गुजराती एवं कश्मीरी रामायणों में श्रीराम-सीताजी की अद्भुत नरलीलाएँ
भारत में पुरातनकाल से रामायण के प्रति लोगों की अगाध श्रद्धा और भक्ति रही है। यह ग्रन्थ मानव के जीवन में सुख, शान्ति, कर्त्तव्यपरायणता, सन्तोष और प्रेरणा के स्त्रोत के रूप में प्रसिद्ध है। रामायण का प्रभाव भारत में ही नहीं अपितु विदेश में भी उदाहरणस्वरूप इण्डोनेशिया, जावा आदि देशों में भी देखा जा सकता है। गुजरात में श्री गिरधर रामायण का अपना एक विशिष्ट स्थान है।
गुजराती भाषा की रामायण के रचयिता महाकवि गिरधरदासजी का जन्म गुजरात के बड़ौदा (वड़ोदरा) राज्य के अन्तर्गत ‘मासरÓ गाँव में ई. १७८५ (सं. १८४३) में लाड़-वैश्य परिवार में हुआ था। ये बीस वर्ष की अवस्था में बड़ौदा में जाकर रहने लगे। यहाँ आकर विद्वानों एवं साधुओं की संगति से प्रभावित होकर रामायण, महाभारत, पुराण आदि का गहन अध्ययन किया। इनके पिता का नाम श्री गरबड़दासजी था तथा वे पेशे से पटवारी थे। बड़ौदा में ही इन्होंने अपने बहनोई की सर्राफ की दुकान पर कार्य किया। कुछ वर्षों तक इन्होंने वल्लभ सम्प्रदाय के एक मंदिर में व्यवस्थापक के रूप में भी कार्य किया।
श्री गिरधरदासजी विवाहित थे तथा इनके एकमात्र पुत्र की अकाल मृत्यु हुई तथा कुछ दिनों के बाद उनकी धर्मपत्नी भी चल बसी। अत: गार्हस्थ जीवन से इन्हें विरक्ति हो गई। श्री गिरधरदासजी की मृत्यु लगभग ई. १८५० (सं. १९०८) में ध्यानावस्था में हो गई।
इनकी रामायण में ७ काण्ड, कुल २९९ अध्याय, १९००० से अधिक पंक्तियाँ हैं। यह रामायण गेय हैं अर्थात इनकी रामायण को संगीत के ताने-बाने में गुंथा जा सकता है। इस रामायण में अनेक राग-रागनियाँ हैं। इस रामायण का कथानक वाल्मीकि रामायण, हनुमन्नाटक पर आधारित है। कहीं-कहीं गोस्वामी तुलसीदासजी कृत श्रीरामचरितमानस के प्रसंगों की काव्यमय झाँकी के भी दर्शन प्राप्त होते हैं।
श्रीराम ने अपने तथा भाईयों के पुत्रों को सम्पूर्ण राज्यों में बांट दिया था। इस प्रकार वे स्वयं निवृत्तमान हो गए। एक समय की बात है कि वे रंग भवन में बैठे हुए थे। श्रीराम रंग भवन में सुन्दर पलंग पर विश्राम कर रहे थे, सीताजी निर्मल मन से उनकी सेवारत थीं।
ते समें श्रीरघुवीर बोल्या, सुनी सती एक बात,
अवतार कारण आपणुं, पूरण थयुं साक्षात।
सहु दुष्टनो संहार करियो, उतार्यो भू भार
हावे अवधवासी आपणां, तेने आपणो उद्धार।
स्वधाम जापुं आपणे, हावे नथी बीजुं काम,
मारे तमो प्रथमे गुप्त थाओ, पृथ्वीमां अभिराम।
गुजराती रामायण रचयिता महाकवि गिरधरदास, उत्तर. अध्याय २१-३ से ५
