। उनकी आबादी 52 प्रतिशत तय की।
- 1980 में मण्डल आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपते हुये पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी को आरक्षण में शामिल करते हुये आरक्षण को 22 प्रतिशत से बढ़ाकर 49.5 प्रतिशत तक करने का सुझाव दिया।
- 1990 में वी पी सिंह सरकार ने इसे लागू कर दिया। इसके विरोध में उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की गयी। न्यायालय ने इसे वैधानिक ठहराते हुये इसकी सीमा 50 प्रतिशत तय कर दी।
- 2006 में सरकार ने शैक्षिक संस्थानों में 49.5 प्रतिशत का आरक्षण लागू किया। 2010 में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय में संशोधन करते हुये कहा कि अगर वैज्ञानिक आंकड़े मौजूद हों तो राज्य आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से बढ़ा सकते हैं।
- 2019 में मोदी सरकार ने संविधान संशोधन करके अनु.-15(6) एवं 16(6) जोड़ते हुये 10 प्रतिशत आरक्षण आर्थिक आधार पर कर दिया।
किस प्रदेश में कितना आरक्षण ?
हरियाणा हरियाणा में 67 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित किया गया जब 2016 में भाजपा सरकार ने जात सहित छह जातियों को शिक्षा एवं रोजगार में 10 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित किया। मामला उच्च न्यायालय में जाने पर न्यायालय ने बिल तो बरकरार रखा किन्तु कोटे पर रोक लगा दी। इसके बाद मामला पिछड़ा आयोग में भेजा गया।
गुजरात पाटीदार आंदोलन के बाद उच्च जातियों को आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण देने का अध्यादेश भाजपा सरकार ने जारी किया जिसे उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया क्योंकि राज्य में पहले से ही 49.5 प्रतिशत आरक्षण लागू था।
तमिलनाडु तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित है। न्यायालय के दायरे से बाहर रहने के क्रम में तमिलनाडु ने अपने आरक्षण कानून को संविधान की नौवी अनुसूची में डाल रखा है। 2018 में उच्चतम न्यायालय ने 69 प्रतिशत आरक्षण पर रोक लगाने से इंकार कर दिया था। इसको चुनौती देने वाली कुछ याचिकाएं अब भी उच्चतम न्यायालय में लंबित हैं।
राजस्थान राजस्थान में 54 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित है। 2017 में वसुंधरा सरकार ने अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण को 21 प्रतिशत से बढ़ा कर 26 प्रतिशत कर दिया। इस पर उच्चतम न्यायालय ने सरकार को आगाह किया कि वह 50 प्रतिशत की सीमा को पार नहीं कर सकती।
तेलंगाना तेलंगाना में 62 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित है। टीआरएस सरकार ने 2017 में बिल पास करके कुल आरक्षण 62 प्रतिशत कर दिया और अब कानूनी दांव पेंच से बचने के लिए वहां की सरकार इसे नौवीं अनुसूची में डालने पर विचार कर रही है।
आंध्र प्रदेश आंध्र प्रदेश में प्रस्तावित आरक्षण 65 प्रतिशत है। तेदेपा सरकार ने सरकारी सेवाओं और शिक्षा में कापु समुदाय को पांच प्रतिशत आरक्षण देने का बिल पारित किया। इस राज्य में भी आरक्षण के प्रावधान को नौवी अनुसूची में डालने पर प्रयास किया जा रहा है।
महाराष्ट्र महाराष्ट्र में 68 प्रतिशत आरक्षण प्रस्तावित है। नवंबर 2018 में मराठों को 16 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। पहले से ही 52 प्रतिशत आरक्षण होने के कारण तमिलनाडु के बाद महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर आता है।
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ताबड़तोड़ फैसलों से भाजपा की जीत सुनिश्चित
