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श्रीराम द्वारा सरयू के दो खण्ड करना तथा सीताजी का सरयू-गंगा संगम पर पूजा का प्रण पूरा करना

श्रीराम द्वारा सरयू के दो खण्ड करना तथा सीताजी का सरयू-गंगा संगम पर पूजा का प्रण पूरा करना
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
श्रीराम द्वारा सरयू के दो खण्ड करना तथा सीताजी का सरयू-गंगा संगम पर पूजा का प्रण पूरा करना
श्रीराम रावण को मारकर मोक्षदायिनी अयोध्यानगरी में रहकर नीतिपूर्वक, निष्कंटक राज्य करने लगे। उनके राज्य में कभी भी अकाल नहीं पड़ा और चोरी की घटना भी नहीं होती थी। किसी का अकाल या कुत्सित मरण नहीं होता था। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डी तथा चूहों से खेती का नाश, पक्षियों से कृषि का विनाश तथा राज विद्रोह आदि विपत्तियाँ श्रीराम के राज्य में कभी भी नहीं आई। श्रीराम के राज्य में कोई दरिद्र, चिन्तातुर, भयभीत या रोगों से पीड़ित नहीं रहता था। उनके राज्य की एक और विशेषता यह थी कि राज्य में कोई भिखारी, दुराचारी, क्रूर, पापी, क्रोधी और कृतघ्न भी नहीं होता था।
ऐसे ही सुख शान्ति के समय एक दिन एकान्त में सीताजी ने अपने प्रिय पति श्रीराम से कहा कि हे राघव श्रेष्ठ! जब आप पिताश्री के कहने पर दण्डकारण्य जाने के लिए मुझे तथा सुमित्रानन्दन लक्ष्मण को साथ लेकर अयोध्यापुरी से चले थे और शृंगवेरपुर जाकर गंगाजी नदी में नाव पर हम लोग सवार हुए थे। उस समय भगवती भागीरथी की बीच धारा में मैंने जो संकल्प लिया था। प्रभो! वह मैं आज आपको सुनाती हूँ।
देवि गंगे नमस्तेऽस्तु निवृत्त: वनवासत:। रामेण सहिताऽहं त्वांलक्ष्मेणेन च पूजये।।
सुरामांसोपहारैश्च नानाबलिभिरादृता। इत्युक्तं वचनं पूर्वं तज्ज्ञातं भवताऽपि च।।
आनन्दरामायण यात्राकाण्डम् सर्ग ३-२६-२७
मैंने गंगाजी को नमस्कार करके कहा था कि दे देवि! जब मैं श्रीराम तथा लक्ष्मण के साथ वनवास से लौटूँगी, उस समय सुरा से, मांस से तथा अनेक प्रकार की पूजा सामग्री से तुम्हारी पूजा करूँगी। उस समय कहे हुए इस वचन को आपने भी सुना था। तदनन्तर चौदह वर्ष बाद हम लोग विमान द्वारा वन से लौटे, तब भरत-शत्रुघ्न और माता कौसल्या के वियोग से आतुर होने के कारण मैं इस बात को भूल गई। हे प्रभो! आज मुझे इस बात का पुन: स्मरण हो आया है। अतएव मेरे उस पूर्व के संकल्प को पूरा करने के लिए माताओं, भाईयों तथा मुझे लेकर आपको गंगाजी के तट पर चलना चाहिए। यह मेरी आपसे प्रार्थना है। सीताजी की इस बात को सुनकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुए तथा सहर्ष कहने लगे, ‘हे मैथिलीÓ! तुम्हारा यह वचन गंगाजी के प्रति नहीं, प्रत्युत मेरे ही प्रति था।
हे वैदेहि! तुम्हारे कथनानुसार मैं कल ही गंगाजी चलने के लिए तैयार हूं। हे प्रिये तुम्हारी जिस स्थान और जिस तीर्थ को चलने की इच्छा हो, वह बोलो। इस प्रकार श्रीराम के पूछने पर-
