महर्षि वाल्मीकि रामायण के राम
ब्रह्माजी ने महर्षि वाल्मीकि को वरदान देकर कहा- पुण्यमयी मनोरम कथा कहो। पृथ्वी पर जब तक गिरि और सरिताएँ हैं, तब तक श्रीरामकथा लोकों में प्रचारित होती रहेगी यथा-
कुरु रामकथां पुण्यां श्लोकबद्धां मनोरमाम्।
यावत् स्थास्यन्ति गिरय: सरितश्च महीतले।।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।
यावद् रामस्य च कथा त्वत्कृता प्रचरिष्यति।।
वाल्मीकि रामायण बाल ३५ ३६-३७
ब्रह्माजी ने वाल्मीकिजी से कहा कि तुम श्रीरामचन्द्रजी की परम् पवित्र एवं मनोरम कथा को श्लोकबद्ध करके रचना करो। इस पृथ्वी पर जब तक नदियों और पर्वतों की सत्ता रहेगी, तब तक संसार में रामायण की कथा का प्रचार होता रहेगा। जब तक तुम्हारी बनाई हुई रामायण का (श्रीरामकथा) तीनों लोकों में प्रचार रहेगा।
वाल्मीकिजी ने नारदजी से पूछा कि हे मुनि! इस समय इस संसार में गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्यवक्ता और दृढ़ प्रतिज्ञ कौन है? सदाचार से युक्त समस्त प्राणियों का हित साधक विद्वान, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन पुरुष कौन है?
मन पर अधिकार रखने वाला, क्रोध को जीतने वाला कान्तिमान और किसी की भी निन्दा नहीं करने वाला कौन है? तथा संग्राम में कुपित (क्रोधित) होने पर जिससे देवता भी डरते हैं? महर्षे मैं यह सुनना चाहता हूँ इसके लिए मुझे बड़ी उत्सुकता है और आप ऐसे महापुरुष को जानने में समर्थ हैं।
महर्षि वाल्मीकि ने इन वचनों को सुनकर तीनों लोकों का ज्ञान रखने वाले नारदजी ने उन्हें सम्बोधित करके कहा- अच्छा सुनिये और फिर प्रसन्नतापूर्वक बोले-
बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणा:।
मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्त: श्रूयतां नर:।।
इक्ष्वाकुवंश प्रभवो रामो नाम जनै: श्रुत:।
नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान् वशी।।
वाल्मीकि रामायण बाल. १-७-८
मुने! आपने जिन दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है, उनसे युक्त पुरुष को मैं विचार करके कहता हूँ आप सुने। इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगों में राम नाम से विख्यात हैं वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान् कान्तिमान, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं। वे बुद्धिमान नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रुसंहारक है।
इस प्रकार वे धर्म के ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजा के हित साधन में लगे रहने वाले हैं। वे यशस्वी इतनी पवित्र, जितेन्द्रिय और मन को एकाग्र रखने वाले हैं।
सर्वदाभिगत: सद्भि: समुद्र इव सिन्धुभि:।
आर्य: सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शन:।।
वाल्मीकि रामायण बाल १-१६
जैसे नदियाँ मिलती हैं, उसी प्रकार सदा श्रीराम से साधु पुरुष मिलते रहते हैं। वे आर्य एवं सबमें समान भाव रखने वाले हैं, उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालुम होता है।