उस समय श्रीराम बोले ‘हे सतीÓ एक बात सुन लो। अवतार धारण करने का मेरा उद्देश्य प्रत्यक्ष रूप से पूर्ण हो गया है। मैंने समस्त दुष्टों का संहार कर दिया है और भूमि के पाप रूपी भार को उतार दिया है। अब अपने जो अयोध्यावासी हैं, उनको उद्धार (मोक्ष) प्रदान करना है। हमें अब अपने धाम को जाना है, अब कोई दूसरा कार्य (शेष) नहीं रहा है। अतएव तुम पहले, उस रम्य धरा (पृथ्वी) से गुप्त हो जाओ। श्रीराम ने जो कुछ उनके मन में था, उसके अनुसार इस प्रकार से सीताजी को समझा दिया।
एक समय की बात है कि श्रीराम सभा में विराजमान थे। तब उधर रंग भवन में सीताजी अकेली थी। उसी समय सीताजी के उस भवन में कैकेयी आ गई। सीताजी उसे अपनी सास जानकर उठ खड़ी हो गई और उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। अनेक प्रकार से कैकेयी की आवभगत एवं स्वागत करके स्वयं भी उनके पास बैठ गई। तब कैकेयी ने वहाँ प्रसन्नतापूर्वक यह बात सीताजी से पूछी-
अरे जानकी तमो रह्या लंका, वीतिया बहु दिन,
ते रावण केरूं रूप केवुं, हतु प्रौढ़ं तन।
त्यारे वैदेही कहे सांभलोन, कहुँ मात साची बाण,
दृष्टी करी में नथी जोयुं, रूप एनुं जाण।
पण एक दिन बैठी हती हुं, अशोक वांडीमांहे,
त्यारेप्रावण आवी रह्यो ऊभो, मारी सन्मुख त्यांहे।
त्यारे ध्यानमांथी नेत्र मारा, ऊघड्यां निरवाण,
एना चरणनो अनुष्ठ मारी, दृष्टे पडियो जाण।।
गुजराती गिरधरदास रामायण उत्तर अध्याय ९१-१० से १३
अरी जानकी तुम लंका में रहती थी, उसे बहुत दिन बीत गए। उस रावण का रूप कैसा था? उसका शरीर तो विशाल था। तब वैदेही ने कहा, सुनिये मैं सच्ची बात कहती हूँ। समझिये कि मैंने उसके रूप को अपनी दृष्ट से कभी भी नहीं देखा। किन्तु मैं एक दिन अशोक उपवन में बैठी थी। तब रावण अचानक आकर वहाँ मेरे सम्मुख खड़ा रह गया। तब अवश्य ही मेरी आँखें ध्यान से खुल गई। तो समझ लीजिए उसके पाँव का अँगूठा मुझे दीख पड़ा।
फिर कैकेयी ने पूछा- वह कैसा अत्यन्त पुष्ट और बड़ा था। चित्र खींचकर मुझे उसके उस अँगूठे का आकार दिखा दो। तब सीताजी ने दिवार पर चित्र में रावण का वह अँगूठा अंकित कर दिया। कैकेयी के मन में कपट भरा हुआ था फिर भी सीताजी ने उससे कोई प्रतिकूल नहीं समझा।
कैकेए करमां कलम ग्रहीने, लख्यो निश्चिर भूप,
अंगुष्ठना अनुमानथी, चीतर्यु रावण रूप।
गुजराती श्री गिरधरदास रामायण उत्तरकाण्ड अध्याय ९१-१६
तदनन्तर कैकेयी ने हाथ में लेखनी लेकर उस निशाचर राजा (रावण) का चित्र अंकित कर दिया। कैकेयी ने अँगूठे के आधार पर अनुमान (कल्पना) से रावण के रूप को दिवार पर चित्रित कर दिया। फिर कैकेयी उठकर द्वार पर अर्थात् बाहर आ गई और अत्यधिक बकवास करने (अनर्गल बोलने) लगी। उसने दस बीस नारियों को एकत्रित करके शोर मचाना आरम्भ किया। अरी बाई इस सीता का निश्चय ही यह आचरण (चरित्र) तो देख लो न। उसने अपने मन मंदिर (महल) में रावण की सुन्दर मूर्ति बना ली है। उस समय कैकेयी ने हँसते हुए अनेकानेक व्यंग्य वचन भी कह दिए। उन्हें सुनते ही सीताजी उठकर बाहर आ गई। सीताजी बोली, हे देवी मुझ पर आपका इतना रोष क्यों है? अपने स्वयं अपने हाथ से यह काम किया और फिर मुझे दोष दे रही हो? उस समय यह कहते हुए भी जानकीजी गद्गद् हो उठी।
