आपको याद होगा कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के नेता प्रवीण नेतारू की हत्या पर कर्नाटक में कितनी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई थी। आशंका रही है कि हत्या के षड़यंत्र में प्रतिबंधित पीएफआई संगठन का हाथ था। कर्नाटक सरकार के सेकुलरी रवैये से भाजपा से त्यागपत्रों की झड़ी लग गयी थी। संभवतः एक किसी बजरंग दल के कार्यकर्ता की भी हत्या हुई थी।
यदि ऐसी ही घटना यूपी में हुई होती तो योगी जी की पुलिस हत्यारे संगठन को मिट्टी में मिला चुकी होती। लेकिन राज्य कर्नाटक था जहां टीपू सुल्तान के भक्तों का राज रहा था। वहां हिंदुत्व अभी जमीन पकड़ रहा था और भाजपा की राज्य सरकार कभी हिंदुत्व व कभी सेकुलरवाद के झूले में झूल रही थी। नेतारू की हत्या ने यह असलियत उजागर कर दी। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर सरकार की लीपापोती ने कर्नाटक में हिंदुत्व की उठ रही संभावनाओं पर पानी डाल दिया। कर्नाटक में सांस्कृतिक शक्तियों के अभियान का बाधित होना, भाजपा के चुनावों पर असर डाल गया। इसके साथ और भी कारण रहे होंगे।
और ये 40% कमीशन? भाजपा सरकार पर अगर ऐसा आरोप लग रहा है तो फिर कांग्रेस के स्कैंडलों से और इनमें फर्क ही क्या रहा। रामचंद्र गुहा जो सेकुलर बुद्धिजीवी हैं, अभी एक चैनल पर टिप्पणी दे रहे थे कि इस आरोप ने मतदाताओं पर अच्छा खासा प्रभाव डाला है। इस आरोप पर यदि इसमें सत्यता थी तो भाजपा नेतृत्व को पहले ही समय रहते राज्य सरकार को दंडित करना चाहिए था। यह तो जीरो टालेरेंस की नीति का मजाक है। दक्षिण के राज्यों में जिनमें कर्नाटक भी है, मतदाताओं को प्रभावित करने में धन वितरण की बड़ी भूमिका रहती है। तो थौली शाहों ने भी मतदाताओं पर असर डालकर विजय में अपना योगदान दिया है।
अब जब कर्नाटक में बजरंग बली का अचानक प्रवेश हो गया है तो आशा है कि भाजपा बजरंगबली को थामें रहेगी, और सेकुलरवाद के अचानक चढ़़ जाने वाले बुखार से बचकर रहेगी।
इस कर्नाटक चुनाव में कांग्रेसी विजय, राहुल गांधी को इतना वजन तो दे ही दे देगी कि वे विपक्षी एकता की राह में एक बड़ी बाधा सिद्ध होंगे। नितीश जी की राह अब आसान नहीं है। अर्थात यह विजय भाजपा के अभियान 2024 में रणनैतिक रूप से सहायक सिद्ध हो सकती है।
मैदान चाहे खेल का हो या चुनाव का… हार जीत तो अवश्यम्भावी होती है। कोई भी टीम या राजनीतिक दल हारने की मंशा से मैदान में नहीं उतरते हैं। हर कोई केवल जीत के लिये ही उतरता है और उसके लिए प्रयास और परिश्रम भी करता है।
एक समय था जब सचिन तेंदुलकर के कंधों पर पूरी टीम का और देश भर की उम्मीदों, आकांक्षाओं, सपनों को पूरा करने का दायित्व होता था या कहें कि उन पर ये दायित्व थोप दिया गया था। किसी मैच में सचिन अगर कम स्कोर बनाकर आउट हो जाते थे तो पूरी भारतीय टीम ताश के पत्तों की तरह ढह जाती थी।
सचिन के ऊपर भारतीय टीम की इतनी ज़्यादा निर्भरता थी कि सचिन के क्रीज़ पर जमे रहने पर पूरा देश निश्चिन्त रहता था कि अगर कुछ विकेट गिर भी जाते थे तो जो लोग मैच नहीं देख पाते थे वो बस एक ही बात पूछते थे, सचिन है कि गया?
