बलबीर पुंज
क्या भारत, चीन से निपट सकता है? यह प्रश्न बीते छह दशकों से प्रासंगिक है। क्या इस संकट का समाधान उन नीतियों में छिपा है, जिसका अनुसरण मई 2014 से पहले 13 पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री कर चुके है?— इसके परिणामस्वरूप ही आज भी 38 हजार वर्ग कि.मी. भारतीय भूखंड पर चीनी कब्जा है। चीन से व्यापारिक संबंध में प्रतिवर्ष लाखों करोड़ रुपयों का घाटा हो रहा है। चीन वर्ष 1959, 1962, 1967, 1975, 1987, 2013, 2017, 2020-21 और 2022 में बिना उकसावे के आक्रामकता दिखा रहा है। ‘काफिर’ भारत के खिलाफ पाकिस्तान के घोषित जिहाद में चीन प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग दे रहा है। नेपाल— जिसके भारत से सांस्कृतिक-पारिवारिक संबंध है, वह चीनी हाथों में खेलकर यदा-कदा भारत विरोधी नीतियां बना रहा है। यह तनाव केवल सीमा तक सीमित नहीं। देश में कुछ चीनपरस्त राजनीति दल और संगठन द्वारा इसपर विकृत विमर्श बनाया जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में स्वाभाविक हो जाता है कि भारत, अड़ियल चीन के खिलाफ क्या करें? क्या केवल वार्ता से आशातीत परिवर्तन संभव है?
भारत का एक वर्ग (वामपंथी सहित) चीन के अनियंत्रित व्यवहार को इस कसौटी पर कसने का प्रयास या यूं कहे कि इसका प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन कर रहा हैं कि मोदी कार्यकाल में भारत का अमेरिका के अधिक निकट जाना— चीन को उकसा रहा है। यदि ऐसा है, तो वर्ष 1962 में जब चीन ने भारत को धोखा दिया, क्या तब भारत-अमेरिका निकटवर्ती थे? क्या यह सत्य नहीं कि उस समय पाकिस्तान, अमेरिका का दुमछल्ला था, जो अब अमेरिका द्वारा धुतकारने के बाद चीनी टुकड़ों पर आश्रित है?
यह सच है कि मोदी शासनकाल में चीन के खिलाफ भारत ‘जैसे को तैसा’ सैन्य नीति को अपना रहा है। जहां चीनी दुस्साहस या इससे संबंधित किसी भी आपातकाल स्थिति से निपटने हेतु सीमा पर आधुनिक हथियारों के साथ बड़ी सैन्य टुकड़ी तैनात है, तो सीमावर्ती क्षेत्र में लंबित वांछनीय आधारभूत संरचना का विकास हो रहा है। एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार, “पाकिस्तान के बजाय अब चीन, भारतीय परमाणु रणनीति के केंद्र में है।” चीन भी समझता है कि परमाणु संपन्न भारत 1962 की पराजित मानसिकता से मीलों बाहर निकल चुका है। फिर भी ऐसा क्या कारण है, जिसमें चीन— भारत के साथ दशकों पुराने सीमा विवाद को समाप्त करने के स्थान पर उसे और अधिक तनावग्रस्त बनाए रखना चाहता है?