वह पृथ्वी की स्तुति करने लगी। इसकी आँखों से आँसूओं की धारा बह रही थी। अब शब्दों का अर्थों का चमत्कार देखिए। महाकवि गिरधरदासजी ने पृथ्वी के कितने समानार्थी शब्द देकर काव्य के सौन्दर्य को अद्भुत रूप से उठाया है यथा-
हे क्षमा उर्वी भूमि, भू मही महाभाग,
वसुन्धरा धरणी धरा तुं, आप मुजने माग।
हे अवनी अचला वसुमती, क्षोणी क्षिति अभिराम,
गो अनंता विश्वंभरा, गति करो मुज ठाम।
हे मात ए दुरवचनथी, मुने, थाय बहु परिताप,
तुज उदारमांहे गुप्त करीने, टालिये संताप।
गुजराती गिरधरदास रामायण उत्तरकाण्ड अध्याय ९१-२२ से २४
हे क्षमा, हे उर्वी, हे भूमि, हे भू, हे महि, हे मेदिनी, हे महाभागती, हे वसुन्धरा, हे धरणी, हे धरा, तू मेरा माँगा गया मुझे प्रदान कर। हे अवनि, हे अचला, हे वसुमती, हे क्षोणी, हे अभिराम, हे क्षिति, हे गो, हे अनन्ता, हे विश्वम्भरा, इस स्थान पर मेरी अन्तिम गति कर दो अर्थात् मेरा अन्त कर दो। हे माता इस दुर्वचन से मुझे बहुत ग्लानि हो रही है। अपने उदर में मुझे गुप्त करते हुए मेरे इस सन्ताप (दु:ख) को मुझसे दूर करो।
सीताजी के इतना कहते ही पृथ्वी फट गई तो अत्यन्त ही बड़ी ग्लानि उत्पन्न हो गई। प्रत्यक्ष रूप धारण करके पृथ्वी माता ऊपर निकल आई। वह महान तेज की राशि ही थी। वह वहाँ हाथों में सोने का सिंहासन लिए हुए खड़ी रह गई। तत्पश्चात् सीताजी को पृथ्वी के अन्दर ले गई। तब सीताजी पृथ्वी में गुप्त हो गईं। वह फटी हुई भूमि पुन: क्षणभर में मिल गई अर्थात् दरार पट गई। इसमें क्षणिक भी विलंब न हुआ। यह सब देखकर समस्त स्त्रियाँ, रानियां आदि हाहाकार करने लग गई। यह बात भी अयोध्यानगरी में फैल गई तब प्रजा (लोग) रुदन करने लग गए। कौसल्याजी भी बहुत विलाप करने लगी। इस तरह पूरी अयोध्यानगरी में उस समय बड़ा शोक छा गया। सीताजी धरा (पृथ्वी) में समा गई।
कश्मीरी रामावतारचरित रचियता श्री प्रकाशराम कुर्यग्रामी में सीताजी का ननद की जलन एवं परित्याग प्रसंग
कश्मीरी रामावतार चरित (श्रीरामकथा) में रावण के चित्र बनाने के प्रसंग में कैकेयी के स्थान पर श्रीराम की छोटी बहन अर्थात् ननद द्वारा सीताजी के द्वारा रावण के चित्र बनाने का प्रसंग है। किन्तु सीताजी के भूमि में समाने के स्थान पर उनके वन भेजने या परित्याग का प्रसंग है। यह प्रसंग बहुत विस्तृत में है किन्तु यहाँ संक्षेप में दिया जा रहा है। यह प्रसंग लवकुश काण्ड में वर्णित है।
