श्रीरामकथा में विश्वामित्रजी के जीवनचक्र को जानना अत्यन्त आवश्यक है। वाल्मीकि रामायण ही नहीं प्राय: सभी श्रीरामकथाओं में उनका अपना एक विशेष स्थान है। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड में उनके चरित्र का वर्णन शतानन्दजी के द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण को जनकपुर पहुँचने पर सुनाया गया। यह वृत्तांत लगभग पन्द्रह सर्गों में वर्णित हैं। विश्वामित्रजी का जीवन वृत्तांत शतानंदजी ने बहुत विस्तारपूर्वक श्रीराम से कहा है। अधिकांश पाठक इस रामायण की भाषा संस्कृत होने से कठिन समझकर इसका अध्ययन करने से वंचित हो जाते हैं। अत: ऐसे सुधी पाठकों एवं युवा पीढ़ी महर्षि विश्वामित्र ही नहीं उनके साथ-साथ ब्रह्मर्षि वसिष्ठजी के बारे में जान सकेंगे यह विचार कर प्रस्तुत प्रसंग का रोचकतापूर्ण वर्णन किया जा रहा है।
महर्षि विश्वामित्र उनके सिद्धाश्रम से राक्षसों के वध उपरान्त तथा अहल्या उद्धार श्रीराम से करवाकर महाराज जनकजी के यहाँ उन्हें उनकी नगरी में महान धनुष के सम्बन्ध में जानने की इच्छा से लेकर गए थे। वहाँ उनकी भेंट गौतम ऋषि के ज्येष्ठ पुत्र शतानन्दजी से हुई जो कि महाराज जनक के राजपुरोहित राजगुरु (कुलगुरु) थे। शतानन्दजी ने विश्वामित्रजी से अपनी माता-पिता (अहल्या-गौतम) का सारा वृत्तांत सुना। तदनन्तर शतानंदजी ने श्रीराम से कहा- नरश्रेष्ठ! आपका स्वागत है। रघुनन्दन! मेरा अहोभाग्य है जो कि किसी से भी पराजित न होने वाले महर्षि विश्वामित्रजी को आगे कर यहाँ तक पधारने का कष्ट किया।
महर्षि विश्वामित्र के कर्म अचिन्त्य हैं। वे तपस्या से ब्रह्मर्षिपद को प्राप्त हुए हैं। मैं इनको जानता हूँ। श्रीराम! इस पृथ्वी पर इनसे बढ़कर धन्यातिधन्य पुरुष दूसरा कोई नहीं है क्योंकि इन्होंने कठोर तपस्या की है। शतानंदजी ने विश्वामित्रजी के यथार्थ स्वरूप का वर्णन करना आरम्भ किया। विश्वामित्र पूर्व में एक धर्मात्मा राजा थे। इन्होंने शत्रुओं पर दमनपूर्वक दीर्घकाल तक राज्य किया था। ये धर्मज्ञ और विद्वान होने के साथ ही साथ प्रजा के हित साधन में सदैव तत्पर रहते थे।
प्राचीनकाल में कुश नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गए हैं। वे प्रजापति के पुत्र थे। कुश के एक बलवान पुत्र कुशनाभ थे। कुशनाभ के एक पुत्र गाधि नाम से विख्यात थे। उन्हीं गाधि के महातेजस्वी पुत्र ये महामुनि विश्वामित्र हैं। महाराजा विश्वामित्र ने कई हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन करते हुए राज्य का शासन किया। एक समय की बात है कि राजा विश्वामित्र एक अक्षौहिणी सेना लेकर पृथ्वी पर विचरने लगे। वे अनेकानेक नगरों, राष्ट्रों, नदियों, बड़े-बड़े पर्वतों और आश्रमों में क्रमश: विचरते हुए महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर आ पहुँचे। तपस्या से सिद्ध तथा अग्रि के समान तेजस्वी, महात्मा तथा ब्रह्माजी के समान महामहिम महात्मा सदैव उस आश्रम में निवासरत रहते थे। उन महात्माओं में कोई सिर्फ जल पीकर तो कोई हवा पीकर, कोई फल-फूल खाकर अथवा सूखे पत्ते चबाकर रहते थे। इन सब एवं अनेक विशेषताओं के कारण महर्षि वसिष्ठजी का आश्रम दूसरे ‘ब्रह्मलोकÓ के समान जान पड़ता था। विश्वामित्र ने उनके दर्शन किए। वसिष्ठजी का दर्शन करके महाबली वीर विश्वामित्र बड़े प्रसन्न हुए और विनयपूर्वक उन्होंने उनके चरणों में प्रणाम किया। तब महर्षि वशिष्ठजी ने कहा- राजन! तुम्हारा स्वागत है। ऐसा कहकर वसिष्ठजी ने उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। जब विश्वामित्र आसन पर विराजमान हुए तब मुनिवर वसिष्ठ ने उन्हें विधिपूर्वक फल-फूल का उपहार अर्पित किया।
रघुनन्दन! वार्तालाप करने के पश्चात वसिष्ठजी ने विश्वामित्र से हँसते हुए इस प्रकार कहा-
