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सुशासन एवं देश-विकास के लिये नौकरशाह स्वयं को बदले

सुशासन एवं देश-विकास के लिये नौकरशाह स्वयं को बदले
– ललित गर्ग-

प्रशासनिक सुधार की जरूरत महसूस करते हुए नौकरशाहों को दक्ष, जिम्मेदारी, ईमानदार, कानूनों की पालना करने वाले एवं उनकी समयबद्ध कार्यप्रणाली की आवश्यकता लंबे समय से रेखांकित की जाती रही है। जबकि बार-बार ऐसे उदाहरण सामने आते रहे हैं जिनसे पता चलता है कि देश की नौकरशाही न केवल अदालतों के फैसलों का पालन करने-कराने में विफल हो रही है, बल्कि उनके भ्रष्टाचार से जुड़े मामले एवं लापरवाह नजरिया देश के विकास की एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आ रहा है। निश्चित ही उनकी भ्रष्टाचारयुक्त कार्यप्रणाली, अपने आपको सर्वेसर्वा मानने की मानसिकता, जनता के प्रति गैरजिम्मेदाराना व्यवहार, सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में कोताही, ये स्थितियां देश को अपने उद्देश्य हासिल करने में भी विफल कर रही है। उनके अहंकार का उदाहरण है राजस्थान के नागौर के एक एसडीएम और सरकारी डॉक्टर का एक-दूसरे से तू-तू मैं-मैं करना। भ्रष्टाचार के उदाहरणों में प्रमुख है झारखंड की खान सचिव और उनके करीबियों पर प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी में 19 करोड़ की राशि नगद मिलना एवं कानून की अनुपालना में कोताही का ताजा मामला आइटी अधिनियम की धारा 66-ए का है। नौकरशाह ही वास्तव में देश के विकास को गति देते हैं, लेकिन इनमें जब काम करने के बजाय पैसे कमाने की होड़ और काम अटकाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है, तो निराशा होती है।
प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों से जिस तरह की अपेक्षाएं हैं, वे पूरी नहीं हो पा रही है, यह एक गंभीर चुनौती एवं त्रासद स्थिति है। अधिकारियों-कर्मचारियों में जब तक इन गुणों का अभाव बना रहेगा, जब तक भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन असंभव है, आम नागरिकों को परेशानियों से मुक्ति नहीं मिलेगी एवं सरकारी योजनाओं, कार्यक्रमों में अपेक्षित गति नहीं आ पाएगी। भले ही सरकार ने इसके लिये राष्ट्रीय सिविल सेवा क्षमता कार्यक्रम-मिशन कर्मयोगी की शुरुआत की हो। लेकिन सरकारी नौकरशाही तंत्र को सुधारने की दिशाएं उद्घाटित करने के साथ उन पर कठोर कार्रवाई का प्रावधान किया जाना अपेक्षित है। आजादी के करीब 75 साल बाद भी नौकरशाही पर कोई कठोर नियंत्रण की व्यवस्था न हो पाना बड़ी नाकामी हैं। केंद्र हो या राज्य, नौकरशाही को न तो कानून की परवाह है न ही अवमानना का डर। वजह साफ है कि नौकरशाही ने राजनीति से हाथ मिला लिया है और अपने आकाओं को खुश करने के लिए किसी भी कानून को ताक पर रखने से उन्हें परहेज नहीं है। इसके बदले उसे अपना उल्लू सीधा करने का मौका मिल रहा है।
सुप्रीम कोर्ट से आइटी अधिनियम की धारा 66-ए  को अमान्य करार दिए जाने के बावजूद विभिन्न राज्यों में इसका दुरुपयोग लगातार जारी है। 2015 में ही श्रेया सिंघल मामले में सुप्रीम कोर्ट इस कानून को खत्म कर चुका है। विचारणीय यह है कि आखिर कार्यपालिका में बैठे वे कौन लोग हैं जिन्हें शीर्ष कोर्ट की अवमानना का भय भी नहीं है। करीब सात साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने फिर इस पर चिंता जाहिर की है और देश में चल रहे सभी मुकदमों से इस धारा का संदर्भ हटाने का आदेश दिया है। इस कानून में प्रावधान था कि ऑनलाइन कंटेंट पर आपत्ति की शिकायत दर्ज होते ही किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है। इसके तहत उसे तीन साल की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट मान चुका है कि ऐसा करना व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा। लेकिन अब भी देश में सैकड़ों मामले चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कहा था कि राज्यों के सचिवों से संपर्क कर आदेश का पालन कराया जाए। नौकरशाहों के लिये यह मान्यता रही है कि वे बिना राजनीति या अन्य किसी दबाव से प्रभावित हुए कानून के अनुसार अपना काम करेगा, ताकि न्याय का शासन बना रहे।
