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Arvind Kejriwal’s AAP

भस्मासुर केजरीवाल

केजरीवाल ने अपनी संभावनाओं को खुद डकार लिया

जावेद अनीस

स देश की राजनीति में बदलाव चाहने वालों के लिये आम आदमी पार्टी का सफर निराश करने वाला है हालांकि इसका एक दूसरा पक्ष यह हो सकता है कि अन्ना, अरविन्द और आप मंडली के सहारे बदलाव की उम्मीद लगाये लोग जरूरत से ज्यादा मासूम रहे हों. बहरहाल आम आदमी पार्टी उम्मीदों को तोडऩे के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुये एक बार फिर सुर्खियों में है. पार्टी ने राज्यसभा के लिए अपने तीन उम्मीदवारों का ऐलान करते हुए शीर्ष नेता के प्रति वफादारी,धनबल और राजनीति में जाति की महत्ता का भरपूर ध्यान रखा है .

आम आदमी पार्टी के गठन को पांच साल बीत चुके हैं और इस दौरान पार्टी के नेतृत्व ने बहुत ही तेजी से पुरानी पार्टियों के राजनीतिक कार्यशैली और पैतरेबाजियों को सीख लिया है. दरअसल आम आदमी पार्टी बाकी सियासी दलों से अलग होने और विकल्प की राजनीति पेश करने का दावा करती रही है लेकिन हकीकत में पार्टी उन्हीं राजनीतिक व्याकरणों और तौर तरीकों के हिसाब से चल रही है जिनको निशाना बनाकर उसका गठन किया गया था. लोगों को आप से यह उम्मीद स्वाभाविक ही थी कि वो बाकी पार्टियों के मुकाबले ज्यादा पारदर्शी और लोकतान्त्रिक होगी लेकिन जनता से स्वराज्य और सत्ता के विकेंद्रीकरण का वादा करने वाली पार्टी इन्हें अपने अन्दर ही स्थापित करने में नाकाम रही. आप लीडरशिप यानी अरविंद केजरीवाल द्वारा उनपर सवाल उठाने और आतंरिक लोकतंत्र की मांग करने वालों के प्रति व्यवहार उन्हीं तौर-तरीकों की पुनरावृत्ति है जिन्हें बदल डालने का दावा किया गया था.

आप का यह संकट नया नहीं है, इससे पहले भी पार्टी के कई नेता भी पार्टी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा चुके है और सुनवाई ना होने से या तो निराश होकर चुप बैठ गये या फिर उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया. करीब दो साल पहले जिस तरीके से योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी से बाहर किया गया उससे यह साबित हो गया था कि पार्टी की उम्मीदों पर व्यक्तिवाद और निजी महत्वाकांक्षा हावी हो गयी है. इस घटना के बाद यह सुनिश्चित हो गया था कि अरविन्द केजरीवाल पार्टी के हाई-कमान है और अगर आपको पार्टी में रहना है तो उनके मातहत की रहना होगा. लोग जितने तेजी के साथ पार्टी के साथ जुड़े थे उतने ही तेजी के साथ पार्टी छोड़ कर जाने भी लगे.