आतिथ्य कर्तुमिच्छामि बलस्यास्य महाबल।
तव चैवाप्रमेयस्य यथार्ह सम्प्रतीच्छ मे।।
वाल्मीकिरामायण बालकाण्ड सर्ग ५२-१३
महाबली नरेश! तुम्हारा प्रभाव असीम है। मैं तुम्हारा और तुम्हारी इस सेना का यथायोग्य आतिथ्य-सत्कार करना चाहता हूँ। तुम मेरे इस अनुरोध को स्वीकार करो। वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर राजा विश्वामित्र ने कहा- मुने! आपके सत्कारपूर्ण वचनों से ही मेरा पूर्ण सत्कार हो गया है। राजा विश्वामित्र ने उन्हें ऐसा करने से रोका किन्तु तब अन्त में राजा ने उनके निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया।
राजा विश्वामित्र के द्वारा निमन्त्रण स्वीकार करने पर वसिष्ठजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपनी चितकबरी होम-धेनु को बुलाया (वह कामधेनु थी) उसे बुलाकर वसिष्ठजी ने कहा- शबले! शीघ्र आओ और मेरी बात सुनो- मैंने एक अक्षौहिणी सेना सहित राजर्षि विश्वामित्र आदि को योग्य उत्तम भोजन द्वारा आतिथ्य सत्कार करने का उन्हें निमन्त्रण दे दिया है। अत: तुम मेरे इस मनोरथ को सफल करो।
शत्रुसूदन (राम)! महर्षि वसिष्ठ के ऐसा कहने पर चितकबरे रंग की उस कामधेनु ने जिसकी जैसी इच्छा थी, उसके लिए वैसी सामग्री जुटा दी। ईख, मधु, लावा, मैंरेय, श्रेष्ठ आसव, पानक रस आदि नाना प्रकार के बहुमूल्य भक्ष्य पदार्थ प्रस्तुत कर दिए। गरम गरम भात के पर्वत सदृश ढेर लग गए। मिष्ठान्न (खीर) और दाल भी तैयार हो गई। दूध, दही और घी की मानो नहरें बह निकली। नाना प्रकार के भोजनों से भरी हुई चाँदी की सहस्रों थालियां सज गईं। श्रीराम! महर्षि वसिष्ठ ने विश्वामित्र की सारी सेना के लोगों को तृप्त कर दिया। विश्वामित्र ने वसिष्ठजी से कहा- ब्रह्मन! अब मैं एक बात कहता हूँ उसे सुनिए।
गवां शतसहस्त्र दीयतां शबला मम।
रत्नं हि भगवन्नेत्द रत्नहारी च पार्थिव:।।
तस्मान्मे शबलां देहि ममैषा धर्मते द्विज।
वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग ५३-९-१/१
भगवन्! आप मुझसे एक लाख गौएँ लेकर यह चितकबरी गाय मुझे दे दीजिए क्योंकि यह गौ रत्न रूप हैं और रत्न लेने का अधिकारी राजा होता है। ब्रह्मन्! मेरे इस कथन पर ध्यान देकर मुझे यह शबला गौ दे दीजिए, क्योंकि यह धर्मत: मेरी ही वस्तु है।
तब वसिष्ठजी ने विश्वामित्र के ऐसा कहने पर उनको उत्तर देते हुए कहा- शत्रुओं का दमन करने वाले नरेश्वर! मैं एक लाख या सौ करोड़ अथवा चाँदी के ढेर लेकर भी बदले में इस शबला गौ को नहीं दूँगा। यह मेरे पास से अलग होने योग्य नहीं है। मेरा हव्य-कव्य और जीवन-निर्वाह इसी पर निर्भर है। राजर्षे! मेरा सब कुछ जीवन गौ के अधीन है। राजन्! बहुत से ऐसे कारण हैं जिनसे बाध्य होकर मैं यह शबला गौ आपको नहीं दे सकता। वशिष्ठजी के ऐसा कहने पर अत्यन्त क्रोधपूर्वक विश्वामित्र उनसे इस प्रकार बोले- मुने! मैं आपको चौदह हजार ऐसे हाथी दे रहा हूँ, जिनके कसने वाले रस्से, गले के आभूषण और अंकुश भी सोने के बने होंगे और उन सबसे वे हाथी विभूषित होंगे। इसके अतिरिक्त मैं आठ सौ सुवर्ण रथ प्रदान करूँगा, जिसमें शोभा के लिए सोने के घुंघरू लगे होंगे और हर एक रथ में चार-चार सफेद रंग के घोड़े जुते हुए होने तथा अच्छी जाति और उत्तम देश में उत्पन्न महातेजस्वी ग्यारह हजार घोड़े भी आपकी सेवा में अर्पित करूँगा, इतना ही नहीं, नाना प्रकार के रंग वाली नई अवस्था की एक करोड़ गौएँ भी दूँगा। परन्तु यह शबला गौ मुझे दे दीजिए। इनके अतिरिक्त भी आप जितने रत्न या सुवर्ण लेना चाहे, वह सब आपको देने के लिए तैयार हूँ किन्तु यह चितकबरी गाय मुझे दे दीजिए। वसिष्ठजी ने राजा विश्वामित्र से कहा कि- राजन् मैं यह चितकबरी गाय तुम्हें किसी भी तरह नहीं दूँगा। यही मेरा रत्न है, यह मेरा धन है, यही मेरा सर्वस्व है और यही मेरा जीवन है। मैं इस कामधेनु को कदापि नहीं दूँगा।