तत: सीताऽब्रवीद्वाक्यं पुन: श्रीराम चोदिता।
यत्र गंगा च सरयू संगताऽस्ति रघूद्वह।।
तत्र गंगोत्तरे देशे गंतुमिच्छति मे मन:।
इति सीतावच: श्रुत्वा तथेत्युक्त्वा रघूद्वह:।।
आनन्दरामायण यात्राकाण्डम् सर्ग ३-३५-३६
सीता ने कहा- हे रघुनन्दन! जहाँ गंगा और सरयूजी का संगम हुआ है, वहाँ पर गंगाजी के उत्तरी तट पर जाने की मेरे मन में इच्छा है। तदनन्तर सीताजी को महल के भीतर भेजकर तथा द्वारपाल को बुलाकर श्रीराम ने कहा- तुम मेरी आज्ञा से अभी लक्ष्मण के पास जाकर मेरा आदेश उनसे कह दो। उनसे कहा कि कल प्रात: सीताजी की इच्छा से तुम्हारे, माताओं, मन्त्रियों, सेनाओं, भरत-शत्रुघ्न, पुरवासीजनों तथा ब्राह्मणों के साथ सरयू के संगम पर गंगाजी का पूजन करने के लिए धूमधाम से मेरा वहाँ जाना निश्चित हुआ है। अत: मार्ग में दो-दो कोस पर अन्न-जल से परिपूर्ण शिविर तैयार कराओ। श्रीराम के वचनों को सुनकर वह दूत बहुत अच्छा जो आज्ञा महाराज कहकर तथा श्रीराम को बारम्बार नमस्कार करके वहाँ से शीघ्र ही चल पड़ा। द्वारपाल ने लक्ष्मणजी के पास जाकर श्रीराम द्वारा दी आज्ञा विस्तारपूर्वक सुना दी।
तद्रामवचनं श्रुत्वा यौवराज्यपदस्थित:।
सभायां मन्त्रि भिर्युक्तो लक्ष्मणो दूतमब्रवीत्।।
आनन्दरामायण यात्राकाण्डम् सर्ग ३-४३
युवराज पद पर स्थित तथा मंत्रियों के साथ सभा में विराजमान लक्ष्मण ने जब श्रीराम के आदेश को दूत के मुख से सुना तो उससे कहा- तुम जाकर श्रीराम से कहना कि आपकी आज्ञा के अनुसार सब कार्य ठीक हो जाएगा। दूत ने पुन: जाकर श्रीराम को यह सन्देश शीघ्र सुना दिया।
तब लक्ष्मणजी ने सोने के दण्ड धारण करने वाले रंग-बिरंगी पगड़ी सिर पर बाँधे एवं सुन्दर पोशाक पहिने हुए बहुत से सिपाहियों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम लोग शीघ्र नगरभर में घूमकर सब नगरवासियों को श्रीरामजी के कल प्रात:काल यात्रा के लिए प्रस्थान करने का समाचार सुना आओ। तब उन्होंने कहा हे नगरवासियों! ध्यानपूर्वक सुनो। श्रीराम और सीताजी कल प्रात: काल में अन्त: पुरवासिनी स्त्रियों, सगे-सम्बन्धियों और सेना के साथ सरयू नदी के संगम पर श्रीगंगाजी का पूजन-अर्चन करने के लिए प्रस्थान करेंगे।
सिपाही यह समाचार सुनाकर लक्ष्मणजी के पास आ गए। तदनन्तर लक्ष्मणजी ने सेवकों के द्वारा तत्क्षण बढ़ई, ईंट बनाने वाले, राजगीर, सौदा बेचने वाले तथा खरीदने वाले, वैश्य, लकड़हारे, कपड़े के डेरा तम्बू के निर्माण में निपुण दर्जी। भैंसों के द्वारा जल ढोने वाले और कुदाल चलाने वाले आदि मजदूरों की सभा में बुलाकर वस्त्र आदि से सत्कार करके प्रसन्न किया और सम्मानपूर्वक उनसे कहा कल प्रात:काल श्रीराम-सीताजी सेना के साथ तीर्थ यात्रा के लिए जाने वाले हैं। अत: तुम लोग उनके सम्पूर्ण मार्ग को कंकड़-पत्थर बीनकर साफ सुथरा कर दो। उनके यात्रा के मार्ग को समतल कर दो। रास्ते में आने वाली बावड़ी, कुएं तथा तालाबों को साफ कर दो तथा सैकड़ों तालाब-कुएँ आदि खोद दो। आधे-आधे योजन पर सेना के लिए शिविर बनाकर अन्न-जल से परिपूर्ण कर दो। सुन्दर दीवारें खड़ी करके भोजनालय और रसोई के लिए चूल्हे तैयार करो। मार्ग में स्थान-स्थान पर सैकड़ों तथा हजारों की संख्या में आनन्द प्राप्त करने के लिए दीवारों पर सुन्दर रंग-बिरंगे चित्र बना दो तथा मनोविनोद हेतु बीच-बीच में पुष्पवाटिकाएँ लगा दो। पथ-पथ पर गायकों की गायन शालाएं निर्माण कर दो। चन्दन तथा गुलाब आदि के सुगन्धित जल सब रास्तों में छिड़कवा दो तथा चित्र-विचित्र धारीवाले कपड़ों के तम्बू बनाकर जगह-जगह लगा दो।
बैलगाड़ियों में, ऊँटों पर और रथ आदि पर धनुष-बाण, मुद्गर, शक्तिये, तोप (शतघ्नि) रख दो। रास्ते के चौतरफा और दरवाजे आदि पर ध्वजाएँ गाड़ तथा बाँध दो। श्रीरामजी के चारों रथों पर ध्वजाएँ बाँध दो। उन चारों स्यन्दनों पर हनुमान, कोविदार, गरुड़ और बाण के चिन्हों वाली पताकाएँ होनी चाहिए। वे ध्वजाएँ हरे-पीले, श्वेत और नीले रंग की सुन्दर बनी होना चाहिए। श्रीरामचन्द्रजी के लिए हाथी पर हरे रंग की मखमल की गद्दी-तकिया लगाकर उस पर मोतियों के हार टाँग देने तथा सोना-माणिक्य से रचित बहुमूल्य, दिव्य परम सुन्दर श्वेत छत्र लगाने की व्यवस्था की गई। एक दूसरी हथनी की पीठ पर सीताजी के लिए सुवर्ण, मूँगे, रत्न, मोती आदि लगाकर ज़रीदार बहुमूल्य आसन बिछाकर तैयार करने की व्यवस्था की गई। बहुत से रथों में वस्त्र, आभूषण, दुग्ध, दही, पूजा के द्रव्य तथा अच्छे-अच्छे बर्तन रखे गए।
प्रात:काल के समय बन्दियों के गायन और वाद्यों के मधुर स्वर को सुनकर सीता सहित श्रीराम जागे। तदनन्तर नित्यकर्म से निवृत्त होकर अनेक प्रकार के दान किए और गोपाल नाम के ज्योतिषी को बुलाकर श्रीराम ने उन्हें नमस्कार कर तथा पूजा करके कहा- हे ब्राह्मणों! मैं आज तीर्थयात्रा करने के लिए गंगाजी के तट पर जाना चाहता हूँ। अतएव खूब सोच विचार कर कोई श्रेष्ठ मुहूर्त बतलाइए।
गोपाल पंडित ने पंचांग देखकर कहा कि हे राम! आज प्रथम प्रहर में पुष्य नक्षत्र से युक्त बड़ा मुहूर्त है। हे राम! इस शुभ नक्षत्र में आप सीताजी के साथ प्रस्थान करें। उनका यह वचन सुनकर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- हे लक्ष्मण! समस्त सेना को सूचना देने के लिए भेदी, मृदंग, पणक, नंगारे, ढोल, तुरही, झांझ, घण्टा तथा दुन्दभी ये नौ प्रकार के बाजे जोर-शोर से बजाए जाए। उसके बाद श्रीराम ने ब्राह्मणों तथा अपने पुरोहित वसिष्ठजी के साथ गणपति पूजन किया। माताओं तथा बन्धु सहित पुरवासियों को विमान पर चढ़ाकर स्वयं हाथी पर बैठकर चलने को तत्पर हुए। श्रीराम ने सीता से पूछा- हे मैथिली! तुम किस सवारी पर चलोगी? जो पसन्द हो, उस सवारी के लिए मैं आज्ञा दे दूँ। श्रीरामजी के इस वाक्य को सुनकर सीताजी ने क्षणभर मन में विचार किया।
