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सनातन के समक्ष सुलगते सवाल

संस्कृत रहित सांस्कृतिक चेतना

एक हास्य पूर्ण घटना का जिक्र कुछ यूँ है कि किसी रामलीला कमेटी में लंका दहन का मंचन होना था और संयोग से हनुमान का किरदार निभाने वाला पात्र बीमार हो गया। उसके बदले नए पात्र को ढूंढना मुश्किल था तो उसी नाटक मंडली में प्रतिहारी या पहरेदार का रोल निभाने वाले एक कनिष्ठ अभिनेता को को तैयार किया गया कि वह हनुमान का अभिनय कर ले। उस कनिष्ठ अभिनेता ने पहले से यह स्पष्ट कर दिया कि मुझे लंबे-लंबे डायलॉग नहीं आते । मैं तो जी सरकार , जी महाराज , जो आज्ञा महारानी … ऐसे-ऐसे छोटे डायलॉग बोल सकता हूँ। तो उस मण्डली के नाट्य निर्देशक ने उसे आश्वस्त किया कि आपको मंच का फोबिया तो है नहीं और डायलॉग का क्या है , पर्दे के पीछे जो पंडित जी हैं वे आपको प्रॉम्प्ट करेंगे और आपको वही संवाद बोल देना है बस।
खैर वह अभिनेता तैयार हो गया।
अब पर्दा उठा । मेघनाथ के ब्रह्म पाश में बंधे हनुमान रावण के दरबार में लाए गए। रावण के आर्म्भिक प्रश्नों के बाद अब हनुमान का डायलॉग था ।पीछे से पंडित जी ने प्राम्प्ट करते हुए कहा – सुनो रावण मैं राम का दूत हूँ। तुम ने मेरे प्रभु राम की भार्या जगज्जननी माता सीता का अपहरण किया है , यह बहुत ही गलत बात है। तुम अगर जगज्जननी मां सीता को भगवान श्रीराम को लौटा दो तो तुम्हारा कल्याण होगा अन्यथा तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा ।
ब छोटे-छोटे डायलॉग बोलने वाला वह अभिनेता इतना बड़ा डायलॉग सुनकर इतना घबड़ा गया और उसे बस आखिरी लाइन याद रही कि तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा।
अब डायलॉग तो बोलना ही था।
हनुमान ने बोलना शुरू किया… सुनो रावण जैसा जैसा पंडित जी कह रहे हैं वैसा वैसा कर दो वरना तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा ।

यह तो खैर मज़ाक की बात थी परंतु आजकल हिंदुत्व के साइबर सैनिक भारतीय संस्कृति के झंडावरदार तो बनते हैं परंतु ना खुद उन्होंने संस्कृत पढ़ी है और ना अपनी संततियों को पढ़ाते हैं। और उस पर तुर्रा यह कि बड़े-बड़े व्हाट्सएप पोस्ट कट पेस्ट करके कहेंगे कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे सुयोग्य भाषा है और नासा में ही संस्कृत में शोध हो रहे हैं।

अब चाहे कोई भगवान श्रीराम को ६ साल की आयु वाली सीता से विवाह करता हुआ दिखा दें या अग्नि परीक्षा से पहले राम के मुंह से कटु वाक्यों का उल्लेख करके उन्हें एंटी फेमिनिस्ट घोषित कर दें या फिर शंबूक की चर्चा करके उन्हें दलित विरोधी घोषित कर दें परंतु सनातनियों की तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं आता है और विरोध आये भी कैसे क्योंकि आरोपकर्ता अपनी वामपंथी विचारधारा के कारण सनातन के संस्कृत में लिखे ग्रंथों की पंक्तियों में से कुछ खास पंक्तियां सिलेक्ट करते हैं और उसी का प्रयोग सनातन के विरुद्ध करते हैं। उसका प्रत्युत्तर देने के लिए सनातनियों को संस्कृत में डुबकी लगानी पड़ेगी और यथोचित तर्क तलाशने होंगे परंतु सनातनियों के मन में अपने अतीत , जाति व्यवस्था और खासकर संस्कृत के प्रति इतना विरोध भर दिया गया है कि उन लोगों ने होटल के बेयरे वाली अंग्रेजी को पांडित्य पूर्ण संस्कृत की तुलना में अच्छा माना। आज अगर आप हिंदी या संस्कृत के शब्द अशुद्ध बोलते हैं तो आप बड़े गर्वान्वित होते हैं कि मैंने अंग्रेजी माध्यम से पढाई की इस लिए मेरी हिंदी और संस्कृत अच्छी नहीं है परन्तु और अंग्रेजी का एक अशुद्ध शब्द आपने जैसे ही बोला , तथाकथित मैकाले पुत्र आप का मजाक उड़ाना शुरू कर देंगे ।
मतलब अम्मा के नाम में गलती हो तो कोई बात नहीं पर सास के नाम के उच्चारण में कोई गलती बर्दाश्त नहीं है। सारे के सारे लोग डॉक्टर, इंजीनियर ,ब्यूरोक्रेट, प्रहरी, सैनिक, राजनेता, मैनेजर आदि बनने के लिए तैयार हैं परंतु भाषा को और उसमें भी संस्कृत को अपनी जवानी के ५ साल देने में सब को नानी याद आती है । परन्तु ये याद रखें जब तक आप संस्कृत नहीं सीखेंगे इन विधर्मियों के अनर्गल प्रलापों का कोई जवाब नहीं दे पाएंगे ।
संस्कृत की एक ही वाक्य के कई अर्थ होते हैं क्योंकि संधि और विग्रह के बाद संस्कृत के वाक्य अपना भिन्न-भिन्न अर्थ प्रदान करते हैं ।
आपको एक उदाहरण बताना चाहूंगा और अपने संस्कृत के विद्वान् मित्रों से ऐसी कुछ और जानकारियां चाहूंगा।
एक गुरु अपने शिष्य को पढ़ा रहे थे परंतु कुछ अध्याय पढ़ाने के बाद अगले अध्याय को शुरू करने से पहले वह शिष्य को हर रोज टालने लगे थे ।
शिष्य को आश्चर्य हुआ आखिर क्या वजह है कि गुरूजी पढ़ा नहीं रहे हैं तो परेशान होकर शिष्य ने उस पुस्तक का पृष्ठ पलट कर देखा तो पाया कि जहां तक गुरु ने पढ़ाया था उसके बाद एक वाक्य लिखा था….
‘पूर्वन्तुनोक्तम् अधुनापिनोच्यते’।।