ऐतिहासिक दृष्टि से हमने विदुर नीति, चाणक्य नीति को साहित्य के माध्यम से पढ़ा और चलचित्र के माध्यम से घटित होते देखा। वर्तमान संदर्भ में मोदी नीति भारतीय राजनीति का एक बड़ा स्त भ बनती जा रही है जिसे पढऩे-समझने में विपक्षी चूक करते हैं। आयुष्मान भारत, किसानों को मिलने वाला धन और जीएसटी पर सुधार करके नरेंद्र मोदी ने पूरे विपक्षी खेमे को पस्त कर दिया है। इस बात की किसी ने कोई कल्पना नहीं की थी कि आज़ादी के सत्तर साल बाद कोई सवर्ण आरक्षण को भी लागू कर सकता है। जहां आरक्षण के नाम पर दलित खेमा अंबेडकर को भगवान मानता था वहीं आर्थिक आधार पर आरक्षण देकर मोदी ने सभी को समानता के आधार पर एक मंच पर ला दिया है। पूरे विश्व में फैले भारतीयों की अंतरात्मा को मोदी जी ने झकझोर दिया है। सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट आने के बाद पिछड़े वर्ग की जातियों को तीन भागों में विभाजित करके आरक्षण का वास्तविक लाभ उन जातियों को मिल पाएगा जो इसकी वास्तविक हकदार हैं। 27 प्रतिशत आरक्षण को 9-9 प्रतिशत आरक्षण में विभाजित किया जाना चाहिए। राजनीति में जो फैसले लेता है, वही आगे बढ़ता है। मोदी जी फैसले लेते हैं। जनता की नब्ज़ जानते हैं। जनता से सीधे संवाद करते हैं इसलिए जनता उन्हें पसंद करती है। एक के बाद एक ताबड़तोड़ फैसलों के बाद 2019 में इनकी जीत भी सुनिश्चित होती दिख रही है।
-मनोज कश्यप
(लेखक दलित विचारक हैं)
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सोशल मीडिया : ऑनलाइन और ऑफलाइन जनता में अंतर समझें राजनैतिक दल
देश में जब भी कोई बड़ा राजनैतिक परिदृश्य उभरता है तो सोशल मीडिया उस से पट जाता है। 2013-14 में भाजपा और आप ने सोशल मीडिया का ज़बरदस्त इस्तेमाल करके अपनी सरकारें बना ली थीं। शहरी क्षेत्रों में तो सोशल मीडिया एक बड़ा हथियार हो सकता है किन्तु देश की बड़ी जनता ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। क्या हमने कभी गौर किया है कि आज के ऑनलाइन और ऑफलाइन ज़माने में एक ऑफलाइन वाला बड़ा हिस्सा छूटते जा रहा है और ऑनलाइन वाला हिस्सा अब फायदा उठाने लगा है। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ऐसी क्या मजबूरी हो गयी है कि व्यवस्था के 30 करोड़ लोग बाकी के 100 करोड़ लोगों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। आज करीब 2 करोड़ ट्विटर पर, 20 करोड़ फेसबुक पर और 7 करोड़ इंस्टाग्राम पर भारतीय लोग हैं। ये वहां हैं जहां पर सबकी नजऱ है। पूरे विश्व में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किये जानी वाली सोशल मीडिया (इसे वैश्विक मीडिया भी कह सकते हैं) को वर्तमान सरकार ने डिजिटल मीडिया के बढ़ावे के चक्कर में एक ऐसा दो-धारी तलवार बना लिया है कि जिसे अगर जल्द विनियमित नहीं किया गया तो आगे ये दो-धारी तलवार एक ऐसा हथियार बन जायेगा जो कभी भी किसी भी वक्त समाज में असंतुलन बना सकता है। ऑनलाइन मीडिया में अराजकता की स्थिति भी लगभग आ चुकी है। 130 करोड़ में से 12. 5 करोड़ लोगों को अंग्रेजी आती है। फेसबुक और ट्विटर मिलाकर 20 करोड़ लोग हैं तो आधे तो यहीं उड़ गए। बाकी बचे 10 करोड़ में, इनमें से 90 प्रतिशत की बातें कोई मायने नहीं रखती जब तक कि उसी बात को कुछ हज़ार लोग कहे या समर्थन न दे। आम जनता के तो इन प्लेटफॉर्म पर कुछ हज़ार मित्र भी सूची नहीं होते। ये वो लोग हैं जो रोज़ कोई न कोई विषय उठाते हैं और उन विषयों पर प्राइवेट समाचार एजेंसी खबर चलाती है। प्राइवेट मीडिया समाचार बताने हेतु नहीं बल्कि बनाने हेतु लायी गयी थी। ज्यादातर वही करती है। इस