इस प्रकार श्रीराम में अनेक गुण हैं अत: आज भी हर परिवार कहता है कि बेटा (पुत्र) हो तो राम जैसा। जिन परिवारों में रामायण के आदर्शों का अनुसरण एवं आचरण होता है वहाँ सुख, समृद्धि और शान्ति की स्थापना हो जाती है, जिन परिवारों में रामायण के आदर्श नहीं होते हैं वहाँ महाभारत हो जाती है अर्थात् परस्पर युद्ध और विनाश हो जाता है। श्रीराम का अर्थ प्रेम और त्याग का जीवन। आज हमें परिवार में श्रीराम सा चरित्र निर्माण करने की नितान्त आवश्यकता है तभी परिवार में सुखी समृद्ध और शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकेंगे। अन्त में यह कथन प्रसिद्ध है-
रामेण सदृशों देवो न भूतो न भविष्यति।
(आनन्दरामायण)
सूरदासजी के राम
जिन पर भगवान् की कृपा की वर्षा होती है, उनमें संकीर्णता अथवा भेद दृष्टि कभी भी नहीं होती है। यद्यपि सूरदासजी के परम आराध्य श्रीकृष्ण ही है किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीराम में सूरदासजी तो अभेद बुद्धि के महान संत हैं। सूरदासजी के जो प्रसिद्ध एवं साहित्य जगत में पद प्रचलित हैं उन्हीं के आधार पर विशेष रूप से श्रीरामजी के भक्तिपूर्ण पदों को दिया जा रहा है। प्रस्तुत पद सूर-विनय-पत्रिका नाम से संग्रहित पुस्तक में से कुछ पद सरल भावार्थ सहित है। इससे इन पदों के अर्थ को हृदयङ्गम करने में सर्वधारणों एवं सुधीजनों को सुविधा एवं आसानी होगी।
बड़ी है राम नाम की ओट।
सरन गए प्रभु काढ़ि देत नङ्क्षह, करत कृपा कैं कोट।।
बैठत सबै सभा हरि जू की, कौन बड़ौ को छोट?
सूरदास पारस के परसैं मिटति लोह की खोट।।
सूर-विनय-पत्रिका राग कान्हरौ-१४।
श्रीरामनाम का आश्रय सबसे महान है। शरण में जाने पर श्रीराम किसी को निकाल नहीं देते अर्थात् शरणागत का त्याग नहीं करते हैं। अपितु उसे कृपारूपी दुर्ग (किले) में रख लेते हैं। श्रीहरि की सभा में सभी बैठते हैं। सभी शरण ले सकते हैं। वहाँ कौन बड़ा और कौन छोटा सभी एक समान रहते हैं। सूरदासजी कहते हैं कि पारस का स्पर्श होने पर लोहे का दोष मिट जाता है। इसी प्रकार भगवान् (श्रीराम) के शरणागत होने पर जीव के दोष नष्ट हो जाते हैं।
जौ तू राम-नाम-धन धरतो।
अब कौ जन्म, आगिलौ तेरौ, दोऊ जन्म सुधरतौ।।
जम कौ त्रास सबै मिटि जातौ, भक्त नाम तेरौ परतौ।
तंदुल-धिरत समर्पि स्यामकौं, संत-परोसी करतौ।।
होतौ नफा साधु की संगति, मूल गाँठि नहिं टरतौ।
सूरदास बैकुंठ-पैंठ मैं, कोउ न फैंट परकतौ।।
सूर-विनय-पत्रिका राग सोरठ १४५
यदि तू श्रीरामनाम रूपी धन को एकत्र करता अर्थात् श्रीरामनाम का जप करता तो यह जन्म और अगला जन्म इस प्रकार दोनों जन्म ही सुधर जाते। यमराज का सारा भय मिट जाता और तेरा नाम भक्त पड़ जाता। श्यामसुन्दर को चावल और घी समर्पित करके भगवान् को भोजन के पदार्थों का भोग लगाकर यदि संतों को भोजन कराता तो साधु पुरुषों का संग लाभ (सत्संग में) मिलता अर्थात् सत्संग प्राप्त होता जिससे श्रीरामनाम भजन रूपी मूलधन गाँठ में से गिरता नहीं। सत्संग से यह ज्ञात हो जाता है कि भजन का उपयोग सांसारिक कामना-पूर्त्ति के लिए नहीं करना चाहिए। सूरदासजी कहते फिर बैकुण्ठ रूपी बाजार में कोई तेरी फेंट पकड़ता अर्थात तू यहाँ क्यों आया? यह कहकर कोई नहीं रोकता।
राम नाम बिनु क्यौ छूटौगै, चंद गहै ज्यौ केत।
सूरदास कछु खरच न लागत, राम नाम मुख लेत।।
सूरविनय पत्रिका-९८ गीता प्रेस गोरखपुर, उ.प्र.
