
है अंधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मनाना है
करोङों हिंदुस्तानियों की तरह नाना ने भी सूखे का संत्रास देखा; आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार वालों के दर्द भरे साक्षात्कार सुने। मैने भी सुने। मेरी हमदर्दी कलम तक सीमित रही, किंतु नाना ने कहा कि टेलीविजन पर देखे दृश्यों से उनका दम घुटने लगा; उनकी नींद उङ गई। उन्होने सोचा - ''जो किसान कभी राजा थे, उनके पास आज न अपने मवेशी के लिए चारा-पानी है और न अपने लिए। मैं जो कर सकता हूं; वह करूं।'' जो मुट्ठी भर धन नाना के पास था, उसे लिया और मकरन्द के कहने पर 15-15 हजार रुपये करके 250 विधवाओं में बांट आये।
लेकिन नाना इससे संतुष्ट नहीं हुए; सोचा कि यह उपाय नहीं है। असली उपाय है कि पानी के खो गये स्त्रोत को ढूंढ निकालो और उसे जिंदा कर दो। लोगों को साथ जोङकर खुद श्रम करो; पसीना बहाओ। महसूस करो कि कैसे कोई किसान तपती धूप और सख्त मिट्टी से जूझकर हमारे लिए अन्न पैदा करता है। नाना ने इसके लिए 'नाम फाउण...