सोशल मीडिया के ज़माने में इनके आईटी सेल वाले और दूसरी छोटी एजेन्सियां टुकड़ों- टुकड़ों में ऐसे विषय फैलाते हैं जैसे की वही असली विषय है। यह धीरे -धीरे एक ऑनलाइन सिंडिकेट जैसा बनता जा रहा है जो किसी के नियंत्रण में भी नहीं। यह विषय कभी भी किसी भी दल के पक्ष में चला जाता है। इन सब के बीच साधारण जनता की उठाई गई आवाज़ कहीं खो जाती है जो ऑनलाइन नहीं हैं। उनका कोई मतलब नहीं बस वोट करने का अधिकार रह गया है। बड़ी राजनितिक दल हो या बड़ा बिजऩेस टाइकून, फिल्मकार हो या पत्रकार सब इस सिंडिकेट का हिस्सा बन चुके हैं। कुछ जाने में तो कुछ अनजाने में।
ब्रांडिंग मतलब होता है दिखाना-प्रचार करना। सोशल मीडिया पर इसकी ऐसी होड़ लगी कि वास्तविकता से इसका कोई सरोकार ही नहीं रह गया। मिसाल के तौर पर पूर्वोत्तर राज्य के मु यमंत्री ने बाढ़ के समय ट्विटर पर लिख दिया की अपने इस क्षेत्रवासियों को भरोसा दिला दूं हम हर संभव प्रयास कर आपको हर सुविधा उपलब्ध कराएंगे। तो किसी आम जनता ने जवाब दिया मंत्री जी इस क्षेत्रवासी में से किसी को अंग्रेजी नहीं आती। जिन्हें आती है वो बाढ़-पीडि़त इलाके में नहीं रहते और न ही यहां कोई ऐसा है कि जो ट्विटर इस्तेमाल करता हो। यह तो एक गांव है। आप अगर ट्वीट करने के बजाय वास्तविक में कुछ मदद करना चाहते हैं तो इस पर संपर्क करें। मंत्री जी की विपक्ष द्वारा खूब जग हसाई हुई और उन्होंने उस ट्वीट को हटा दिया। पर ऐसी गलती आये दिन लगभग हर मंत्री करते हैं। इसी प्रकार एक फज़ऱ्ी कहानी का ट्वीट हुआ कि सुषमा जी ने घर जाकर एक जोड़ी का पासपोर्ट बनवा दिया। बाद में त तीश करने पर पता चला की उनके कागज़ ही पूरे नहीं थे तो महिला ने तरकीब लगायी और काम हो गया। एक पक्ष की गलत बुनियादी बात पर किसी ने चर्चा नहीं की। अब ऐसी घटना की सं या कल सौ गुना हज़ार गुना बढ़ेगी तो ऐसी अराजकता फैलेगी कि दूसरे मुल्क को हमें बर्बाद करने के लिए कुछ नहीं करना होगा या फिर ये होगा कि ये हथियार भी जनता के लिए किसी काम का नहीं रहेगा। यहां सिंडिकेट का दबाव महत्वपूर्ण होता जा रहा है और जनसं या का असर कम वरना 2 करोड़ की भीड़ वाली ट्विटर का महत्व 20 करोड़ की भीड़ वाली फेसबुक से ज्यादा क्यों होता। सिर्फ आम जनता की सामूहिक विचार सं या के बल पर होता तो अभी तक स्वर्गीय राजीव दीक्षित जी के विचारों पर चर्चा होती जिनको सुनने वाले आज की तारीख में करोड़ों की सं या में हैं।
अब समय आ गया है कि सरकार विदेशी सोशल मीडिया के इस्तेमाल को विनियमित करे। जहां जरुरी है वहीं सारे सरकारी कार्यक्रम की जानकारी और सेवा के लिए एक स्वदेशी मंच भी होना चाहिए, जो क्षेत्रीय भाषा से भी संचालित हो सके केवल अंग्रेजी पर या स्मार्ट-फ़ोन पर निर्भरता न हो। हमारे अंग्रेजी चैनल में बैठे अति बुद्धिजीवी सिर्फ नक़ल को ही सफल मानते हैं। वह भारत को भारतीयता के आधार पर नहीं बल्कि पश्चिमी आधार के समाधान देने में लग जाते हैं। वह बुनियादी बातें नजऱअंदाज़ कर जाते हैं। चूंकि जनता के पास अपनी बात रखने का साधन नहीं तो वह इसका इस्तेमाल करते हैं। बड़े से बड़ा प्राइवेट चैनल हिंदी हो या अंग्रेजी, वो अपने स्क्रीन में ये दिखाने लगे हैं कि उनके द्वारा उठाया गया विषय इतना महत्वपूर्ण है कि इतने हज़ार या सैकड़ों लोगों ने इस विषय पर ट्वीट किया। अपनी राय दी। यह आंकलन बुनियादी तौर पर गलत है क्योंकि सिर्फ सोशल मीडिया से देश नहीं चलता है।
– मनीष मिश्र
(लेखक आईटी कंपनी में उच्चाधिकारी हैं। )
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आर्थिक आधार पर आरक्षण, असंवैधानिक या संवैधानिक?