संसार के लोग ईश्वर से यही वरदान माँग रहे थे कि श्रीराम दीर्घायु हो और उनका साया उनके सर पर बना रहे। उन्होंने यह नहीं जाना कि श्रीराम की ही तो यह सब माया है। दरअसल बुद्धिमान वही है जिसने अपने पिता को आदर-सम्मान दिया। उनका भाग्य धन्य है जो माता-पिता का सम्मान करते हैं तथा उनके हर वचन (आज्ञा) का अनुपालन करते हैं। वह सन्तान ही क्या जिसे माता-पिता की याद न रहे और जो मूर्ख-बुद्धि से माता-पिता को मारती रहे। योगियों की सन्तान अपने माता-पिता की दुविधा दूर करने वाली होती है।
एक दिन श्रीराम को अपने पिता की याद आई। उन्हें ऐसा लगा कि उनके पिताजी कह रहे हो कि पुत्र का गम (पुत्र के वियोग की पीड़ा) कौन दूर कर सका। श्रीराम ने ऋषियों को बुलवा कर उनसे अपने हाल बताएं। श्रीराम ने कहा कि इन दो नेत्रों के लिए अब तीसरे नेत्र (प्रकाश) की इच्छा हो रही है, यह सुनकर वसिष्ठजी ने अश्वमेघ यज्ञ की योजना बनाई। दिन बहार के ये और प्रकृति केसरिया रंग की हो गई थी। इधर अभ्र (मेघ) से निकलकर अमृत की एक बूँद अपने तक को सीपी में ढालकर मोती का रूप धारण करने लगी। दैव की गति देख्एि, पानी का वह कतरा लाल बन गया। अभी ज्यादा समय गुजरा नहीं होगा कि एक बार शहंशाह श्री रामजी को एक दूत ने राज्य में हो रही किसी अनियमितता की सूचना दी। तब श्रीराम ने स्वयं सम्बन्धित की जाँच-पड़ताल की और इस प्रकार कटुता ने जड़ पकड़ ली। देखिए श्रीराम स्वयं ज्ञाता और सर्वज्ञ थे। किन्तु नियति (विधि) के चक्र (विधान) के कारणों से भी बच नहीं सके। नियति ने बाकी कौर कसर भी निकालनी शुरू की और उनके परिवार (घर) में फूट पड़ने लगी।
तमिस सुतायि मा आंसुस लोकुट ज़मा।
तमी क्याह कोर तमिस बर मंदिन्यन शाम।।
स्यठाह ओसुस गोमुत सूतायि हुन्द वोर।
लोबुन येलि दस्तगाह प्यव तस कोठयन पोर।।
रशक ओनुनस वुछिव तस क्याह यि वोनुनस।
प्रंगस खरिन तु तल्य किन्य चाह खोनुनस।।
चु मा छरव जाँह ति कामा म्यान्य बोजन।
पुनन्य आसिथ व्यंदान ह्य छख मे दुशमन।।
प्रछय पज्य किन्य गछयम लीखिथ मे हावुन।
बसूरथ ओस क्युथ ह्युव दशिरावुन।।
रामावतार चरित्र रचियता श्री प्रकाशराम कूर्यग्रामी लवकुशकाण्ड २०
ऐसा कहते हैं कि उस सीताजी की एक छोटी ननद थी, जिसने उस की भरी दुपहरी की शाम में बदल डाला। ननद का सीता से वैर खूब बढ़ा हुआ था। उसको जब उसने रानी के समान ऐश्वर्य-सुख भोगते हुए देखा तो उसके मानों घुटने टूट गए। रक्ष्क (ईर्ष्या) ने क्या जोर मारा और देखिए उसका क्या हाल कर दिया। उसे तख्त पर चढ़ाकर नीचे उसके लिए खंदक खोल डाली। ननद एक दिन सीताजी से बोली- तुमने आज तक मेरी कोई बात नहीं मानी। अपनी होकर भी मुझे दुश्मन समझती हो। आज मैं कुछ चाहती हूँ सच-सच लिखकर मुझे बता देना। वह दशमुख रावण सूरत-शक्ल से भला कैसा था।