श्रीराम! जब वसिष्ठ मुनि किसी तरह उस कामधेनु गौ को देने को तैयार नहीं हुए तब राजा विश्वामित्र उस चितकबरी रंग की धेनु को बलपूर्वक घसीट ले गए। वह गौ शोकाकुल हो मन ही मन रो पड़ी तथा अत्यन्त दु:खित होकर विचार करने लगी क्या मुझे वसिष्ठजी ने त्याग दिया है। मैंने पवित्र अन्त:करण वाले महर्षि का क्या अपराध कर दिया है? तब गौ ने राजा के सैकड़ों सेवकों को झटककर महर्षि वसिष्ठ के पास जा पहुँची। गौ रोती-चीत्कारती हुई उनसे इस प्रकार बोली-
भगवन किं परित्यक्ता त्वयाहं ब्रह्मण: सुत।
यस्माद् राजभटा मां हि नयन्ते त्वत्सकाशत:।।
वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग ५४-८
भगवन् ब्रह्मकुमार! क्या आपने मुझे त्याग दिया, जो ये राजा के सैनिक मुझे आपके पास से दूर लिए जा रहे हैं।
उसके ऐसा कहने पर वसिष्ठजी शोक से संतप्त हृदयवाली दु:खिदा, बहिन के समान उस गौ से कहा कि, शबले! मैं तुम्हारा त्याग नहीं कर रहा हूँ और तुमने मेरा कोई अपराध नहीं किया है। ये महाकाली राजा अपने बल से मतवाले होकर तुमको मुझसे छीनकर ले जा रहे हैं। मेरी शक्ति इनके समान नहीं है। ये राजा है, ‘क्षत्रियÓ तथा इस पृथ्वी के स्वामी और शक्तिशाली हैं। इनके पास सेना है। बात के मर्म को समझने वाली कामधेनु ने वसिष्ठजी से कहा- आपका बल अप्रमेय है। पराक्रमी विश्वामित्र आपसे अधिक बलवान नहीं है। अब आप केवल मुझे आज्ञा दीजिए। मैं इस दुरात्मा राजा के बल, प्रयत्न और अभिमान को अभी चूर्ण किए देती हूँ। श्रीराम! कामधेनु के ऐसा कहने पर महायशस्वी वसिष्ठजी ने कहा- इस शत्रु की सेना को नष्ट करने वाले सैनिकों की सृष्टि करो। गौ के हुंकार करते ही सैकड़ों पहलव जाति के वीर पैदा हो गए। उन सब वीरों ने विश्वामित्र को पैदल, हाथी, घोड़े और रथ सहित सारी सेना का तत्काल संहार कर दिया। सेना का संहार देखकर विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यंत क्रोध में भरकर अस्त्र-शस्त्र लेकर वसिष्ठजी पर टूट पड़े। तब उन महर्षि की हुंकार मात्र से ही सब जलकर भस्म हो गए। विश्वामित्र ये सब देखकर मन ही मन बहुत खिन्न हो गए।
उनके एक बचे हुए पुत्र को राजा के पद पर अभिषिक्त करके राज्य की रक्षा हेतु नियुक्त कर वे महादेवजी की प्रसन्नता के लिए तप करने वन में चले गए। कुछ काल के पश्चात् महादेवजी ने उन्हें दर्शन दिया तथा तप करने का कारण पूछा। तब विश्वामित्र ने कहा- निष्पाप महादेव! यदि आप सन्तुष्ट हो तो अंग, उपांग, उपनिषद् और रहस्यों सहित धनुर्वेद मुझे प्रदान कीजिए। अनघ! देवताओं, दानवों, महर्षियों, गन्धर्वों, यक्षों तथा राक्षसों के पास जो-जो अस्त्र हों वे सब आपकी कृपा से मेरे हृदय में स्फुरित हो जाएं। यह सब सुनकर ‘एवमस्तुÓ कहकर भगवान् शंकर वहाँ से वर देकर चले गए। विश्वामित्र अस्त्र पाकर अभिमान से भर गए तथा उन्हें घमण्ड हो गया।
विश्वामित्र फिर वसिष्ठजी के आश्रम पहुँच गए तथा उन पर भाँति-भाँति के अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। इससे वसिष्ठजी के आश्रम के पशु-पक्षी, शिष्य भयभीत होकर भाग गए। उनका आश्रम सूना हो गया। वसिष्ठजी बार-बार कहने लगे डरो मत मैं अभी इस गाधिपुत्र को नष्ट किए देता हूँ। ठीक उसी तरह जैसे सूर्य कुहासे को मिटा देता है। दोनों ओर से अस्त्र चले गाधिपुत्र का आग्रेय अस्त्र वसिष्ठजी के ब्रह्मदण्ड से उसी प्रकार शान्त हो गया जैसे पानी पड़ने से जलती हुई आग का वेग। विश्वामित्र बोले- क्षत्रिय के बल को धिक्कार है ‘ब्रह्मतेजÓ से प्राप्त होने वाला बल ही वास्तव में बल है क्योंकि आज एक ब्रह्मदण्ड ने मेरे सभी अस्त्र नष्ट कर दिए। इस घटना को देखकर विश्वामित्र ने निश्चय किया कि अब वे अपने मन और इन्द्रियों को निर्मल करके उस महान तप का अनुष्ठान करेंगे, जिससे ब्राह्मणत्व की प्राप्ति का कारण होगा।