सा प्राह मुदिता रामं करिण्या गमनं मम।
रोचते यदि ते चित्ते तर्ह्यस्तु रघुनायक।।
आनन्दरामायण यात्राकाण्डम् सर्ग ४-१८
फिर प्रसन्न होकर श्रीराम से कहा- हे रघुनायक! यदि आप कहें तो मेरी इच्छा हथिनी पर चलने की है। सीताजी इस इच्छा को जानकर श्रीरामजी ने लक्ष्मण को सीता की सवारी के लिए हथिनी तैयार करने की आज्ञा दी। श्रीराम ने सीता को तथा अपनी माताओं को पहनने के लिए दिव्य वस्त्र दिए। तत्पश्चात् गुरु वसिष्ठजी को अन्य ब्राह्मणों को तथा अपने बन्धुओं को नए कपड़े देकर स्वयं श्रीराम ने भी नूतन वस्त्र पहने अनेक प्रकार के शस्त्र भी बाँध लिए और सीताजी को शीघ्रता करने को कहा। श्रीरामजी ने माताओं तथा गुरु को प्रणाम कर मंत्रियों को साथ ले पालकी पर बैठकर सभा भवन गए। नौ प्रकार के वाद्य बजाए गए। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि हे भाई! मेरी आज्ञा के अनुसार तुम यहाँ नगर की रक्षा करने के लिए सुमन्त्रजी को छोड़ दो। उनके पीछे भरत की पत्नी माण्डवी और माण्डवी के पीछे शत्रुघ्न की प्रिय पत्नी श्रुतकीर्ति चले। नगर की स्त्रियों के साथ माताएँ विमान पर सवार होकर आनन्द के साथ समारोह को देखती हुई आए। तुम जाकर सीता आदि सब स्त्रियों को हथिनियों पर चढ़ा कर ले आओ। उसके बाद मैं हाथी पर सवार होऊँगा। सुमन्त्रजी को नगर की रक्षा का भार सौंप दिया गया। उसके बाद शुभ मुहूर्त में लक्ष्मण के सुन्दर हाथ पकड़कर राज सिंहासन से उठे और उत्तम हाथी की प्रदक्षिणा करके गजदन्त की बनी सीढ़ी पर पाँव रखकर हाथी पर सवार हो गए।
उनके पीछे हाथी पर सवार होकर लक्ष्मण शीघ्रता से चल दिए। लक्ष्मण के हाथी के पीछे सीता आदि स्त्रियां जालियों में से चारों ओर के दृश्यों को देखती चली। पुष्पक विमान भी धीरे-धीरे आकाश में उड़ता हुआ चला। तदनन्तर घुड़सवार, गजसवार और रथसवार सैनिक श्रीराम के दोनों ओर पंक्तिबद्ध होकर खड़े हो गए। जब इस प्रकार श्रीराम हाथी पर सवार होकर धीरे-धीरे चले तब दूसरे गजों पर बैठे हुए गायकगण अपनी-अपनी वीणा लेकर मधुर गान करने लगे। श्रीराम चतुरंगिणी सेना से घिरे हुए धीरे-धीरे सेना निवास के लिए उत्तम शिविर में जा पहुँचे।
उस स्थान को दूसरी अयोध्या के समान सुरक्षित देखकर श्रीराम हाथी से उतर पड़े। बाद में लक्ष्मणजी का हाथ पकड़कर श्रीराम तम्बू में गए और वहाँ सिंहासन पर विराजमान हो गए। सीता आदि स्त्रियाँ भी अपनी-अपनी सवारियों से उतरकर तम्बुओं में चली गईं। तदनन्तर ब्राह्मणों तथा मित्रों के साथ बैठकर श्रीराम ने धृत मिश्रित नाना प्रकार के पकवानों का भोजन किया। भोजन करने के उपरान्त वेदान्त आदि सत् शास्त्रों तथा पुराणों की कथा को श्रद्धापूर्वक और प्रेम से शान्तिपूर्वक श्रवण किया। सायंकाल होने पर यथाविधि संध्यावंदन तथा हवन आदि से निवृत्त होकर सिंहासन पर विराजमान हुए। तत्पश्चात् श्रीराम सीताजी के साथ पलंग पर शयन करने चले गए।