आम आदमी पार्टी का सफर नाटकीय रूप से बहुत ही उतार-चढाव भरा रहा है, पिछली बार अचानक दिल्ली में सत्ता हासिल कर लेने के बाद पार्टी ने अपने आपको ज्यादा आंक लिया था और बिना किसी जमीनी तैयारी के एक झटके से देश की सत्ता हासिल करने का ख्वाब पालने लगी थी. फिर 2014 के लोकसभा चुनाव नजदीक आते ही केजरीवाल ने बिना किसी ठोस आधार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और सीधे गुजरात पहुँच कर खुद को मोदी के चुनौती के रूप में पेश करने लगे, बीते लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी ने चार सौ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए थे खुद केजरीवाल मोदी के खिलाफ और कुमार विश्वास राहुल गाँधी के खिलाफ चुनाव लड़े थे लेकिन लोक सभा चुनाव में पार्टी का अपने गढ़ दिल्ली में ही पत्ता साफ हो गया. इसके बाद 2015 में हुये दिल्ली विधान सभा के चुनाव में पार्टी ने जबरदस्त वापसी करते हुये दिल्ली में अपनी खोयी हुई जमीन को दोबारा हासिल कर लिया और यह कहावत गलत साबित हो गया है कि राजनीति दूसरा मौका नहीं देती है. 2014 के बाद यह पहला चुनाव था जिसने प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी की अपराजेय छवि पर चोट किया था. यह एक तरह से दिया और तूफान की लड़ाई थी जिसमें जीत दिये की हुई थी. इस जीत की इसलिए भी अहमियत थी क्योंकि इससे भारतीय लोकतंत्र में लगातार कमजोर होते जा रहे विपक्ष और लोकतान्त्रिक शक्तियों में विश्वास जगाने का काम किया था इसी के साथ ही यह तथ्य भी उजागर हुआ था कि अगर डट कर मुकाबला किया जाये तो मोदी को चुनौती दी जा सकती है. दिल्ली विधान सभा की इस जीत ने केजरीवाल को संभावनाओं से भरे एक ऐसे नेता के तौर पर पेश कर दिया जो भविष्य में नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष का एक चेहरा हो सकता था. उस दौरान ऐसा लगने लगा था कि अरविन्द केजरीवाल की जुझारू, निडर, ईमानदार नेता और एक आंदोलनकारी की छवि आने वाले दिनों में विकल्प की राजनीति का केंद्र बन सकती है लेकिन दुर्भाग्य से किसी और ने नहीं बल्कि खुद अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियों ने इस संभावना पर पानी फेरने का काम किया है. पंजाब में पार्टी की विफलता के बाद अब पार्टी पूरी तरह से दिल्ली तक सीमित हो गयी है और अब कोई अरविन्द केजरीवाल को 2019 के विकल्प के रूप में पेश करने का खतरा नहीं उठाना चाहता है .

आम आदमी पार्टी से लोग भारतीय राजनीति के डिसकोर्से को बदलने की उम्मीद कर रहे थे. उसे अपने दावे के मुताबिक पूरी राजनीतिक जमात में सब से अलग नजर आना था, कांग्रेस -भाजपा सहित तमाम छोटे-बड़े क्षेत्रीय दलों से ऊबी जनता, लोकतान्त्रिक और जनपक्षीय ताकतों के लिए आप का उभार एक नयी उम्मीद लेकर आया था, आशा जगी थी कि आप और उसके नेता नयी तरह के राजनीति की इबारत लिखेंगें. आम आदमी पार्टी के पास संभावनाओं का खुला आसमान था, वे कांग्रेस का विकल्प बन सकते थे बशर्ते वह अपनी हड़बड़ी और व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं पर काबू बनाये रखते, पार्टी को एक व्यक्ति केन्द्रित पार्टी बनने से बचा ले जाते, कथनी और करनी में ज्यादा फर्क ना आने देते और विकास व गवर्नेंस का एक नया माडल पेश कर सकते. लेकिन पार्टी ने अपनी संभावनाओं को खुद ही डकार लिया.

दरअसल आम आदमी पार्टी का संकट खुद उसी में अंतर्निहित है जिसे देर-सबेर सतह पर आना ही था. अगर आप किसी विचारधारा द्वारा निर्देशित नहीं है फिर तो चेहरे और जुमले ही बचते हैं. ऐसे में वहां व्यक्तिवाद का हावी होना लाजिमी है. अरविन्द केजरीवाल और उनके समर्थक समय पर अपने आप को फ्री-थिंकर और व्यवहारवादी घोषित करते रहे हैं. आम आदमी पार्टी का सबसे बड़ा संकट अरविन्द केजरीवाल के करिश्मे पर पूरी निर्भरता है. अरविंद केजरीवाल पार्टी के सबसे बड़े चेहरा हैं लेकिन इसी के साथ ही वे आप की सबसे बड़ी सीमा भी बन चुके है. ठ्ठ

इस तूफान के पीछे है कौन?