पूरे देश और टीम कि उम्मीदों का बोझ लिये सचिन जब जब जल्दी या कम स्कोर पर या मैच जीतने से पूर्व आउट हो जाते थे तब भारतीय समर्थकों में निराशा छा जाती थी।
वहीं हर विपक्षी टीम सचिन को जल्द से जल्द आउट करके पैवेलियन भेजने को प्रयासरत रहती थी। सचिन के आउट होते ही विपक्षी टीम और उनके समर्थक जो खुशी मनाते थे वो क्षण क्रिकेटप्रेमियों के दिल दिमाग में हमेशा के लिये घर कर गए हैं।
लेकिन समय बदला और सौरव गांगुली के नेतृत्व में भारतीय टीम ने विरोधी टीमों के सामने सचिन के आउट होने पर “तू चल मैं आया” की स्थिति से स्वयं को उबारा। अंतिम जोड़ी भी मैदान पर पूरी ताकत से खेलने लगी, जीत के लिये हरसंभव प्रयास करने लगी और इसके सकारात्मक परिणाम भी आये। लंदन में खेली गई नेटवेस्ट सीरीज़ का वो फाइनल किसे याद नहीं होगा जब भारत ने लगभग हारा हुआ मैच जीत लिया था और गांगुली ने लॉर्ड्स की बालकनी से टी शर्ट उतारकर फहराया था।
गांगुली द्वारा संगठित टीम को धोनी ने और भी बेहतर ढंग से आगे बढ़ाया और अंतिम गेंद पर भी हार ना मानते हुए लगभग हारे हुए मैचों को अपने पक्ष में कर लिया। धोनी भारत के सबसे सफल कप्तान के रूप में जाने जाते हैं, धोनी की रणनीति, धैर्य और उनके क्रिकेट के अद्भुत दिमाग ने अनेक बार उन्हें सफलता दिलाई।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि सचिन, गांगुली या धोनी के रहते भारतीय टीम अजेय हो गई थी। अनेक मौकों पर टीम को हार का भी सामना करना पड़ा। इसका अर्थ ये नहीं हुआ कि इन खिलाड़ियों की प्रतिभा या नेतृत्व क्षमता में कोई कमी आ गई थी।
लेकिन टीम के बाकी खिलाड़ियों का सही से नहीं खेल पाना हार की वज़ह बनता था और ये हमेशा रहेगा, क्योंकि अधिकतर खेल टीम वर्क से ही खेले और जीते जाते हैं।
कर्नाटक में भाजपा की हार को लेकर हर कोई अपने अपने हिसाब से विश्लेषण कर रहा है, किसी को ओल्ड पेंशन स्कीम मुद्दा लग रहा है, किसी को बोम्मई सरकार का कामकाज पसंद नहीं था, किसी को लगता है कि लिंगायत समाज को साधने में भाजपा नाकाम रही, तो किसी को लगता है कि अकेले मोदीजी के भरोसे कब तक भाजपा के नेता, मंत्री चुनाव लड़ेंगे या अपने निकम्मेपन को छिपाएंगे, किसी को लगता है कि कर्नाटक भी राजस्थान की राह पर चल पड़ा है जो हर पाँच वर्ष में सत्ता परिवर्तन कर देता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि सचिन की ही तरह मोदी पर भी पूरी पार्टी, समर्थकों का बोझ है। मोदी का अपने व्यस्त रूटीन में से हर चुनाव के लिये समय निकालना भी कम चुनौती भरा नहीं है।
लेकिन जिस तरह से भाजपा केवल मोदी पर आश्रित हो गई है ये भाजपा के लिये ठीक नहीं है। जिस तरह योगीजी ने उत्तरप्रदेश में अपने कामों के कारण ख्याति पाई है, जनता का विश्वास जीता है, जनता का प्रेम और आशीर्वाद कमाया है वैसे ही ना केवल हर भाजपा मुख्यमंत्री को बल्कि केंद्र सरकार में बैठे मंत्रियों को भी करना होगा।