दूसरा दिन भी सारा दिन श्रीराम ने आनन्द से वहीं रहकर व्यतीत किया। तीसरे दिन आनन्दपूर्वक गाजे-बाजे के साथ धीरे-धीरे दूसरे पड़ाव की ओर चल पड़े। इसी तरह कहीं एक दिन, कहीं दो दिन और कहीं तीन-तीन दिन तक निवास करते हुए श्रीराम जानकीजी को भी प्रसन्न करते तथा विविध कौतुकों को देखते रहे। इस तरह एक मास व्यतीत हो जाने पर वे मुद्गल ऋषि के छोड़े हुए एक पुराने तथा पवित्र आश्रम में जा पहुँचे। श्रीराम मुद्गल ऋषि के पुराने आश्रम पर आए। यह सुनकर मुद्गल ऋषि भागीरथी के दक्षिण तट पर स्थित अपने नवीन आश्रम से दर्शन करने के लिए उनके पास आए। श्रीराम ने उन्हें देखकर प्रणाम किया और उनकी विविध पूजा की। उनको आदरपूर्वक आसन पर बैठाया तथा उनसे नम्रतापूर्वक कहा हे मुनिश्रेष्ठ! आपने इस आश्रम को क्यों त्याग दिया। हे महाभाग! इसका कारण विस्तारपूर्वक आप हमें सुनाइए। यह सुनकर मुद्गल मुनि कहने लगे- हे राम! मेरा धन्य भाग्य है कि जो मैं आज बहुत दिनों के बाद वनवास से लौटते हुए आपको अपनी आँखों से देख रहा हूँ। पूर्वकाल में भरत के प्राणों की रक्षा करने के लिए जब आप मेरे आश्रम से दिव्य औषधि ले गए थे, तब मुझे आपके दर्शनों का अवसर प्राप्त हुआ था। अब मैंने इस आश्रम को क्यों छोड़ दिया, इसका कारण कहता हूँ।
सान्निध्यं नात्र गंगाया: सरभ्वा आदि नात्र वै।
इति मत्वा मया त्यक्तश्वाश्रमोऽयं महत्तम:।।
आनन्दरामायण यात्राकाण्डम सर्ग ४-६८
हे प्रभो! मैंने इस विशाल आश्रम को केवल इसलिए छोड़ दिया है कि वहाँ पर गंगा अथवा सरयू इन दोनों पवित्र नदियों में से कोई भी नदी नहीं है।
इस आश्रम में निवास करके हजारों मुनीश्वरों ने सिद्धि प्राप्त की है और मैंने भी कुछ दिनों तक यहाँ रहकर तपस्या की है। हम कर ही क्या सकते हैं कि किसी तीर्थ के न होने से इस स्थान पर बड़ा कष्ट है। हे राम! यह तो मैंने आपके पूछने के उपरान्त इस आश्रय को त्यागने का कारण बताया है। अब आप और क्या जानना-पूछना चाहते हो। मुनि की इस बात को सुनकर श्रीराम ने कहा हे मुने? आप ही यह बताइए कि अब क्या करने से आप फिर इस आश्रम में निवास कर सकते हैं।
तद्रामवचनं श्रुत्वा राधवं प्राह मुद्गल:।
यद्यत्र सरयूनद्या: संगमोहि भविष्यति।।
जान्हव्या: तर्ह्यह चात्रं वत्स्ये राम यथासुखम्।
तत्तस्य वचनं श्रुत्वा राघव: प्राह तं पुन:।।
आनन्दरामायण यात्रा काण्डम् सर्ग ४-७२-७३
श्रीराम के प्रेमपूर्वक प्रश्न को सुनकर मुद्गल ऋषि ने कहा- यदि यहाँ पर सरयू और गंगा का संगम हो जाए तो मैं बड़े सुख से रह सकता हूँ। इस बात को सुनकर श्रीराम ने पुन: उनसे प्रश्न किया।
