हम आए रोज देखते है कि कुत्ते को अधिकार है कि वह कहीं भी यूरिन पास कर सकता है, और कैसे भी कर सकता है। लेकिन सभ्य पुरुष को यह अधिकार नहीं है, उसे सभ्यता से बन्द टॉयलेट का उपयोग करना होगा। यहां बात उन पुरुषों की भी है जो सरेआम कहीं भी खड़े होकर कुत्तों की तरह ऐसा कृत्य करते है उन्हे पुरुष होने का महत्व अपने जीवन में उतारना होगा। क्या वो अपने घर की बहन बेटियों के सामने भी ऐसे ही करते है। इसी तरह पशु को अधिकार है नग्न घूमने का, लेकिन सभ्य स्त्री को उचित वस्त्र का उपयोग सार्वजनिक जीवन में करना ही होगा। तभी वो वास्तविक आधुनिक कहलाने की हकदार है।
*-डॉ. सत्यवान सौरभ*
हमारा जीवन और व्यवहार ही नहीं ये सम्पूर्ण सृष्टि नियमों में बंधी है। अगर वो नियम टूटेंगे तो परिणाम विपरीत ही होंगे। किसी अज्ञात ने कहा है कि जिस प्रकार किसी को मनचाही स्पीड में गाड़ी चलाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि रोड सार्वजनिक है। ठीक उसी प्रकार किसी भी लड़की को मनचाही अर्धनग्नता युक्त वस्त्र पहनने का अधिकार नहीं मानना चाहिए। क्योंकि सबका जीवन सार्वजनिक है और हम एक दूसरे को प्रभावित करने के साथ मान सम्मान रखते है। एकांत रोड में चाहे मर्जी स्पीड चलाओ उसके जिम्मेवार आप हो और उसका दूसरे पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार एकांत जगह में अर्द्धनग्न रहो, नग्न रहो कौन प्रभावित होता है। मगर सार्वजनिक जीवन में नियम मानने पड़ते हैं। बनाने के साथ ही हम सबको अपनाने भी पड़ते है। वरन उनका खामियाजा खुद के साथ ही सामने वाला भी बेवजह भुगतता है।
आप सोच सकते है कि भोजन जब स्वयं के पेट मे जा रहा हो तो केवल स्वयं की रुचि अनुसार बनेगा, क्या बनाना है, कितना तीखा कितना कम अपने पर निर्भर करता है लेकिन जब वह भोजन परिवार खायेगा तो सबकी रुचि व मान्यता देखनी पड़ेगी। उसी के अनुसार सब चयन करना पड़ेगा। अगर ऐसा नहीं होगा तो आप परिणाम भलीभांति समझ सकते हैं।
आज आधुनिकता का दौर है लेकिन उसी दौर में आधुनिकता की वास्तविक परिभाषा गायब है। केवल वस्त्रों तक सिमटी आधुनिकता को हम आधुनिकता या महिला अधिकार नहीं कह सकते। लड़कियों का अर्धनग्न वस्त्र पहनने का मुद्दा उठाना उतना ही जरूरी है, जितना लड़को का शराब पीकर गाड़ी चलाने का मुद्दा उठाना जरूरी है। दोनों में एक्सीडेंट होगा ही। और इस एक्सीडेंट से कितने बेवजह शिकार होंगे उसका अंदाजा किसी को नहीं होता जैसे आमतौर पर एक्सीडेंट में होता है।
इसलिए सड़क और गलियों की बजाय अपनी इच्छा केवल घर की चारदीवारी में ही उचित है। हम सब जानते है और समझते हैं कि घर से बाहर सार्वजनिक जीवन मे कदम रखते ही सामाजिक मर्यादा लड़का हो या लड़की उसे रखनी ही होगी। अगर फिर भी हम धक्का करते है तो हमने क्या और कहां तक सीखा है ये जगजाहिर होते समय नहीं लगता। आधुनिक नारी के अधिकारों को ध्यानर्थ रखते हुए भी घूंघट और बुर्का जितना गलत है, उतना ही गलत अर्धनग्नता युक्त वस्त्र गलत है। मेरे विचार से क्योंकि इस बात पर कई तथाकथित संगठन मुझे नारी विरोधी दर्जा दे सकते है।लेकिन आप जो मर्जी कहें मगर बड़ी उम्र की लड़कियों का बच्चों सी फ़टी निक्कर पहनकर छोटी टॉप पहनकर फैशन के नाम पर घूमना भारतीय संस्कृति का अंग नहीं है। बाकी आपकी मर्जी आप वो भी न पहने तो बिना ब्रेक की गाड़ी का क्या हस्र होता है कोई अंदाजा नहीं लगा सकता।
जीवन और गाड़ी संतुलन से चलते है। संतुलन नहीं तो दोनों का नष्ट होना तय है। इसलिए जीवन भी गिटार या वीणा जैसा वाद्य यंत्र हो, ज्यादा कसना भी गलत है और ज्यादा ढील छोड़ना भी गलत है। संस्कार और आधुनिकता को साथ लेकर चलिए। बात केवल नारी के चरित्र की नहीं है। संस्कार की जरूरत स्त्री व पुरुष दोनों को है, गाड़ी के दोनों पहिये में संस्कार की हवा चाहिए, एक भी पंचर हुआ तो जीवन डिस्टर्ब होगा। हमें परेशानी होगी। वैसे भी सीधी सी बात है। नग्नता यदि मॉडर्न होने की निशानी है, तो सबसे मॉडर्न जानवर है जिनकी संस्कृति में कपड़े ही नही है। अतः जानवर से रेस न करें, सभ्यता व संस्कृति को स्वीकारें। जानवर बनकर ही जीना है तो फिर आधुनिक अधिकारों को बात हो क्यों।
हम आए रोज देखते है कि कुत्ते को अधिकार है कि वह कहीं भी यूरिन पास कर सकता है, और कैसे भी कर सकता है। लेकिन सभ्य पुरुष को यह अधिकार नहीं है, उसे सभ्यता से बन्द टॉयलेट का उपयोग करना होगा। यहां बात उन पुरुषों की भी है जो सरेआम कहीं भी खड़े होकर कुत्तों की तरह ऐसा कृत्य करते है उन्हे पुरुष होने का महत्व अपने जीवन में उतारना होगा। क्या वो अपने घर की बहन बेटियों के सामने भी ऐसे ही करते है। इसी तरह पशु को अधिकार है नग्न घूमने का, लेकिन सभ्य स्त्री को उचित वस्त्र का उपयोग सार्वजनिक जीवन में करना ही होगा। तभी वो वास्तविक आधुनिक कहलाने की हकदार है। बातें और हजार है लेकिन सारांश एक ही है कि हम सभी को यह ध्यान रखना होगा कि हम भूलवश भी सार्वजनिक जीवन मे मर्यादा न लांघें, सभ्यता से रहें। तभी आने वाली पीढ़ियां हम पर गर्व करेगी।
संस्कार की ताकत ही बच्चों को ऊंचाइयों पर ले जाती है। दोनों की बात को तवज्जो भी समान रूप से देनी होगी। संस्कारों की ताकत पहचाननी होगी और तब उनके साथ पूरा समाज कारवां बनकर खड़ा होगा। तब तक इसके लिए समाज को दोष देना भी ठीक नहीं है। हमें अंधी दौड़ में शामिल होने के बजाय अपने वास्तविक अस्तित्व को पहचानना होगा।