महात्मा वसिष्ठजी के साथ वैर रखकर महातपस्वी विश्वामित्र बारम्बार लम्बी साँस खींचते हुए अपनी रानी के साथ दक्षिण दिशा में जाकर कठोर तपस्या करने लग गए। वहीं उनके हविष्पन्द, मधुष्पन्द, दृढ़नेत्र और महारथ नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए जो सत्य और धर्म में तत्पर रहने वाले थे। एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर ब्रह्माजी ने कहा- तुमने तपस्या के द्वारा राजर्षियों के लोकों पर विजय पाई है। इस तपस्या के प्रभाव से मैं तुम्हें सच्चा राजर्षि समझता हूँ तथा ब्रह्मलोक चले गए। विश्वामित्र को इससे बड़ा दु:ख हुआ। अहो मैंने इतना कठोर तप किया फिर भी ऋषियों सहित सम्पूर्ण देवतागण उन्हें राजर्षि ही कहेंगे। ऐसा विचार कर वे पुन: भारी तपस्या में लग गए।
इसी समय इक्ष्वाकुवंश में एक सत्यवादी और जितेन्द्रिय राजा राज्य करते थे। वे ऐसा यज्ञ करने का विचार कर रहे थे कि जिससे वे सशरीर स्वर्गलोक पहुँच सके। वसिष्ठजी ने राजा को ऐसा होना असम्भव बताया। तब वह राजा दक्षिण दिशा में वसिष्ठजी के सौ पुत्र जो तपस्या में संलग्र थे उनसे ऐसा यज्ञ करवाने का कहा तथा उनके पिता ने ऐसा यज्ञ सम्पन्न कराने में उसे असम्भव कहा। राजा त्रिशंकु से उन्होंने कहा- नरश्रेष्ठ! तुम अभी नादान हो, अपने नगर को लौट जाओ। भगवान वसिष्ठ तीनों लोकों का यज्ञ कराने में समर्थ हैं हम लोग उनका अपमान कैसे कर सकेंगे? राजा ने उनसे कहा कि आपका कल्याण हो अब मैं दूसरे अन्य किसी की शरण में जाऊँगा। त्रिशंकु के यह वचन सुनकर महर्षि पुत्रों ने अत्यन्त क्रोध में आकर उन्हें शाप दे दिया। अरे! जा तू चाण्डाल हो जाएगा। ऐसा कहकर वे महर्षि के पुत्र अपने आश्रम में चले गए। महर्षि के पुत्रों के शाप से त्रिशंकु चाण्डाल हो गया। उनका शरीर नीला पड़ गया। सारे शरीर में चिता की राख लिपट गई। शरीर के अंगों में यथास्थान लोहे के गहने पड़ गए।
वह वहाँ से तपोधन विश्वामित्रजी की शरण में गए। त्रिशंकु को देखकर विश्वामित्र उनसे बोले- वीर अयोध्या नरेश जान पड़ता है कि तुम शाप से चाण्डाल भाव को प्राप्त हुए हो। विश्वामित्र की बात सुनकर त्रिशंकु ने हाथ जोड़ कर कहा महर्षि! मुझे गुरु (वसिष्ठजी) तथा गुरु पुत्रों ने मेरी इच्छा को ठुकरा दिया है। हे मुनीश्वर! मैं चाहता था कि इसी शरीर से स्वर्ग को जाऊँ परन्तु मेरी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। अब मैं आपके अतिरिक्त दूसरे किसी की शरण में नहीं जाऊँगा। अब कोई दूसरा शरण देने वाला है भी नहीं। आप ही अपने पुरुषार्थ से मेरे दुर्देव को पलट सकते हैं। विश्वामित्र ने त्रिशंकु से कहा डरो मत मैं तुम्हें शरण दूँगा। विश्वामित्र ने उससे कहा कि निश्चित रूप से सशरीर स्वर्ग जाओगे। इतना कहकर विश्वामित्र ने अपने पुत्रों को यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने की आज्ञा दी। उन्होंने तत्पश्चात् अपने समस्त शिष्यों को बुलाकर कहा कि तुम वसिष्ठके पुत्रों को भी यहाँ निमंत्रण देना। विश्वामित्र के शिष्य चारों दिशा में गए किन्तु ‘महोदयÓ नामक ऋषि तथा वसिष्ठ पुत्रों को छोड़कर उनके यहाँ चल पड़े। मुनिश्रेष्ठ! वसिष्ठ के जो सौ पुत्र हैं उन सबने क्रोधभरी वाणी में जो कुछ कहा है वह सब आप सुनिए। वे कहते हैं- जो विशेषत: चाण्डाल है और जिसका यज्ञ कराने वाला आचार्य क्षत्रिय है उसके यज्ञ में देवर्षि अथवा महात्मा ब्राह्मण हविष्य का भोजन कैसे कर सकते हैं? अथवा चाण्डाल का अन्न खाकर विश्वामित्र से पालित हुए ब्राह्मण स्वर्ग कैसे जा सकते हैं?