अब शिष्य को पता चला कि गुरु जी आगे क्यों नहीं पढ़ा रहे थे क्योंकि इस वाक्य का अर्थ है… न पहले कुछ कहा है और ना अब कुछ कहना है ।
शिष्य को पता चल गया अन्वय करने में गुरु ने थोड़ी सी गलती कर दी है और शिष्य ने एक पर्ची पर लिखा….

पूर्वम् तुना उक्तम् अधुना अपिना उच्यते।

अर्थात अब तक ‘तु’ पद का उपयोग करके बातें कही गई परंतु अब से ‘अपि’ पद का उपयोग करके बात कही जाएगी।

गुरु ने अगले दिन जब पुस्तक खोली तो पाया कि शिष्य ने एक पर्ची उस वाक्य के अन्वय के साथ लिख छोड़ी थी। गुरु शिष्य पर बहुत प्रसन्न हुए और उस शिष्य को गले लगा लिया ।
इस घटना से आपको पता चल जाएगा कि सनातन के धर्म ग्रंथों में लिखी बातों के कई अर्थ होते हैं। उसमें से यह पढ़ने वाले के ज्ञान , निष्ठा और पक्षपात पूर्ण आचरण पर यह निर्भर करता है कि वह कौन सा अर्थ दुनियाँ को बताता है।

उदाहरण के लिए एक वाक्य है –
केशवम् पतितम् दष्ट्वा द्रोणो हर्षमुपागतः।
इसका सामान्य अर्थ है कि केशव अर्थात भगवान कृष्ण को युद्ध में गिरा हुआ , पतित या परास्त होता हुआ देखकर द्रोण बहुत प्रसन्न हुए परंतु यह इस वाक्य का अर्थ यह नहीं है अर्थ के लिए अन्वय देखें कि –

के शवम् पतितम् दृष्ट्वा द्रोणो हर्षमुपागतः।

अर्थात् पानी में एक शव को गिरा हुआ देखकर द्रोण अर्थात् सियार बहुत खुश हुआ।

अगर कोई वामपंथी सनातन निंदक पढ़े तो वह पहले अर्थ को दोहराएगा परंतु अगर आप संस्कृत जानते हैं तो दूसरे अर्थ को बता कर उसका यथोचित प्रत्युत्तर दे पाएंगे।

मेरा संस्कृत ज्ञान बहुत हीं अल्प है, इसीलिए मेरा मानना है कि अगर विधर्मियों के कुतर्कों का जवाब सनातनी को देना है तो उन्हें संस्कृत पढ़ना पड़ेगा और संस्कृत के ग्रंथों का अनुशीलन करना पड़ेगा। सनातनियों की सांस्कृतिक चेतना जगी तो है। वे वामपंथियों के कुतर्कों पर विरोध प्रकट करने के लिए एकजुट तो हुए हैं परंतु संस्कृत रहित सांस्कृतिक चेतना कुछ वैसे हीं है जैसे उस नाटक के पात्र ने कहा था कि सुनो रावण जैसा पंडित जी कह रहे हैं वैसा कर दो वरना तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा।

#कृण्वन्तो_विश्वमार्यम्

श्री अंजन ठाकुर

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