रमेश शर्मा
भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की क्रांन्ति से सब परिचित हैं । लेकिन इससे पहले भी क्रांतियाँ हुईं हैं । यह अलग बात है कि उन क्रांतियों पर व्यापक चर्चा न हो सकीं और इतिहास में उतना स्थान बना जितनी जाग्रति उन अभियानों में क्रान्तिकारियों ने की थी । फिर भी यहाँ वहाँ उनका उल्लेख है । शताब्दियाँ बीत जाने पर भी लोक जीवन की चर्चाओं में उनका उल्लेख है । ऐसी ही एक क्रांति के नायक थे वीर सुरेन्द्र साय जो उड़ीसा में जन्मे थे । जिन्होंने अपने जीवन के 36 वर्ष जेल में बिताये और जेल की प्रताड़ना से ही उनका बलिदान हुआ । उन्होंने मध्यप्रदेश की असीरगढ़ की जेल में जीवन की अंतिम श्वाँस ली ।
वीर सुरेन्द्र साय का जन्म 23 जनवरी 1809 को उड़ीसा प्रांत के संबलपुर जिले में हुआ । उनका गाँव संबलपुर से तीस किलोमीटर दूर खिण्डा था । 1827 में संबलपुर के राजा का निधन हो गया । राजा निसंतान थे । यह वह दौर था जब अंग्रेज एक एक करके देशी रियासतों को अपनी मुट्ठी में कर रहे थे । अंग्रेजों ने उनकी विधवा रानी मोहन कुमारी को गद्दी पर बिठा कर सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिये । रानी बहुत सहज थी । अंग्रेजों के रेजीडेन्ट ने इसका पूरा लाभ उठाया और हर जगह अपने लोगों को तैनात कर दिया और शोषण आरंभ हुआ । अंग्रेजी पुलिस राजस्व वसूली के नाम पर पूरी उपज पर कब्जा करने लगी । वनोपज पर भी और खनिज उपज पर भी अधिकार करने लगे । उन्हे इससे क़ोई मतलब न था कि किसानों के पास खाने को बचा है या नहीं । इससे हाहा कार शुरू हुआ और विरोध भी । विरोध के लिये कुछ जमींदार और कुछ जागरुक नागरिक आगे आये । इन सबको एकत्र किया वीर सुरेन्द्र साय ने । सशस्त्र नौजवानों का एक दल बनाया जिसमें 250 से अधिक नौजवान शामिल हुये । इस संख्या के पाँच दल बनाये गये जो अलग-अलग स्थानों में सक्रिय किये गये । इन दलों को जहाँ कहीं भी बल पूर्वक वसूली की सूचना मिलती ये दल वहां धमक जाता और लोगों को निजात दिलाता ।
1837 में ऐसी ही एक भिडन्त में एक क्रांतिकारी बलभद्र सिंह शहीद हुये जबकि वीर सुरेन्द्र साय, बलराम सिंह, उदसम साय आदि क्रांति कारी निकलने में सफल हो गये । ये पांचों क्राँतिकारी अपने अपने दल के नायक थे और भविष्य की रणनीति बनाने एकत्र हुये थे । इस बैठक की सूचना किसी गद्दार ने अंग्रेजों को दे दी थी और पुलिस ने घेर लिया । पुलिस ने जब हमला बोला तब दोपहर का भोजन चल रहा था । इससे क्राँतिकारियों को मोर्चा लेने में देर लगी फिर भी शाम तक मुकाबला चला । बलभद्र सिंह शहादत के बाद निकलने की रणनीति बनी और शेष क्राँतिकारी निकलने में सफल हो गये ।
1840 में सुरेन्द्रसाय किसी की सूचना पर बंदी बनाये गये उन्हे हजारीबाग जेल में रखा गया । जब 1857 की क्रांति आरंभ हुई तब उसका प्रभाव हजारीबाग में भी हुआ और 30 जुलाई 1857 एक भीड़ ने जेल तोड़ कर सभी बंदियों को मुक्त कर दिया । सुरेन्द्र साय पुनः अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र अभियान में लग गये । लेकिन दो वर्ष बाद ही बंदी बना लिये गये । उन्हे इस बार उड़ीसा से बाहर भेज दिया गया । पहले छत्तीसगढ़ के रायपुर जेल में फिर महाराष्ट्र के नागपुर जेल में और अंत में मध्यप्रदेश के असीरगढ़ जेल भेजा गया जहाँ प्रताड़ना से वे 23 मई 1884 को बलिदान हुये ।
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