मैं उग्र तपस्या में लगा हूँ और दोष या दुर्भावना से रहित हूँ तो भी जो मुझ पर दोषारोपण करते हैं वे दुरात्मा भस्मीभूत हो जाएंगे, इसमें संशय नहीं है। आज कालपाश से बँधकर वे यमलोक में पहुँचा दिए गए। अब ये सात सौ जन्मों तक मुर्दों की रखवाली करने वाले, निश्चित रूप से कुत्ते का माँस खाने वाली मुष्टिक नामक प्रसिद्ध निर्दय चाण्डाल-जाति में जन्म ग्रहण करें। ऋषियों के मध्य ऐसा कहकर विश्वामित्र चुप हो गए। शतानन्दजी ने श्रीराम से कहा- महोदय ऋषि सहित वसिष्ठ पुत्रों को अपने तपोबल से नष्ट करने के पश्चात् विश्वामित्र ने ऋषियों से त्रिशंकु के लिए सशरीर देवलोक पर अधिकार प्राप्त करने की बात कही। ऋषि जानते थे कि विश्वामित्र बड़े क्रोधी है अत: इनकी बात का पालन करना उचित है। महातपस्वी विश्वामित्र ने अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिए सम्पूर्ण देवताओं का आवाहन किया किन्तु उस समय वहाँ भाग लेने के लिए सब देवता नहीं आए। विश्वामित्र को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने स्रुवा उठाकर रोष के साथ त्रिशंकु से कहा नरेश्वर! अब तुम मेरे द्वारा उपार्जित तपस्या के बल को देखो। मैं अभी अपनी शक्ति से सशरीर तुम्हें स्वर्गलोक पहुँचाता हूँ।
स्वार्जित किंचिदप्यस्ति मया हि तपस: फलम्।।
राजंस्त्वं तेजसा तस्य सशरीरो दिवं व्रज।
उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन सशरीरो नरेश्वर:।।
दिवं जगाम काकुत्स्थ मुनीनां पश्यतां तदा।
वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग ६०-१४-१/२, १५-१/२
नरेश्वर! यदि मैंने तपस्या का कुछ भी फल प्राप्त किया है तो उसके प्रभाव से तुम सशरीर स्वर्गलोक जाओ। श्रीराम! विश्वामित्र मुनि के इतना कहते ही राजा त्रिशंकु सब मुनियों के देखते-देखते उस समय अपने शरीर के साथ स्वर्गलोक को चले गए।
यह देखकर इन्द्र ने कहा- मूर्ख त्रिशंकु! तू फिर यहाँ से लौट जा तेरे लिए स्वर्ग में स्थान नहीं है। तू गुरु के शाप से नष्ट हो चुका है, अत: नीचे मुँह किए पुन: पृथ्वी पर गिर जा। इन्द्र के इतना कहते ही राजा त्रिशंकु विश्वामित्र को पुकारकर। त्राहि-त्राहि की रट लगाते हुए पुन: स्वर्ग से नीचे गिरे। चीखते-चिल्लाते हुए त्रिशंकु की वह करुण पुकार सुनकर विश्वामित्र को बड़ा क्रोध आ गया। वे त्रिशंकु की वह करुण पुकार सुनकर विश्वामित्र को बड़ा क्रोध आ गया। वे त्रिशंकु से बोले राजन! वहीं ठहर जा, वहीं ठहर जा। उनके ऐसा कहने पर त्रिशंकु बीच में ही लटके रह गए। तब वे महायशस्वी मुनि क्रोध से कलुषित होकर दक्षिण दिशा में ऋषि मण्डल के बीच नूतन नक्षत्र मालाओं की सृष्टि करके यह विचार करने लगे कि वे दूसरे इन्द्र की सृष्टि करेंगे अथवा उनके द्वारा रचित स्वर्गलोक बिना इन्द्र के कर दूँगा। यह देखकर समस्त देवता, असुर और ऋषि समुदाय बहुत भयभीत होकर विनयपूर्वक बोले- महाभाग! ये राजा त्रिशंकु गुरु के शाप से अपना पुण्य नष्ट करके चाण्डाल हो गए हैं अत: तपोधन! ये शरीर सहित स्वर्ग में जाने के लिए कदापि अधिकारी नहीं है। अन्त में उन सबकी बात सुनकर विश्वामित्र ने कहा मैं अपनी स्वर्ग में भेजने की प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं कर सका।
