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ढ़हता किला, बढ़ती उम्मीदें”, जानिए माओवाद के मोर्चे पर बस्तर में कैसे बदल रही तस्वीर

सबसे बड़ी समस्या तो बच्चों एवं महिलाओं की संगठन में भागेदारी सुनिश्चित करने को लेकर थी, जिसको लेकर असहाय ग्रामीणों की सुनने वाला कोई ना था

The Narrative World
नैरेटिव डेस्क

दशकों से माओवाद का दंश झेल रहे छत्तीसगढ़ में बीते वर्षो में सुरक्षाबलों द्वारा किए गए प्रयासों का प्रतिफल अब जमीनी स्तर पर दिखाई देने लगा है, परिणामस्वरूप कभी माओवादियों के गढ़ के रूप में कुख्यात रहे क्षेत्र लाल आतंक की परिसीमा से मुक्त होते दिखाई दे रहे है, इसी क्रम में सुकमा जिले के धुर माओवाद प्रभावित क्षेत्र कुंदर एवं बेदरे में भी सुरक्षाबलों ने डेढ़ दशकों से ज्यादा समय तक प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) के प्रभाव में रही बीजापुर से दंतेवाड़ा को जोड़ने वाली पुरानी सड़क को नक्सलियों के प्रभाव से मुक्त करा लिया है।

दरअसल 17 वर्षो से माओवादियों के प्रभाव में रहे बेदरे एवं कुंदर में सुरक्षाबलों ने अथक प्रयासों से फॉरवर्ड ऑपरेटिंग बेस (एफओबी) स्थापित किया है, इन दोनों बेसेज के निर्माण के बाद दशकों से सुरक्षाबलों के लिए अघोषित रूप से प्रतिबंधित माने जाने वाले इस क्षेत्र का नियंत्रण अब वापस सरकार के पास आ गया है जबकि इस क्षेत्र में दशकों से हो रही माओवादियों की बेरोक-टोक आवाजाही रुक जाने की संभावनाएं बनती दिख रही, हालांकि सबसे सुखद बात वर्षों से बंद पड़े यहां के इमली बाजार के वापस अपनी पूरी रौनक के साथ शुरू होने की संभावनाओं को लेकर है जिसे एक कालखंड में एशिया के सबसे बड़े इमली बाज़ार होने की पहचान प्राप्त थी।

इस क्षेत्र में स्थित जगरगुंडा इमली बाज़ार वर्ष 2006 तक एशिया के सबसे बड़े इमली बाज़ार के रूप में जाना जाता था जिसने माओवादियों द्वारा बीजापुर से जगरगुंडा के रास्ते दंतेवाड़ा जाने वाले व्यापारिक मार्ग के बंद होने के बाद अपनी चमक खो दी थी, नक्सलियों के कब्जे से इस क्षेत्र में रोजगार एवं व्यापार पर भी व्यापक प्रभाव हुआ था बावजूद इसके इस क्षेत्र के ग्रामीण डर के साये में माओवादियों की बात मानने को बाध्य थे।

“अपने चरमकाल में इसे अपने अभेद्य किले के रूप में विकसित करने को लेकर कम्युनिस्ट आतंकियों ने इस पुराने व्यापारिक मार्ग में जगह जगह गड्ढ़े खोदकर यहां के परिचालन एवं सुरक्षाबलों की आवाजाही को स्थायी रूप से बंद कर दिया था, इस क्षेत्र में माओवादियों का प्रभाव ऐसा की उन्होंने प्रशासन तक का पूरा नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया था, जिसके दायरे में छोटे से बड़े हर तरह के कार्य थे, यह एक प्रकार की समानांतर व्यवस्था थी जिसे माओवादियों की टर्मिनोलॉजी में जनताना सरकार बताया जाता रहा है।”

ग्रामीणों की मानें तो तालाब खोदने से लेकर शादी- ब्याह तक सबकुछ नक्सलियों की अनुमति से होना था, आवाज उठाने पर माओवादी रूह कपां देने वाली क्रूरता करते थे ताकि ग्रामीणों में उनका डर एवं दबदबा कायम रह सके, यह इस डर एवं दबदबे का ही परिणाम था कि दशकों तक इस क्षेत्र के ग्रामीण अपने बच्चों को उग्र कम्युनिस्ट विचारों को पढ़ाने एवं उसका गुणगान करने के लिए बाध्य थे, सबसे बड़ी समस्या तो बच्चों एवं महिलाओं की संगठन में भागेदारी सुनिश्चित करने को लेकर थी, जिसको लेकर असहाय ग्रामीणों की सुनने वाला कोई ना था।

हालांकि बीते कुछ वर्षों से क्षेत्र की स्थिति तेजी से परिवर्तित हुई है और सुरक्षाबलों की क्षेत्र में मजबूत होती पकड़ ने ग्रामीणों के भीतर व्यापार एवं विकास के साथ ही सुरक्षा का भी भाव मजबूत किया है, इस क्रम में सबसे पहले सीआरपीएफ की 165वीं बटालियन की सहायता से कुंदर में एफओबी स्थापित किया गया था जिसके बाद केवल 30 दिनों के भीतर ही सुकमा के बेदरे में दूसरा एफओबी भी खोल दिया गया है जिससे इस पुराने व्यापार मार्ग का नियंत्रण अब बलों के पास लौट आया है।