सबसे पहले आरक्षण के आधार के संवैधानिक प्रावधान को समझते हैं। संविधान में इस बात का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि अनुसूचित, पिछड़ा या जनजाति में जातियों के वर्गीकरण का आधार क्या है। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति, संबन्धित प्रदेश के राज्यपाल से परामर्श के बाद ऐसी सूची तैयार करता है। इसके साथ ही संविधान में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और राज्यों में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के बारे में प्रतिवेदन देने के लिए एक आयोग का प्रावधान अवश्य दिया गया है। इसके साथ ही संविधान के अनु.-164 के अनुसार छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश एवं उड़ीसा में जनजातियों के कल्याण का एक मंत्री होना आवश्यक है। कोई स्पष्ट प्रावधान न होने के कारण आरक्षण पाने के लिए आंदोलन, प्रदर्शन आदि समय समय पर होते रहते हैं। पात्रता का मापदंड स्पष्ट न होने के कारण अराजकता बढ़ती चली जा रही है। आर्थिक आधार पर आरक्षण के संविधान संशोधन के बाद यह बहस सबसे ज़्यादा चल रही है कि यह आरक्षण संवैधानिक है या असंवैधानिक है। विभिन्न बुद्धिजीवियों द्वारा भिन्न भिन्न तर्क दिये जा रहे हैं। इन लोगों के तर्क कुछ यूं हैं। पहला, नरसिंह राव के समय आर्थिक आधार पर आरक्षण दिये जाने को उच्चतम न्यायालय ने असंवैधानिक बताया था। दूसरा, इन्दिरा साहनी वाद (1992) में उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय की थी इसलिए आर्थिक आधार पर आरक्षण असंवैधानिक है। तीसरा, संविधान में अनु.-15(4) के अनुसार सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े तबकों को ही आरक्षण का प्रावधान है। अब इन सिलसिलेवार इन प्रश्नों के उत्तर तलाशते हैं।
नरसिंह राव के समय आर्थिक आधार पर आरक्षण के लिए सिर्फ कार्यालयी प्रावधान किया गया था। एक सरकारी ज्ञापन के जरिये आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत का आरक्षण उस समय दिया गया था, जब यह मामला न्यायालय पहुंचा था तब उच्चतम न्यायालय ने इसे असंवैधानिक माना था क्योंकि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का तब कोई प्रावधान ही नहीं था। अब जब वर्तमान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया है तब संविधान में संशोधन करके उसको संविधान का ही एक भाग बना दिया गया है। वर्तमान में संविधान में अनु.-15(6) एवं 16(6) को जोड़ा गया है इसलिए इसके असंवैधानिक होने का प्रश्न ही खत्म हो जाता है। आर्थिक आधार पर आरक्षण विरोधियों का दूसरा तर्क इन्दिरा साहनी वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा 50 प्रतिशत की सीमा को लेकर है। उच्चतम न्यायालय ने यह सीमा एससीएसटी एवं ओबीसी वर्गों के लिए निर्धारित की थीं। चूंकि पूर्व में आरक्षित जातियों एवं उसके किसी प्रावधान पर आर्थिक आधार पर आरक्षण कोई प्रभाव नहीं डाल रहा है इसलिए यह तर्क भी खत्म हो जाता है। आरक्षण विरोधियों का तीसरा तर्क अनु.-15(4) को लेकर है जिसके अनुसार सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर आरक्षण दिया जा सकता है। चूंकि अब संविधान में संशोधन करके 15(6) को जोड़ा जा चुका है इसलिए यह तर्क भी हवा हो जाता है। इस पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाकर संविधान और उसमें हुये संशोधनों को भी समझना होगा। अनु.-15(4) का जि़क्र करने वालों को यह भी समझना होगा कि अनु.-15(4) संविधान में प्रार भ से नहीं था। 1951 में चंपकम बनाम मद्रास राज्य के वाद में आए फैसले को पलटने के लिए इसे जोड़ा गया था। उस दौरान जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री एवं भीमराव अंबेडकर कानून मंत्री थे। सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ों को आरक्षण का प्रावधान संविधान में बाद में संशोधन करके जोड़ा गया था। अब जब 1951 में संशोधन करके 15(4) में सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ों को आरक्षण दिया जा सकता है तो 2019 में एक और संशोधन करके आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के प्रावधान 15(6) का विरोध क्यों किया जा रहा है। अगर 1951 का संशोधन असंवैधानिक नहीं था तो 2019 का संशोधन भी असंवैधानिक नहीं है। इन सबके बीच एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि न्यायालय के किसी भी निर्णय को संसद के माध्यम से कानून बनाकर पलटने का अधिकार सरकार के पास मौजूद रहता है। एससीएसटी एक्ट में भी सरकार ने न्यायालय के निर्णय को पलटते हुये कानून बनाया था। पूर्व में शाहबानो केस में सरकार ने उच्चतम न्यायालय को पलट दिया था।
आर्थिक आधार पर आरक्षण विरोधियों का एक तर्क यह भी है कि इस तरह का आरक्षण संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। चूंकि आर्थिक रूप से पिछड़े को तय करने की जि़ मेदारी राज्य सरकारों पर होती है इसलिए इस पर भी सवाल उठते रहते हैं। संविधान के मूल ढांचे को न्यायालय ने केशवानन्द भारती(1973) मामले में स्पष्ट किया था। इस निर्णय में न्यायालय ने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय को संविधान का मूल ढांचा माना है। चूंकि इस वाद में स्वयं न्यायालय ने आर्थिक न्याय को संविधान की मूल भावना से जोड़ा है तो आर्थिक आधार पर आरक्षण असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता है।
-अमित त्यागी
(लेखक विधि विशेषज्ञ एवं स्तंभकार हैं।)
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मुगलों और अंग्रेजों ने फैलाया जाति
आधारित व्यवस्था का मिथक
ब्राह्मण क्षत्रिय विन्ष शूद्राणच परतप:,
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवे गुणि:।। (गीता।।18-141)
चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:,
तस्य कर्तारमपि मां विद्वाकर्तामव्ययम्।। (गीता ।।4-13।। )
इसका तात्पर्य है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य का विभाजन व्यक्ति के कर्म और गुणों के अनुसार होता है, न कि जन्म के आधार पर। इससे सिद्ध होता है कि हमारे वेदों में भगवान श्रीकृष्ण की वाणी गीता में कहीं भी जाति व्यवस्था को समर्थन नहीं है। किन्तु जब से भारत की राजनीति में पहले मुगलों और बाद में अंग्रेजों का आधिपत्य हुआ उसके बाद से ही भारत में जाति और धर्म के नाम फूट डालकर रागद्वेष पैदा कर राज करने की नीति चली आ रही है जो गोरे अंग्रेजों से आज के काले अंग्रेजों ने हूबहू विरासत में ले रखी है। अब आरक्षण का दंश भारत की सामाजिक व्यवस्था में आग में घी का काम कर रहा है। नेताओं और पार्टियों के लिये वरदान साबित हो रहा है। आर्थिक आधार पर आरक्षण का कानून पास होते ही देश में जाति की बहस फिर से तेज़ हो गयी है किन्तु हमारे देश की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था जाति आधारित थी ही नहीं। बल्कि कर्म के वरण पर आधारित थी। जिसको वर्ण व्यवस्था कहा जाता है। जो जैसा कर्म का वरण करेगा वही उसका वर्ण हो जाएगा। बुद्धि में तेज, वेदों का ज्ञाता और ईश्वरीय मार्ग को वरण करने वाले बालक को गुरुकुल के गुरु ब्राह्मण वर्ण निर्धारित करते थे। जो शक्तिशाली और निर्भय होते थे वो क्षत्रिय बनते थे। इसी प्रकार एक ब्राह्मण के घर शूद्र और शूद्र के घर ब्राह्मण कर्म वाला बालक पैदा हो सकता था परंतु धीरे धीरे स्वार्थ के कारण यह परंपरा लोप हो गई।
-अशित पाठक