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सांस्कृतिक राष्ट्रवाद : चुनौतियां और हमारी भूमिका

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परिचयों में पारिभाषिक शब्द चुनना और उन्हीं के न्यूनाधिक विस्तार में परिचय पा लेने का क्रम एक उत्सुक मन को कुछ थाह दे सकता है किंतु जब राष्ट्र की बात हो तो, चिंतन इसकी अनुमति नहीं देता ! प्रसिद्ध चिंतक वासुदेवशरण अग्रवाल ने तो राष्ट्र के स्वरूप का परिचय ही दिया कि भू , जन और संस्कृति के संयोग से ही “राष्ट्र” बनता है। यह तीन इसके प्रमुखांग हैं और इनका संलयन एक स्वाभाविक, प्राकृतिक प्रक्रिया है। राष्ट्र के निर्माण में किसी एक की भी उपेक्षा असंभाव्य है! पश्चिम का संपूर्ण विचार पहले दो कारकों पर ही आधारित है, संभवतः दो सहस्राब्दियों का कालखंड छोटा पड़ गया! संस्कृति को अनुभव में , राष्ट्र के एक जीवमान अंग के रूप में लाने के लिए कुछ और समय की साधना अभी आवश्यक थी! और, भारतीय विचार साधना के पास वह अवसर ईश्वर प्रदत्त रहा! वैदिक काल से आज तक साधना की एक धारा बहती रही और अपने अनुभूतिजन्य विचारों को बिखेरती रही और परंपरा के प्रवाह को अग्रसारित करती रही ।

पर, भारत में भी विचार का यह प्रवाह अकेला न था , शेष विश्व की बात और कुछ रही। समय के साथ साथ चल रहे अन्य धाराओं से , काल सापेक्ष विचार जन्मे और पुष्पित पल्लवित होते हुए एक सीमा तक ही सही, बढ़े और म्लान हो गए या फिर, अपनी उम्र पूरी कर गए ! शेष विश्व ने भी ऐसी मान्यता को आदर दिया ।
पश्चिमी चिंतन का वृहत्तर स्वरूप परिस्थिति सापेक्ष और उसकी प्रतिक्रिया रूप में ही है, जबकि भारतीय चिंतन का अधिकांश परिस्थिति निरपेक्ष, मौलिक है और इसीलिए संभवतः अपने शाश्वत रूप में सभी विचारों का पाथेय आज भी है। वैदिक काल में नारदीय सूक्तों से चली यह धारा एक परंपरा बन हमें आज भी एक शांत, स्वीकृत मार्गदर्शक बनी हुई है।

अधिक नहीं, थोड़ा पीछे लौटें । राष्ट्र की वर्तमान पश्चिम प्रदत्त अवधारणा के तहत यह सिर्फ भौगौलिक सीमाओं और जनसंख्य के आधार पर राष्ट्र का चित्र खींचकर कल्पना को मूर्तरूप देकर आगे के पगों में सफलता ओढ़ लेती है या ओढ़ा देती है, पर यह नहीं समझ पाती कि उस राष्ट्र शरीर में संवेदना या , सूक्ष्म रूप में, आत्मा को कहां से लाए! क्योंकि, उस संवेदना में उसका न तो कोई स्थान है और न ही परिचित उपस्थिति! यद्यपि पिछली दो शताब्दियों में ,भारत की ही दृष्टि में, राष्ट्र नीति को बताने का वर्तमान का प्रारम्भ देखें तो संभवत: कांग्रेस को श्रेय देना होगा । पर , यह भी राजनीति से आगे न बढ़ सकी, राष्ट्र को एक पूर्ण स्वरूप में यह न तो देख सकी और न स्वीकार कर सकी, क्योंकि आधुनिकता के नाम पर कांग्रेस का नेतृत्व अपने को रमा न सका और अपनी संस्कृति को, इसके विचार को “पुरातनपंथ” से अधिक न देख सका! यद्यपि श्री अरबिंदो ( उनका उत्तरपाड़ा का उद्बोधन) और साहित्य, तिलक का गीता रहस्य , नेताजी के स्वामी विवेकानंद प्रेरित विचारों जैसे अद्वितीय योगदानों की अनदेखी उल्लेखनीय रहेगी और दुर्भाग्यपूर्ण समझी जायेगी! इनके अतिरिक्त, भारत भूमि को उर्वरा ने अनेकार्थिक बीज विचार श्रृंखला को दिए! विनोबा का सर्वोदय, लोहिया का समाजवाद प्रेरित विचार, मानवेंद्र नाथ राय का “तार्किक मानववाद” ( Rational Humanism), श्री चारू मजूमदार का नक्सलवाद और दीनदयाल उपाध्याय का “एकात्म मानववाद” प्रमुख हैं।
इनमें “एकात्म मानववाद” को स्वयं में संस्कृति और राजनीति की संयुक्त, प्रमुख विवेचना माना जा सकता है। दीनदयाल जी ने जो देखा, अनुभव किया उसे रेखांकित भी किया! यद्यपि अनुभूति को पूर्ण रूप से शब्दों में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि शब्दों की, परिभाषा की एक अपूर्ण सीमा है, किंतु विश्व को भारतीय विचार साधना की दृष्टि से परिचय कराते हुए जो सूत्र रूप में चार पुरुषार्थों को राष्ट्र जीवन का सांगोपांग परिचय देकर व्यष्टि और राष्ट्र में सीधा संबंध देखकर राष्ट्रजीवन का अंतिम लक्ष्य ( मोक्ष) प्रस्तुत किया है, वह प्राचीन परंपरा का अवगाहन है । और, इसके लिए सम्पूर्ण विश्व की विचार संवेदना ऋणी रहेगी, संसार के प्रचलित “इज़्म” की जमातों में एक नई पौध भर नहीं है।

इससे जुड़ी चुनौतियां तो बहुत गिनाई जा सकती हैं, पर, प्रथम पग से प्रारम्भ आत्ममंथन से होगा कि जीवन और दैनिक आचरण में हम कहां पाते हैं स्वयं को ! और, उससे जुड़ी रचनाशीलता की सकारात्मक दिशा किधर है ! इतना बहुत है और सम्पूर्ण पक्षों को जोड़ लेगा। अगली पीढ़ी को भी, क्योंकि विचार – प्रवाह ही तो सौंपती है एक पीढ़ी दूसरी को! अधिक, कुछ नहीं! हिसाब चाहे जो लगा ले!
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— अनिल महाजन

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