वह सीताजी के सामने वह खूब गरजमंद बनी। इधर सीताजी यह न जान सकी कि यह उसके गले में कौन सा फंदा डाल रही है। उसने सीता की दुबारा खूब मनुहार की और सीताजी त्रिया होने के कारण स्त्री सुलभ स्वभाव से विवश थी। पहली बात कि सीताजी को सच्चाई दिखाई नहीं दी। दूसरा उसने सरल स्वभाव होने के कारण अपने में और ननद में कोई भिन्नता नहीं जानी और तीसरा यही उसके लिए संकट का कारण बना। चौथी बात यह कि शायद उसके सुखों में वृद्धि हो गई थी, तभी अहंकार का सदाशिव ने यह हाल कर दिया। अन्यथा पाँचवीं बात यह है कि उसकी स्वयं की यह इच्छा रही होगी कि पुत्र को जन्म देकर जल्दी से घर (माँ वसुन्धरा) के पास चली जाऊँ।
छठी बात यह है कि वह लोगों को ननद के दुर्व्यवहार से आतंकित कराना चाहती थी। सातवीं बात यह है कि उधर श्रीराम को धोबी ने भी उलाहना दिया था। आठवीं बात यह कि शायद श्रीराम ने पूछा हो कि माँग, इस समय क्या माँगती है और उस सीता ने कहा हो कि मेरे मन की यही इच्छा है कि मैं पुन: ऋषियों के स्थान अर्थात वन को देखना चाहती हूँ। नौंवी बात यह है कि अयोध्या पहुँचकर उसकी खूब टीका टिप्पणी होने लगी थी। दसवीं बात यह है कि सीता के वर्ण में देवी अवतरित हुई थी। ग्यारहवीं बात यह है कि शायद उसने सोचा हो कि अब अत्यधिक सुखानंद से क्या मिलने वाला है। अत: वन में बैठकर भगवान को ढूँढ लूँ। अन्यथा जान लीजिए कि उसे अपनी सुख समृद्धि पर अहंकार हो गया था और अहंकार का सदाशिव यही हाल कर देते हैं।
खास बात यह है कि सीताजी ने उस (रावण) की सूरत बनाई और ननद को दिखाकर कहा- देख, कैसे नरकवासी रावण जहर खा रहा है। तभी उस रेखाचित्र को वह भाई (श्रीराम) के पास ले गई और उसे दिखाया। देखिये कैसे सीता को आफत में डाल दिया। ननद भाई (श्रीराम) से बोली- देखो भैया यह क्या है? सीता प्रतिदिन इसे देख-देखकर विलाप करती है। जबसे इस चित्र को मैंने उसके यहाँ से चुराया है, वह खूब छाती पीटने लगी है। खूब रो रही है तथा नेत्रों से खून के आँसू बहा रही है। यदि वह जान जाय कि उसका यह रावण का चित्र मैं (ननद) ने चुरा लिया है तो वह मुझे मार डालेगी, ऐसी है वह।
कैकेयी एवं सीताजी की ननद को दोष देना व्यर्थ हैं क्योंकि यह सब पूर्व से निर्धारित सीताराम की नरलीला थी। विधि के विधान को स्वीकार करना ही पड़ता है। श्रीराम को मालूम था कि यह अवतार का कार्य पूर्ण हो गया है। अत: नए अवतार लेने हेतु श्री सीताजी सहित उन्होंने यह लीला संसार को दिखाने हेतु रचाई थी।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता