दल्ली में चुनावी दंगल अब जरूरी
आम आदमी पार्टी कितनी भी सफाई पेश करे, कितने भी तर्क प्रस्तुत करे, दुराशय के कितने भी आरोप लगाए, यह तो तय है कि बीसों विधायकों की सदस्यता समाप्त होकर ही रहेगी। चुनाव आयोग ने तो अपना फैसला दे ही दिया है, उच्च न्यायालय और राष्ट्रपति का फैसला भी शीघ्र ही आ जाएगा। ये तीनों भी यदि ‘आपÓ के 20 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के फैसले को ठीक कह दें तो क्या वह ठीक हो जाएगा?
देश के लगभग आधा दर्जन राज्यों में संसदीय सचिवों की नियुक्ति पर अदालती दंगल चल रहा है। इन नियुक्तियों का जो भी औचित्य बताया जाए, इनके रद्द होने पर सरकार की छवि बिगड़ती है। जब दिल्ली में 20 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया, मैं तब ही सोच रहा था कि दिल्ली की इस एक छोटी-सी सरकार को चलाने के लिए इतने दबे-ढके मंत्रियों को पिछवाड़े से लाने की क्या जरुरत है कुल 65-70 विधायकों की विधानसभा में 25-30 मंत्रियों या मंत्री-तुल्यों की जरुरत क्यों है? यह ठीक है कि सरकार उन्हें वेतन नहीं देती है लेकिन क्या सिर्फ वेतन के कारण ही उनके पद को ‘लाभ का पदÓ कहा जाता है? इन नेताओं के लिए वेतन की क्या कीमत है ? जितना वेतन उन्हें हर माह मिल सकता था, उतना तो वे रोज दबोच लेते हैं। पहले वे वोट कमाते हैं, फिर नोट कमाते हैं। उन्हें सरकारी दफ्तर, सहायक, वाहन, भत्ते आदि तो मिलते ही होंगे।
इन सब तथ्यों की सफाई चुनाव आयोग ने मांगी थी लेकिन ये मंत्रीनुमा विधायक उसके आगे गए ही नहीं। आयोग के सामने पेश होना उनकी शान में गुस्ताखी होती। अब वे कह रहे हैं कि आयोग ने उनकी कहानी सुने बिना ही उन्हें सजा दे दी है। 2015 में नियुक्त इन संसदीय सचिवों को उच्च न्यायालय ने 2016 में इसलिए अमान्य कर दिया था कि उप-राज्यपाल ने इनकी नियुक्ति पर मोहर नहीं लगाई थी। इसलिए अब जबकि घोड़ा अस्तबल में है ही नहीं तो दरवाजे बंद करने की क्या तुक है?
जाहिर है कि ये नियुक्तियां विधायकों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से उतनी नहीं थीं, जितने उनके अंहकार को तुष्ट करने के लिए थीं या आम आदमी पार्टी को टूटने से बचाने को थी। जो भी हो, अब अरविंद केजरीवाल को चुनाव की तैयारी करनी चाहिए और उसके 20 में से 10 उम्मीदवार भी जीत गए तो यह गुजरात में मोदी की सफलता से बड़ी सफलता होगी। यदि अदालत उन्हें बचा भी ले तो भी वे इस्तीफा दें और चुनाव लड़ें। देखें, फिर क्या होता है?