हे महाभाग! सरयू नदी का इतना श्रेष्ठ माहात्म्य क्यों है? और यह कहाँ से इस धरातल पर आई है। इन बातों का विस्तार से वर्णन कीजिए। मुद्गल मुनि ने कहा- हे प्रभो! आप अपना ही चरित्र (लीला) मेरे मुख से सुनना चाहते हैं। तो हे रघूत्तम! मैं आपको सुनाता हूँ सुनिए। पहिले कभी शंखासुर नामक एक बड़ा भयंकर राक्षस हुआ था। वह सब वेदों को हर कर ले गया था। उसने उन्हें ले जाकर समुद्र में डुबो दिया तथा स्वयं भी उसी महासागर में छिप गया। उसका वध करने के लिए आपने बड़ी भारी मत्स्य का रूप धारण किया और उसका वध करके वेदों की रक्षा की। वेदों को लाकर अपने ब्रह्माजी को दे दिया और प्रसन्नतापूर्वक पुन: अपना पूर्व रूप धारण कर लिया। उस समय आपके नेत्रों से आनन्दाश्रु की बूँदें टपक पड़ी। हिमालय पर गिरी हुई आपनारायण के उन उन हर्षाश्रु की बूँदों ने एक पवित्र तथा निर्मल जलवाली नदी का रूप धारण कर लिया। आगे चलकर वे कासार और कासार से मानसरोवर के रूप में परिणित हो गए। हे राम! उसी समय आपके पूर्वज महात्मा वैवस्वत मनु ने यज्ञ करने की इच्छा करके अपने गुरु से कहा- इस अयोध्यापुरी के अनादिकाल से स्थित रहने पर भी मैंने अपने निवास के लिए इसकी कुछ विशेषतापूर्वक रचना करवाई है। इस कारण यदि आप कहें तो मैं इस नगरी में यज्ञ करूँ। तब गुरुजी ने कहा कि देखिए न तो यहाँ कोई पवित्र तीर्थ है और न कोई बड़ी पवित्र नदी है। इसलिए यदि आपकी यहीं यज्ञ करने की इच्छा हो तो हे नृपपति श्रेष्ठ! मानसरोवर से सुन्दर तथा पापों को नष्ट करने वाली एक नदी यहाँ ले आइए। गुरुजी के इस वचन को सुनकर राजा वैवस्वत मनु ने अपने विशाल धनुष को चढ़ाकर तथा टंकार करके बाण चलाया। वह बाण मानसरोवर को भेदकर उसमें से निकली नदी के आगे-आगे चलकर रास्ता दिखाते हुए अयोध्या ले आया। बाण के मार्ग का अनुसरण करती हुई वह नदी अयोध्या आई तथा वहाँ से आगे जाकर पूर्वी महासागर में मिल गई। शर के द्वारा लाई जाने से लोक इसको ‘सरयूÓ नदी कहने लग गए अथवा सरोवर से निकलकर आने के कारण उसका ‘सरयूÓ नाम पड़ गया। कुछ लोगों का कथन है कि उसके बाद राजा भागीरथ कपिल मुनि की क्रोधाग्नि से जलाए गए अपने पूर्वक सगर-पुत्रों को स्वर्गलोक भेजने की इच्छा से आपके चरणारविन्द से प्रादुर्भूत भागीरथी गंगा को ले आए।
तदनन्तर शिवजी को तप से प्रसन्न करके उस नदी को सरयू में ला मिलाया। शंकर भगवान के वरदान से गंगा की बड़ी भारी प्रसिद्धि हुई तथा समुद्र तक उसको लोग गंगाजी कहने लग गए। हे प्रभु! आपके चरण कमलों से निकली हुई गंगा समस्त विश्व को पवित्र करने लगी। वैसे ही आपके नेत्रजल से उत्पन्न होकर वह सरयू भी लोगों को पावन करने लगी। हे भगवान् अब आगे क्या कहूँ? करोड़ों वर्षों में भी इस सरयू नदी की महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता। हे राम! आपने जो पूछा था अतएव मैंने कह सुनाया। मुनि के इस वाक्य को सुनकर रघुपति श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा-