विश्वामित्र ने कहा कि- इन महाशय त्रिशंकु को सदा स्वर्गलोक का सुख प्राप्त होता रहे ऐसा आप सब स्वीकार करें। उन्होंने जिन नक्षत्रों का निर्माण किया है वे सब सदा बने रहें। उनके द्वारा सृष्टि निर्मित की गई। वह सृष्टि सदा बनी रहे ऐसा विश्वामित्र के कहने पर सब देवता, मुनिवर विश्वामित्र से बोले- महर्षि! ऐसा ही हो। ये सभी वस्तुएँ बनी रहें। आपके रचे हुए अनेक नक्षत्र, आकाश में वैश्वानरपथ से बाहर प्रकाशित होंगे और उन्हीं नक्षत्रों के बीच में सिर नीचे किए त्रिशंकु भी प्रकाशमान रहेंगे, हे राम! तदनन्तर यज्ञ समाप्त होने पर सब देवता और तपोधन महर्षि जैसे आए थे, उसी प्रकार अपने-अपने स्थान को लौट गए।
जब विश्वामित्र ने देखा कि दक्षिण दिशा में तप करने पर विघ्न हो गया था। अत: वे पश्चिम दिशा में पुष्कर में जाकर कठोर तप करने लगे। उन्हीं दिनों अयोध्या नरेश अम्बरीश एक यज्ञ की तैयारी करने लगे। उस समय इन्द्र ने उनके यज्ञ-पशु को चुपचाप चुरा लिया। पुरोहित ने राजा से कहा कि जो यज्ञपशु की रक्षा नहीं करता है अनेक प्रकार के दोष उसे नष्ट कर देते हैं। अत: आप खोए हुए यज्ञपशु की खोजकर शीघ्र यहाँ मँगवाओ अथवा उसके प्रतिनिधि के रूप में किसी पुरुष पशु को खरीद कर ले आओ। यही इस पाप का प्रायश्चित है। पुरोहित की यह बात सुनकर अम्बरीष ने हजारों गौओं के मूल्य पर एक पुरुष खरीदने के लिए पुरुष अन्वेषण किया।
अम्बरीश ऋचीक मुनि के पास गए और कहा कि यदि आप एक लाख गौएँ लेकर अपने एक पुत्र को पशु बनाने के लिए बेचें तो वह कृतकृत्य हो जाएगा। ऋचीक मुनि ने ज्येष्ठ पुत्र बेचने से इन्कार कर दिया तथा उनकी पत्नी ने सबसे प्रिय छोटे पुत्र को देने से मना कर दिया। राजा अम्बरीष बोले अब आप मुझे मझला पुत्र ही बेचने योग्य लगता है। यह सब सुनकर मझले पुत्र शुन:शेष ने स्वयं कहा- पिता ने ज्येष्ठ पुत्र की और माता ने कनिष्ठ पुत्र को बेचने के लिए अयोग्य बतलाया है। अत: मैं समझता हूँ इन दोनों की दृष्टि में मझला पुत्र बेचने के लिए योग्य है। इसलिए तुम मुझे ही ले चलो। राजर्षि अम्बरीश शुन:शेष को रथ पर बैठाकर वहाँ से चल दिए। शुन: शेष पुष्कर में आकर ऋषियों के साथ तपस्या करते हुए अपने मामा विश्वामित्र से मिला। वह भूख प्यास से पीड़ित होकर उनकी गोद में जाकर गिर पड़ा। शुन:शेष ने सारा वृत्तांत उनसे कह सुनाया। विश्वामित्र ने अपने पुत्रों से उसकी रक्षा करने कहा। उनके पुत्रों ने शुन: शेष की रक्षा नहीं तब विश्वामित्र ने उन्हें शाप दे दिया। विश्वामित्र ने शुन:शेष को कहा कि अम्बरीष के इस यज्ञ में तुम्हें कुश आदि पवित्र पाशों से बाँधकर लालफूलों की माला और लालचन्दन धारण करा दिया जाए, उस समय तुम विष्णु देवता सम्बन्धी यूप के पास जाकर वाणी द्वारा इन्द्र और विष्णु की स्तुति करना। इन दो दिव्यों की गाथाओं का गान करना। तुम मनोवाञ्छित सिद्धि प्राप्त कर लोगे।
अम्बरीष ने शुन:शेष को कुश के पवित्र पाश में बाँधकर उसे पशु के लक्षण से सम्पन्न कर दिया और यज्ञपशु को लाल वस्त्र पहनाकर यूप में बाँध दिया। बँधे हुए मुनि पुत्र शुन:शेष ने उत्तम वाणी द्वारा इन्द्र और भगवान् विष्णु इन दोनों देवताओं की स्तुति की तथा इन्द्र ने प्रसन्न होकर उसे दीर्घायु प्रदान की। इन्द्र की कृपा से अम्बरीष का यज्ञ सम्पन्न हुआ। इसके पश्चात् विश्वामित्र ने भी पुष्कर तीर्थ में जाकर एवं हजार वर्षों तक तपस्या की।