हाल ही में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार संबंधित आंकड़ें जारी हुए। वर्ष 2021 में भारत से चीन का व्यापार अधिशेष (आयात की तुलना निर्यात अधिक) 69 अरब डॉलर था, जो 2022 में बढ़कर 101 अरब डॉलर हो गया। स्पष्ट है कि चीन भारत से जितना आयात करता है, उससे कहीं अधिक वह उसे निर्यात करता है। चीन के साथ भारत के व्यापार घाटे का अनुमान इससे लगा सकते है कि भारत के कुल वैश्विक व्यापार घाटे में अकेले चीन की हिस्सेदारी 64 प्रतिशत है।
बीते तीन वर्षों में जब से चीन भारतीय सीमा पर फुफकार रहा है, तब से उसका अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक लाभ भी बढ़ता जा रहा है। यह अभी 878 अरब डॉलर पर है, जोकि 2021 में भारत के कुल रक्षा बजट (दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा) से भी अधिक है। चीन के इसी अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक लाभ में 11 प्रतिशत का योगदान अकेले भारत से है। यही कारण है कि सुस्त होती आर्थिकी, घरेलू संकट और प्रतिकूल परिस्थिति के बाद भी चीन अपने समेकित व्यापारिक अधिशेष के बल पर विश्व (भारत सहित) को दबाने का प्रयास कर रहा है। इस स्थिति को बदलने के लिए भारत को ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ रूपी नीतियों से विनिर्माण क्षेत्र का वैश्विक सिरमौर बनना ही होगा, ताकि चीन द्वारा अत्याधिक आयात से प्रभावित महत्वपूर्ण भारतीय आर्थिक क्षेत्र— ‘सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग’ को सुदृढ़ता मिल सके। स्पष्ट है कि चीन को अकेले सामरिक ही नहीं, अपितु आर्थिक सहित अन्य सभी उपलब्ध विकल्पों के माध्यम से कड़ी और प्रतिस्पर्धी चुनौती देनी होगी। जबतक चीन को व्यापाक नुकसान नहीं होगा, तबतक वह अपनी मनमानी करता रहेगा— फिर चाहे वह भारत हो या चीन के साथ भू-जलीय आदि विवादों में उलझे अन्य 14 देश।
क्या चीनी आक्रामकता का कारण केवल उसका व्यापारिक लाभ है? यह उग्रता कोई एकाएक पैदा नहीं हुई। इस चिंतन की जड़े चीन के सभ्यतागत लोकाचार में निहित है। वर्तमान चीन एक अस्वाभाविक मिश्रित प्रणाली है, जहां एक रूग्ण पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है, जोकि साम्यवादी तानाशाह और साम्राज्यवादी मानसिकता द्वारा संचालित है। दशकों पहले चीन में मार्क्स, लेनिन और माओ प्रदत्त वाम-सिद्धांतों और उनके अमानवीय समाजवादी आर्थिकी की समान-मानसबंधु हत्या कर चुके है। चीन पर शोध करने वाले अमेरिकी लेखक एडवर्ड फ्रीडमैन के अनुसार, “यह (चीन) एक ‘दक्षिणपंथी, लोकलुभावन, अधिनायकवादी’ मशीनरी है, जो पहले से राष्ट्रवाद पर निर्भर है।” चीन पर राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के पूर्व विशेषज्ञ डॉ. मिशेल ओक्सेनबर्ग का कहना है, “चीनी लोग एक ऐसे राष्ट्रवाद का प्रदर्शन करते हैं, जिसे नेतृत्व नियंत्रित नहीं कर सकता।” स्वतंत्र भारत के प्रथम उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के अनुसार, “चीन जिस तरह दूसरे क्षेत्रों को अपने में मिलाना चाहता है, यह कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद है, जो पश्चिमी देशों की साम्राज्यवादी नीति से अलग है। चीन यह सब विचारधारा की आड़ में करता हैं, जिससे वे दस गुना अधिक खतरनाक हो जाता हैं। इसलिए सदियों के बाद पहली बार भारतीय रक्षा पंक्ति को एक साथ दो मोर्चों पर ध्यान केंद्रित करना पड़ रहा है।”
स्पष्ट है कि साम्यवाद की तुलना में चीन को उसका राष्ट्रवाद अधिक आक्रामक बनाता है। वास्तव में, साम्राज्यवादी चीन का अंतिम लक्ष्य अगले कुछ दशकों में प्रमुख प्रतिद्वंदी— अमेरिका से दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र होने का ताज छीनना है। इसके लिए वह सुदूर प्रशांत, पश्चिमी एशियाई देशों के साथ रूस के साथ नया गठजोड़, तो भारत-अमेरिका संबंध और क्वाड समूह का विरोध कर रहा है। अपनी महत्वकांशा की पूर्ति हेतु चीन, जापान के साथ एशिया में एक ‘अलग-थलग’ और ‘मित्रविहीन’ भारत चाहता है, जो उसके षड्यंत्रों में अवरोधक नहीं बने।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।