अधिकांश भाजपा समर्थक केजरीवाल को दो दो बार चुनने पर दिल्ली की जनता को गालियाँ देते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं कि केजरीवाल को 70 में से 67 और 63 देने वाली दिल्ली की जनता लोकसभा में सातों की सातों सीटें भाजपा को जिताती है।
इसका अर्थ बहुत साफ है कि अधिकांश राज्यों की जनता केवल विकास, अपनी सुख सुविधा, राज्य सरकारों को काम के आंकलन के हिसाब से ही बनाती या हटाती है, वहीं केंद्र में मोदी जैसी मज़बूत सरकार ही चाहती है।
अधिकांश ग्रुप्स में चर्चा के दौरान हिंदुओं को ही कर्नाटक की हार का दोषी बताया गया है। कहते हैं कि हिंदुओं को भी मुसलमानों जैसी राजनीतिक परिपक्वता को अपनाना होगा। मुसलमान हर उस पार्टी को वोट देते हैं जो भाजपा को हरा सकती है। वो बंगाल में TMC को वोट करते हैं, दिल्ली में आम आदमी पार्टी को देते हैं तो राजस्थान, कर्नाटक, मप्र, छत्तीसगढ़ में काँग्रेस को वोट देते हैं।
भाजपा शीर्ष नेतृत्व निश्चित रूप से इस हार का विश्लेषण करेगा ही, लेकिन जिस तरह से OPS एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है उसे देखते हुए भाजपा को भी अपनी रणनीति में बदलाव करना ही होगा। केवल गरीब, किसान ही नहीं मध्यमवर्ग को भी लाभ देना होगा जो कि ज़मीन पर और सोशल मीडिया पर भाजपा का सबसे बड़ा झंडाबरदार है।
आज भाजपा की हार से निश्चित रूप से सभी विपक्षी पार्टियों, उनके समर्थकों, मोदी भाजपा विरोधी पत्रकारों, कथित बुद्धिजीवियों में खुशी की लहर होगी। उन्हें लग रहा होगा कि 2024 में भी इसी तरह मोदी और भाजपा को धूल चटा देंगे।
लेकिन एक हार से आगे भी हारेंगे ये तय नहीं होता और एक जीत से ये भी तय नहीं होता कि आगे भी जीतते ही रहेंगे, आगे हार नहीं होगी।
उगते सूरज को हर कोई प्रणाम करता है लेकिन डूबते सूरज की तरफ कोई देखता तक नहीं है। हार के कारण अपने शीर्ष नेतृत्व में अविश्वास जताना, मतदाताओं को कोसना, गालियाँ देना ठीक नहीं है।
चूँकि काँग्रेस जीत गई है तो EVM भी सही हो गई है अन्यथा आज हर टीवी डिबेट में बैलेट पेपर से चुनाव कराये जाने की माँग उठ रही होती, EVM पर सवाल उठाये जाते।
गोयाकि हार को कोई गले नहीं लगाना चाहता है और जीत से हर कोई रिश्तेदारी निकाल लाता है।
शीर्ष नेतृत्व मंथन करे कि कहाँ चूक हुई और आगे हर राज्य की परिस्थिति के हिसाब से उचित निर्णय ले, सही उम्मीदवारों का चयन करें, नए और अनुभवी नेताओं का सामंजस्य बनाएँ, टीम वर्क की महत्ता को समझें और हर कोई अपना बेस्ट दे, मोदी शाह के भरोसे ना बैठें, तभी जीत संभव है।
खेल हो या राजनीति… बाजी कभी भी पलट सकती है…