सरयूमानयस्वात्र शरं मुक्त्वा ममाझया।
तथेति रामवचनाध्दृत्वा चापं स लक्ष्मण:।।
शरं मुक्त्वा तटं भित्वा सरयूमानयत्क्षणात्।
सरयू सा द्विधा भुत्वा मुद्गलाश्रममाययौ।।
आनन्दरामायण यात्राकाण्डम् सर्ग ४-९५-९६
तुम बाण छोड़ तथा सरयू के तट का भेद न करके उसे यहाँ ले आओ। लक्ष्मण ने वैसा ही किया और वह सरयू दो भागों में विभक्त होकर क्षणभर में मुद्गल ऋषि के प्राचीन (पुराने) आश्रम में आ पहुँची। उसको अकेले ही नहीं किन्तु गंगा के संगम सहित आई हुई देखकर श्रीराम ने कहा कि लक्ष्मण दारण (चीर) करके इस नदी को यहाँ ले आए हैं। इसलिए इस जगह दद्री नाम की प्रसिद्ध नगरी बसेगी। वह दद्री नगरी पृथ्वी तल में बदरीनाथ धाम से भी जौ भर बढ़ कर पवित्र होगा। इसमें सन्देह नहीं है। विशेष रूप से आपके यहाँ निवास करने से इसकी और भी अधिक प्रसिद्धि होगी। तदनन्तर श्रीराम ने सीता को बुलाकर कहा कि हे सीता देखो, लक्ष्मण मेरे नाम से चिह्नित बाण छोड़कर सरयू नदी को यहाँ मुद्गल मुनि के आश्रम में ले आए। अब तुम हमारी माताओं अन्य स्त्रियों, गुरुजनों तथा ब्राह्मणों का साथ लेकर तथा इस पुष्पक विमान पर सवार होकर जहाँ सरयू तथा गंगा का संगम है, वहाँ जाओ और अपनी प्रतिज्ञा (प्रण) के अनुसार विधि-विधानपूर्वक उनकी पूजा कर आओ। वहाँ से लौटकर शीघ्र ही मेरे तथा इन मुद्गल मुनि के सम्मुख इस नवीन सरयू तथा भगवती भागीरथी के संगम का मेरे साथ पूजन करो।
ततो ग्रहीत्वा संभारान् पूजार्थं जानकी जवात्।
कौसल्यादिश्वश्रूभिस्तु पुष्पकं चारूरोह सा।।
क्षणेन वृद्धा सरयूर्यत्र सा गंगाया शुभा।
शङ्गताऽस्ति महाश्रेष्ठा: तत्र प्राप विदेहजा।।
आनन्दरामायण यात्राकाण्डम् सर्ग ५-१-२
बाद में सीताजी पूजा की सब सामग्री लेकर कौसल्यादि सासुओं तथा बहुओं के साथ शीघ्रता से पुष्पक विमान पर जा बैठी। क्षण भर में सीता सहित सब पुराने संगम पर जा पहुँची, जहाँ पर सरयू पवित्र गंगा नदी से मिलती है। वहाँ पहुँचने पर सीताजी विमान से नीचे उतरी और संगम को नमस्कार किया। पश्चात् पुरोहित के कथनानुसार सीताजी ने ऐपन१ सहित नारियल गंगाजी को समर्पित करके उसमें विधिवत स्नान किया। फिर सुरा-मांस-पकवान आदि की बलि से दुपट्टा आदि सुन्दर वस्त्रों से दिव्य आभूषणों से मुक्ता के हार से, चन्दन से तथा वायन2 आदि पूजा के उपकरणों से विधिवत तथा विस्तारपूर्वक सीताजी ने संगम का पूजा कर अपना प्रण पूर्ण किया।
ऐपन१- पिसे गीले चावल और हल्दी को मिलाकर बनाया हुआ पूजा का द्रव्य।
वायन२- मिठाई या पकवान जो देव पूजा या विवाहादि में बनाया जाता है।

प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर

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