झारखंड की खान सचिव और उनके करीबियों पर प्रवर्तन निदेशालय को छापेमारी के दौरान करीब 19 करोड़ रुपये कैश बरामद हुए। आलम यह था कि बेड के नीचे छुपाए पैसों को गिनने के लिए मशीन तक मंगानी पड़ी। कार्रवाई में करीब 150 करोड़ की संपत्ति के दस्तावेज भी मिले। उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारी के पास इतनी काली कमाई मिलने का यह कोई पहला उदाहरण नहीं है। इससे पहले और बाद भी न जाने कितने पूजा सिंघल पकड़े जाते रहे हैं। राजस्थान के नागौर स्थित जेएलएन अस्पताल का मामला अहंकार एवं पद के मद का है, जहां सरकारी डॉक्टर, एसडीएम सुनील सियाग से पर्ची कटवाए बगैर इलाज नहीं करने की बात कह रहे हैं। वहीं एसडीएम भी अपने पद का रौब जमाते हुए उसे देख लेने की बात कहते हैं। सवाल है कि जनता के लिए तैनात ड्यूटी डॉक्टर और जनसेवक एसडीएम आपस में ही जूतम-पैजार कर रहे हैं, तो आम जनता की सुध ये क्या खाक लेंगे?
नौकरशाहों की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले वर्ष केंद्र एवं राज्य सरकारों में कार्यरत सभी आईएएस अधिकारियों को अपनी संपत्ति का विवरण देने और उसका स्रोत बताने के लिए कहा था। किसी अधिकारी ने परिवार से बाहर के किसी नाम पर अचल संपत्ति खरीदी हो तो उसका भी विवरण देना था। लेकिन अधिकांश नौकरशाह संपत्ति का विवरण देने में आनाकानी कर रहे हैं। सरकार अपने स्तर पर ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई रही है। इसके अलावा कई नकारा वरिष्ठ अधिकारियों को सरकार ने जबरन रिटायर भी किया है। लेकिन इन सब प्रयासों के बाद भी नौकरशाहों के रवैये में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं देखने को मिलता। इन पर अब तक कानून का चाबुक वांछित सख्ती से पड़ा भी ही नहीं। इक्का-दुक्का मामले ही ऐसे सामने आते हैं जब नौकरशाही पर कोई ठोस कार्रवाई हो पाती है। होती भी है तो कुछ समय के बाद वह अपना दामन बचा ले जाने में सफल हो जाते हैं। चोर-चोर मौसेरे भाई की तर्ज पर एक-दूसरे की मदद करने वाली भ्रष्ट नौकरशाही को बदलने का समय आ गया है। पुराने नौकरशाहों से भले ही ज्यादा उम्मीद न हो पर नए नौकरशाहों को जरूर स्थिति बदलने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसके लिए व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने साल 2018 की करप्शन इंडेक्स रिपोर्ट में भ्रष्टाचार के मामले में भारत की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनकी भाजपा सरकार अपने पिछले कार्यकाल से ही सरकारी दफ्तरों के कामकाज में सुधार लाने के प्रयास करती रही है। इसके लिए उसने कई कदम भी उठाए हैं, जिसमें हर कर्मचारी के समय पर दफ्तरों में पहुंचने और उनके काम करने पर निगरानी का तंत्र विकसित किया गया। उनकी जवाबदेही सुनिश्चित की गई। इन कारणों से थोड़ा-बहुत सुधार हुआ भी है, तो वह बहुत ऊंचे स्तर पर, लेकिन कुल मिलाकर इतना अप्रभावी कि उसे ऊंट के मुंह में जीरा से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। भ्रष्टाचार शासन एवं प्रशासन की जड़ों में पेठा हुआ है, इन विकट एवं विकराल स्थितियों में एक ही पंक्ति का स्मरण बार बार होता है, “घर-घर में है रावण बैठा इतने राम कहां से लांऊ”। भ्रष्टाचार, बेईमानी  और अफसरशाही इतना हावी हो गया है कि सांस लेना भी दूभर हो गया है। राशन कार्ड बनवाना हो, ड्राइविंग लाइसैंस बनवाना हो, डीडीए में मकान/फ्लैट को फ्रीहोल्ड करवाना हो, चालान जमा देना हो, स्कूल में प्रवेश लेना, सरकारी अस्पताल में इलाज कराना हो और यहाँ तक की सांस लेना हो तो उसके लिए भी रिश्वत की जरूरत पड़ती है। प्रशासनिक सुधार आयोग का कहना है कि राजनीतिक कार्यपालिका व स्थायी नौकरशाही के मध्य दायित्वों का सुस्पष्ट निर्धारण होना जनता के कल्याण व सुशासन की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है। ऐसे कर्मयोगी अर्जुनरूपी अधिकारियों एवं कर्मचारियों की जरूरत है जो अपने अदम्य साहस, कर्त्तव्यनिष्ठा, काम के प्रति जबावदेही, जनता की सेवा और संकल्प की बदौलत हमारे लिए धूप के टुकडे़ बनें और काले ”सिस्टम“ में रोशनी देते रहे। अपने-अपने कुरुक्षेत्र में हर अर्जुन के सामने अपने ही लोग होते हैं जिनसे उन्हें लड़ना होता है। यह हर अर्जुन की नियति है।

प्रेषकः

 (ललित गर्ग)

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