शतानंदजी कहते हैं- श्रीराम! जब एक हजार वर्ष पूरे हो गए तब उन्होंने व्रत की समाप्ति की। ब्रह्माजी ने आकर प्रसन्न होकर कहा कि अब तुम अपने उपार्जित शुभकर्मों के प्रभाव से ऋषि हो गए। तदनन्तर विश्वामित्र पुन: तपस्या में लग गए। बहुत समय व्यतीत होने पर परम सुन्दरी अप्सरा मेनका पुष्कर में आई और स्नान की तैयारी करने लगी। उसे देखकर मुनि काम के अधीन हो गए और उससे कहा- अप्सरा ‘तेरा स्वागतÓ है तू मेरे इस आश्रम में निवास कर तथा मेनका वहाँ रहने लग गई। विश्वामित्र वहाँ उसके साथ १० वर्ष बड़े सुख से रहे। इससे उनकी तपस्या में बड़ा विघ्र हो गया। उन्होंने मेनका से कहा मेरे दस वर्ष एक दिन रात के समान बीत गए। मेनका उनकी बात सुनकर भयभीत हो गई। अंत में विश्वामित्र ने उसे विदा कर उत्तर पर्वत (हिमवान्) चल दिए। वहाँ जाकर उन्होंने कामदेव को जीतने के लिए कौशिकी तट पर १० हजार वर्षों तक कठोर तपस्या की। देवताओं को उनकी तपस्या से भय उत्पन्न हो गया। ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि वे तुम्हारी तपस्या से बहुत सन्तुष्ट है अत: तुमको महत्ता एवं ऋषियों में श्रेष्ठता प्रदान करता हूँ।
ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर विश्वामित्र ने हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहा- भगवन्! यदि आप उनकी तपस्या से सन्तुष्ट है तो उन्हें ‘ब्रह्मर्षिÓ का अनुपम पद प्रदान करें। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा- मुनिश्रेष्ठ अभी तुम जितेन्द्रिय नहीं हुए हो। इसके लिए प्रयत्न करो तथा ऐसा कहकर वे ब्रह्मलोक चले गए। देवताओं के चले जाने पर महामुनि विश्वामित्र ने पुन: घोर तपस्या दोनों भुजाएँ ऊपर उठाए बिना किसी आधार के खड़े होकर, केवल वायु पीकर, गर्मी के दिनों में पञ्चाग्निका (पंचाग्निका) सेवन करके, वर्षाकाल में खुले आकाश के नीचे और जाड़े के समय दिन-रात पानी में खड़े रहकर एक हजार वर्षों तक घोर तपस्या की। महामुनि विश्वामित्र के इस प्रकार तपस्या करते देखकर देवताओं और इन्द्र के मन में बड़ा भारी संताप हुआ। समस्त मरुद्गणों सहित इन्द्र ने उस संयम रम्भा अप्सरा से ऐसी बात कही, जो अपने हितकर और विश्वामित्र के लिए अहित थी।
इन्द्र ने रम्भा से कहा कि तुम जाकर महर्षि विश्वामित्र को इस प्रकार लुभाओ, जिससे वे काम और मोह के वशीभूत हो जाएं। रम्भा ने कहा- सुरपते! वे महामुनि विश्वामित्र भयंकर है। वे मुझ पर क्रोध करेंगे। इन्द्र ने उससे कहा कि वैशाख मास में जबकि प्रत्येक वृक्ष नव पल्लवों से परम शोभा धारण कर लेता है, तू अपनी मधुर काकली से सब के हृदय खींचने वाले कोकिल और कामदेव के साथ में भी तेरे पास रहूँगा। सुन्दरी अप्सरा उत्तम रूप बनाकर विश्वामित्र को लुभाने गई। विश्वामित्र ने मीठी बोली बोलने वाली कोकिल की मधुर काकली सुनी। जब उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर उस ओर दृष्टिपात किया तब सामने रम्भा अप्सरा खड़ी दिखाई दी। मुनि के मन में अप्सरा रम्भा के अनुपम गीत और अप्रत्याशित दर्शन से सन्देह हो गया। वे देवराज इन्द्र का सारा कुचक्र समझ गए तथा क्रोध में भरकर रम्भा को शाप देते हुए कहा-
यन्मां लोभयसे रम्भै कामक्रोधजयैषिणम्।
दशवर्षसहस्त्राणि शैली स्थायसि दुर्भगे।।
ब्राह्मण: सुमहातेजास्तपोबलन्वित:।
उद्धारिष्यति रम्भे त्वां मत्क्रोधकलुषीकृताम्।।
वाल्मीकिरामायण बालकाण्ड सर्ग ६४-१२, १३
दुर्गभे रम्भे। मैं काम और क्रोध पर विजय पाना चाहता हूँ और तू आकर मुझे लुभाती है। अत: इस अपराध के कारण तू दस हजार वर्षों तक पत्थर की प्रतिमा बनकर खड़ी रहेगी। रम्भे! शाप का समय पूरा हो जाने के बाद एक महान तेजस्वी और तपोबल सम्पन्न ब्राह्मण (ब्रह्माजी के पुत्र वसिष्ठ) मेरे क्रोध से कलुषित तेरा उद्धार करेंगे। मुनि के महाशाप से रम्भा तत्काल पत्थर की प्रतिमा बन गई। महर्षि का यह शाप सुनकर कामदेव और इन्द्र वहाँ से खिसक गए। विश्वामित्र के मन में विचार आया कि तपस्या का अपहरण हो गया है अत: अब से