इस मार्ग की बात करें तो यह दंतेवाड़ा से जगरगुंडा के रास्ते बीजापुर को जोड़ने वाली मुख्य पुरानी सड़क है जो कुंदर, बेदरे एवं सिलगेर होते हुए बीजापुर को जोड़ती है, इस धुर माओवाद प्रभावित क्षेत्र में दोनों जिला मुख्यालयों को जोड़ने वाली यही एकमात्र मुख्य सड़क थी जो भी माओवादियों के प्रभाव के कारण आवागमन के लिए उपयोग में नहीं थी अब इस मार्ग के खुल जाने से सुरक्षाबलों समेत ग्रामीणों के लिए भी बीजापुर एवं दंतेवाड़ा पहुँचने की बाधा दूर होते दिखाई दे रही है, जबकि अब तक इस मार्ग का उपयोग अपने हित के लिए करते आए माओवादियों की मुश्किलें और बढ़ती दिखाई दे रही है।

**कितनी बदली है बस्तर की जमीनी वास्तविकता**

इसमें संदेह नहीं कि बीते कुछ वर्षों से देश भर में माओवादियों के अभेद्य किले के रूप में माने जाने वाले बस्तर में परिस्थितियों में तेजी से सुधार हुआ है जिसके परिणामस्वरूप कभी पूरे बस्तर में अपना प्रभाव रखने वाले कम्युनिस्ट आतंकी अब गिने चुने क्षेत्रों में सिमटने को बाध्य हुए हैं, सुनियोजित ढंग से चलाए गए अभियानों के कारण नक्सलियों को बैकफुट पर ढ़केलने में सफल हुए सुरक्षाबलों की मानें तो इस क्रम में सबसे ज्यादा लाभ उन्हें इन क्षेत्रों में स्थापित किये गए फारवर्ड ऑपरेटिंग बेसों से मिला है जिसने माओवादियों की बेरोक टोक आवाजाही समेत उनके आसूचना तंत्र को ध्वस्त करने में अहम भूमिका निभाई है।

बीते वर्षों में धुर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ऐसे दर्जनों एफओबी खोले गए हैं जिसके परिणामस्वरूप माओवाद के दंश से प्रभावित क्षेत्रों को समेटने में प्रभावी सहायता मिलती दिखाई दे रही है, दरअसल क्षेत्र में एफओबी बनाए जाने के कारण ना केवल बृहद अभियानों के समय सुरक्षाबलों को अर्धसैनिक बलों की बड़ी खेप को सीधे सीधे ऑपरेशनल क्षेत्र में सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने में सहायता मिलती है अपितु आस पास के क्षेत्रों में माओवादियों की गतिविधियां की जानकारी समेत ग्रामीणों में विश्वास का भाव उत्पन्न करने में भी यह सहायक है।

यह इसी के कारण है कि केंद्र सरकार के दिशा निर्देशों में एफओबी स्थापित कर उनकी सहायता से इन दुर्गम क्षेत्रों में विकास एवं नक्सल रोधी अभियानों को समानांतर रूप से तेजी से आगे बढ़ाया गया है परिणामस्वरूप कभी पूरे बस्तर पर कम्युनिस्ट आतंक थोपने वाले माओवादी अब स्थायी रूप से केवल नारायणपुर के अबूझमाड़ एवं बीजापुर – सुकमा एवं तेलंगाना के सीमावर्ती क्षेत्रों में सिमट जाने को बाध्य हुए हैं, शेष स्थानों पर उनकी उपस्थिति छिटपुट ही दिखाई देती है जहां उनकी गतिविधियां केवल निर्दोष ग्रामीणों को मारने तक ही सीमित हैं।

इनमें से भी बीजापुर-सुकमा एवं तेलंगाना के ट्राई जंक्शन वाले क्षेत्र में माओवादियों पर सुरक्षाबलों का माओवादियों पर भारी दबाव है और बलों द्वारा इन क्षेत्रों से माओवाद के सफाए के लिए निरंतर अभियान चलाए जा रहे हैं जो मोटे तौर पर माओवादियों के विरुद्ध सुरक्षाबलों की मुहिम का निर्णायक पड़ाव दिखाई पड़ता है, अब ऐसे में इन अभियानों एवं धुर माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में खुल रहे एफओबी से गृहमंत्री के कहे अनुसार वर्ष 2024 तक देश को माओवाद से दंश से मुक्ति मिलने की अपेक्षाओं की अभिपूर्ती होती दिखाई दे रही है, जो क्रांति की सनक में अपने ही देशवासियों पर बंदूकें ताने खड़े माओ के सिपाहियों के लिए तो कतई सुखद नहीं।
**नैरेटिव डेस्क**

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