दिल्ली की सत्ता पर एक क्रान्ति और चमत्कार की तरह काबिज हुई आम आदमी पार्टी को जनवरी में अपने राजनीतिक जीवन का सबसे ब?ा झटका लगा, जब चुनाव आयोग ने लाभ का पद मामले में पार्टी के 20 विधायकों को अयोग्य करार देने की सिफारिश राष्ट्रपति के पास भेज दी. अपने विधायकी को खतरे में देख आम आदमी पार्टी आनन-फानन में शाम को दिल्ली हाईकोर्ट गई, लेकिन वहां से भी उसे बैरंग लौटना पड़ा. हालांकि उच्च न्यायालय ने मामले की अगली सुनवाई होने तक अर्थात 29 जनवरी 2018 तक चुनावों की तारीख की घोषणा करने पर रोक लगा दी है. मगर इससे राजनीतिक तू?ान शांत नहीं हुआ है, दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल आम आदमी पार्टी प्रमुख से इस्तीफा मांग रहे हैं. लेकिन, क्या आप जानते हैं, कौन है वह व्यक्ति जिसकी वजह से आप में ऐसी खलबली मची?

कौन हैं युवा वकील प्रशांत पटेल

आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों के खिलाफ चुनाव आयोग में अर्जी डालने वाले युवा वकील का नाम प्रशांत पटेल है. 30 साल के प्रशांत ने साल 2015 में वकालत शुरु की थी. सितंबर 2015 में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के सामने याचिका दायर कर संसदीय सचिवों की गैरकानूनी नियुक्ति पर सवाल खड़े किए थे. मीडिया रिपोर्ट प्रशांत पटेल को हिन्दू लीगल सेल का सदस्य मानती हैं. पटेल कहते हैं कि, ‘लोकसभा और दिल्ली विधानसभा के पूर्व सचिव एस के शर्मा की एक किताब छपी थी जिसका नाम है, ‘दिल्ली सरकार की शक्तियां व सीमाएं. यह किताब प?ने के बाद ही उन्हें समझ में आया कि सीएम केजरीवाल ने अपने 21 विधायकों को असंवैधानिक तरीके से संसदीय सचिव बनाया है.

प्रशांत पटेल ने किताब के लेखक से मुलाकात की और पूरे मामले को समझा. फिर 21 संसदीय सचिवों के खिलाफ राष्ट्रपति से गुहार लगाई. दो साल बाद चुनाव आयोग ने इन संसदीय सचिवों को अयोग्य करार देने की सिफारिश की है. हालांकि याचिका दायर करने में प्रशांत पटेल का इतिहास पुराना रहा है, उन्होंने ही बॉलीवुड एक्टर आमिर खान और डायरेक्टर राजकुमार हिरानी के खिलाफ भी फिल्म क्क्य में हिंदू देवी देवताओं का गलत चित्रण करने को लेकर एफआईआर दर्ज कराई थी.

याचिका में क्या है?

संविधान की धारा 191 और जीएनसीटीडी एक्ट, 1991 की धारा 15 के अनुसार अगर कोई विधायक लाभ का पद धारण करता है तो उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा. दिल्ली विधान सभा ने ऐसा कोई कानून पारित नहीं किया है जिसमें संसदीय सचिवों के पद को लाभ के पद से बाहर रखा जा सके. पटेल ने अपनी याचिका में कहा, इसलिए इन 21 विधायकों का सचिव का पद असंवैधानिक और अवैध है. इसके आधार पर इन्हें दिल्ली विधान सभा की सदस्यता से अयोग्य करार दिया जाना चाहिए.

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