न तो क्रोध करूँगा और न किसी भी अवस्था में मुँह से कुछ बोलूँगा। अथवा सौ वर्षों तक मैं श्वास भी न लूँगा। इन्द्रियों को जीतकर शरीर को सूखा डालूँगा। जब तक अपनी तपस्या से उपार्जित ब्राह्मणत्व मुझे प्राप्त न होगा, तब तक चाहे अनन्त वर्ष बीत जाए, मैं बिना खाये पीये खड़ा रहूँगा और साँस तक न लूँगा। ऐसा निश्चय करके मुनिवर विश्वामित्र ने पुन: एक हजार वर्षों तक तपस्या करने के लिए दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी संसार में कहीं तुलना नहीं है। अनन्तर विश्वामित्र उत्तर दिशा को त्याग कर पूर्व दिशा में चले गए और वहाँ वे कठोर तपस्या करने लगे। एक हजार वर्ष पूर्ण होने तक वे महामुनि काष्ठ की भाँति निश्चेष्ट बने रहे। बीच-बीच में उन पर बहुत विघ्रों का आक्रमण हुआ, किन्तु उन्होंने क्रोध को भीतर नहीं प्रवेश करने दिया।
महामुनि विश्वामित्र ने एक सहस्त्र वर्षों का व्रत पूर्ण होने पर वे महान व्रतधारी महर्षि व्रत समाप्त करके अन्नग्रहण करने को उद्यत हुए। हे राम! इसी समय इन्द्र ने ब्राह्मण के वेष में आकर उनसे तैयार अन्न की याचना की। महामुनि ने सारा अन्न उस ब्राह्मण को दिया तथा बिना खाये पीये ही रह गए। उन्होंने पुन: पूर्व की तरह श्वासोच्छवास से रहित मौनव्रत का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया। पूरे एक हजार वर्षों तक उन मुनिश्रेष्ठ ने साँस तक नहीं ली। इस तरह साँस न लेने के कारण उनके मस्तक से धुआँ उठने लगा। उनके तप से तीनों लोकों के प्राणी घबरा उठे। तदनन्तर ब्रह्माजी आदि सब देवता महामुनि विश्वामित्र के पास जाकर मधुर वाणी में बोलें-
ब्रह्मर्षे स्वागतं तेऽस्तु तपसा स्म सुतोषिता:।
ब्राह्मण्यं तपसोग्रेण प्राप्तवानसि कौशिक।
वाल्मीकिरामायण बालकाण्ड सर्ग ६५/१९-१/२
ब्राह्मर्षे! तुम्हारा स्वागत है, हम तुम्हारी तपस्या से बहुत सन्तुष्ट हुए हैं। कुशिकनन्दन! तुमने अपनी उग्र तपस्या से ‘ब्राह्मणत्वÓ प्राप्त कर लिया।
पितामह ब्रह्माजी की बात सुनकर महामुनि विश्वामित्र ने कहा- देवगण! यदि मुझे आपकी कृपा से ब्राह्मणत्व मिल गया और दीर्घ आयु की प्राप्ति हो गई तो ऊँकार व षट्कार और चारों वेद स्वयं आकर मेरा वरण करें। आगे उन्होंने कहा-
क्षत्रवेदविदां श्रेष्ठो ब्रह्मवेदविदामपि।।
ब्रह्मपुत्रौ वसिष्ठो मामेवं वदतु देवता:।
यद्येवं परम: काम: कृतो यान्तु सुरर्षभा:।।
वाल्मीकिरामायण बालकाण्ड सर्ग ६५-२३-२४
इसके सिवा जो क्षत्रिय वेद (धनुर्वेद आदि) तथा ब्रह्मवेद (ऋक् आदि चारों वेद) के ज्ञाताओं में भी सबसे श्रेष्ठ हैं वे ब्रह्मपुत्र ‘वसिष्ठÓ स्वयं आकर मुझे ऐसा कहें (कि तुम ब्राह्मण हो गए) यदि ऐसा हो जाए तो मैं समझूँगा कि मेरा उत्तम मनोरथ पूर्ण हो गया। उस अवस्था में आप सभी देवगण यहाँ से जा सकते हैं।
तत: प्रसादितो देवैर्वसिष्ठो जपतां वर:।
सख्यं चकार ब्रह्मर्षिरेवमस्त्विति चाब्रवीत्।।
वाल्मीकिरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ६५-२५
तब देवताओं ने मन्त्र जप करने वालों में श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि को प्रसन्न किया। इसके बाद ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने ‘एवमस्तुÓ कहकर विश्वामित्र को ‘ब्रह्मर्षिÓ होना स्वीकार कर लिया और उनके साथ मित्रता स्थापित कर ली। ऐसा कहकर शतानंदजी श्रीराम-लक्ष्मण के पास ब्रह्मर्षि विश्वामित्रजी का वृत्तांत कहकर चुप हो गए।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
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