राहु ग्रस्त चन्द्रमा के समान रामनाम लिए बिना (संसार से) तू कैसे छूट सकता है। (यह पुराणों की कथा में वर्णित है कि भगवान के चक्र के द्वारा डराये जाने पर ही राहु चन्द्रमा या सूर्य को छोड़ता है) सूरदासजी कहते हैं कि मुख में रामनाम लेने में कुछ खर्च तो नहीं लगता फिर भी क्यों रामनाम नहीं लेता है?
मीरा के नाम
शायद शीर्षक देखकर आपको आश्चर्य हुआ होगा कि मीरा श्रीकृष्ण भगवान् की अनन्य भक्त होने के साथ ही साथ श्रीराम की भक्ति में मग्न हो जाती थी। इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिये कि हमारी संस्कृति सदैव समन्वयवादी रही है। मीरा चित्तौड़ के राजा महाराजा साँगा की पुत्रवधू थी। उन्होंने महलों के सुख-ऐश्वर्य एवं वैभव को तिलाञ्जलि देकर वृन्दावन में भगवान गिरधर गोपाल की भक्ति साधना में लीन होकर जीवन व्यतीत किया। देखने एवं सुनने में ऐसा लगता है कि मीराजी ने प्रमुख रूप से श्रीकृष्ण की ही उपासिका के रूप में ख्याति प्राप्त की थी। मीरा के पदों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनके अनेक पदों में श्रीरामनाम के प्रति अपूर्व निर्मल श्रद्धा और अटूट निष्काम भक्ति की झलक स्पष्ट दिखायी देती है। यद्यपि उन्होंने अपने पदों में श्रीकृष्ण के सगुण रूप का माधुर्यपूर्ण सौन्दर्य निरूपित किया है किन्तु उनके ही अनेक प्रकीर्ण पदों में निर्गुण रामनाम की महिमा का यशोगान भी गाया गया है। मीरा की दृष्टि में राम और कृष्ण में कोई भेद नहीं है अर्थात उनकी अभेद भक्ति ही थी। एक ओर वे साधना के क्षेत्र में श्रीकृष्ण के सगुण रूप के प्रति विशिष्ट रूप से आकर्षित होकर गुणगान करती थी तो दूसरी तरफ साथ ही साथ रामनाम के प्रभाव और महिमा का गान किए बिना नहीं रहती थी। इस प्रकार उनकी समन्वयवादी या उदार प्रवृत्ति की भक्ति थी।
मीरा के पदों में श्रीराम के वर्णन का कारण तुलसीदासजी की प्रेरणा से एवं भक्तिभावना से प्राप्त होता है। तुलसीदासजी का प्रभाव मीरा पर इतना अधिक पड़ा कि वे भगवद्भक्ति साधना, रामभक्तिमय वातावरण से अपने आपको दूर नहीं रख सकी। मीरा ने संत कबीर और भक्त रैदासजी द्वारा प्रतिपादित संतमत की निर्गुण भक्ति की परम्परा के अनुसार अपने पदों में निर्गुण राम-तत्व और रामनाम का चिन्तन किया। उन्हें राम रत्न की प्राप्त भी सद्गुरु की कृपा से प्राप्त किया। मीरा ने इस प्रकार निर्गुण राम की भक्ति के रूप में जन्म-जन्म की पूँजी प्राप्त की है। मीराबाई का यह पद बहुत अधिक आज भी प्रसिद्ध है।
मैनें राम रतन धन पायौ।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुर, करि किरपा अपणायौ।।
जन्म जन्म की पूँजी पाई, जग में सबै खोवायौ।
खरचै नहिं कोई चोरन लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायौ।।
सत की नाव, खेवटिया सतगुर, भवसागर तरि आयौ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरखि हरखि जस गायौ।।
मीरा मंदाकिनी १०५-
संसार सागर (ंभवसागर) से पार उतरने के लिये उन्होंने प्रभु के विरह में पदों की रचना कर रामनाम का बेड़ा बाँधा। वे जीवनभर प्रभु के वियोग में रो-रोकर अपने आपको यही कहकर ढाँढस बँधाती थी कि भवसागर के प्रबल वेग और अनन्त गहरी धारा में रामनाम से पार किया जा सकता है।
नाहिं ऐसौ जनम बारंबार।
का जानूँ कछु पुण्य प्रगटे मानुसा अवतार।।
भौसागर अति जोर कहिये अनँत ऊंडी धार।
राम-नाम का बाँध बेड़ा उतर परले पार।।
साधु संत महंत ग्यानी चलत करत पुकार।
दास मीरा लाल गिरधर जीवणा दिन च्यार।।
मीरा मन्दाकिनी ८८
मीरा ने अपने विरहमय जीवन में श्रीकृष्ण और श्रीराम में कोई भेद न करके उन दोनों को अपना सर्वस्व स्वीकार किया है। वह श्रीराम को अपना सब कुछ मानती थी। राम के बिना उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता है उनका यह विरह गीत इस बात का प्रतीक है-
मेरे प्रीतम प्यारे राम कूँ लिख भेजूँ रे पाती।
स्याम सनेसो कबहुँ न दीन्हौं जानि बूझ गुझबाती।।
डगर बुहारूँ पंथ निहारुँ, जोई जोई आँखिया राती।
राति दिवस मोहिकल न पढ़त है हियो फटत मेरी छाती।।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे पूरब जनम के साथी।।
मीरा मन्दाकिनी ५३
सिख पंथ में राम
सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरुनानक देवजी महाराज की १५वीं शताब्दी में उनकी अमृत वाणी से भारत धन्य हुआ। वस्तुत: श्री गुरुनानक देवजी महाराज के आविर्भाव वर्ष १४६९ के समय भारत की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ अत्यन्त ही विषम थीं। धर्म में जहाँ ढोंग, पाखण्ड और आडम्बर का बोल बाला था, वहीं भारतीय समाज जात-पांत, ऊँच-नीच के भेदभाव से ग्रस्त था और जनसामान्य तत्कालीन क्रूर शासकों की अन्यायपूर्ण अनीति से पीड़ित था। उस विषम परिस्थिति में श्रीगुरुनानक देवजी महाराज ने विश्वशांति और विश्व कल्याण के लिए एक ओंकार (एकेश्वरवाद) का दिव्य सन्देश दिया कि ईश्वर एक है। वही करता पुरख है अर्थात इस सृष्टि का सर्जक और पालक है। सभी विश्व के प्राणी उनकी संतान है। इस सन्देश में ही उनकी श्रीराम की भक्ति भी दिखाई देती है तथा उन्होंने उसे जीवन में अनुकरण किया था। उनके बारे में उनकी श्रीराम भक्ति की कहानी प्रसिद्ध है।
श्री गुरुनानक देवजी बाल्यावस्था से ही श्रीराम के परम भक्त थे। वे श्रीरामभक्ति में हर समय सराबोर रहा करते थे तथा आपको बाल्यावस्था से श्रीरामभक्ति का नशा सवार हो गया था और आप सदैव श्रीरामभक्ति में डूबे रहा करते थे। जब परिवारवालों ने देखा कि वे दिन-रात श्रीराम-भजन में संलग्र रहते हैं तथा घर का कोई काम नहीं करते हैं, इसलिए उनको खेत पर चिड़िया उड़ाने का काम सौंप दिया गया कि तुम चिड़िया उड़ाकर खेत की रक्षा किया करो। वे यह बात सुनकर खेत पर चले गए पर तब उन्हें जीवमात्र में अपने परम इष्टदेव भगवान् श्रीराम को ही दिखते थे। श्रीगुरुनानक देवजी महाराज भला उन चिड़ियों में अपने परम इष्टदेव श्रीराम को कैसे न देखते? वे चिड़ियों में भी अपने श्रीराम को देखकर कह उठे-
रामजीकी चिड़िया, रामजी का खेत।
खाओ चिड़िया भर भर पेट।।
श्रीगुरुनानकदेवजी महाराज ने इस संसार को दु:खों की खान माना है और श्रीरामनामामृत का पान करना ही सब सुखों का केन्द्र बिन्दु माना है यथा-
नानक दुखिया सब संसार।
सुखिया वही जो नाम अधारा।।
आप समाज में तंबाकू, गाँजा, भाँग, सुल्फा आदि सब नशों के घोर विरोधी थे। बस अपने श्रीराम के नशे को ही सर्वोपरि महत्व देते थे और उसी श्रीरामभक्ति के प्रेम के नशे में हर क्षण झूमते रहते थे। एक स्थान पर आपने कहा है-
भाँग तंबाकू छोतरा उतर जाय परभात
नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात।।
संत कबीर और उनकी रामभक्ति
संत कबीर के अनुसार श्रीराम का भजन ही इस जीवन का परम लक्ष्य है। राम के अतिरिक्त कुछ भी इस संसार में सत्य नहीं है। यह जीवन और उसकी सुख-सुविधाओं के लिए इकट्ठा किए जाने वाला धन क्षणभंगुर है। उदाहरणार्थ रावण की सोने की लंका नश्वरता का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि इस भौतिक जगत में जब रावण का ऐश्वर्य स्थायी नहीं रह सका तो अन्य की क्या बिसात है। कबीर के ईश्वर यद्यपि निर्गुण-निराकार है, लेकिन वे उन्हें राम का ही नाम देते हैं। यह बात इन साखियों में स्पष्ट है-
कबिरा सब जग निरधरना धनवन्ता नहि कोय।
धनवन्ता सोइ जानिये जाके रामनाम धन होय।।
लूट सके तो लूटि ले, राम नाम की लूट।
फिर पाछे पछता हुगे, प्राण जाहिगे छूट।।
कबीर आपन राम कहि, औरन राम कहाय।
जा मुख राम न नीसरै, ता मुख राम कहाय।।
जबहि राम हिरदै धरा, भया पाप का नाश।
मानो चिनगी आग की, परी पुराने घास।
इस प्रकार स्पष्ट है कि संत कबीर कलिकाल में मानव जीवन के कल्याण का एकमात्र उपाय श्रीराम नाम का कीर्तन और श्रीरामकथा का श्रवण करने में विश्वास रखते हैं।
श्रीरामचरितमानस में श्रीराम
गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामकथा को जनमानस की जनभाषा में सरल-सुबोध भाषा में प्रकट कर भारतीयों में घर-घर पारायण करने की श्रद्धाभक्ति उत्पन्न कर दी। इस प्रकार श्रीरामचरितमानस ने भारतीयों में समरसता सद्भाव एवं राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य किया। आधुनिक सन्दर्भ में श्रीरामचरितमानस हमारे जीवन में प्रकाश-स्तम्भ का कार्य कर रही है। यह प्रसिद्ध उक्ति कि रामायण के सम्बन्ध में प्रचलित है तथा चरितार्थ भी है कि जो रामायण में नहीं है वह विश्व में भी नहीं क्योंकि रामायण (श्रीरामचरितमानस) केवल भारत की ही धरोहर नहीं है अपितु मानव मात्र की महिमा का गुनगान करने वाली विश्वव्यापी कृति है।
तुलसीदासजी के समय में जातिप्रथा के गुणों की अपेक्षा दुर्गुणों का बाहुल्य था अत: उन्होंने इन्हें समाप्त करने का भगीरथ प्रयास कर मानस में अनेक प्रसंगों के माध्यम से समाज देश को दिया जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। श्रीराम गुणों की खान हैं इसलिए श्रीराम को गुणों का भण्डार (खान) कहा गया है।
कहाँ कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड २६-४
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारू सुजन मन माहीं।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड २५-२
यद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एकतें एका।।
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड ४२ (क)
अन्त में श्रीरामचरितमानस में मानव जीवन का लक्ष्य पूरा करने का बड़ा ही सुन्दर उपाय बताया गया है यथा-
कलिजुग जोग न जग्य न ज्ञाना। एक अघार राम गुन गाना।।
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव सुन ग्रामहि।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड १०३ (क) ३
सन्दर्भ ग्रन्थ-
१. श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर
२. आनन्दरामायण, पं. रामतेज पाण्डेय, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान दिल्ली ११० ००७
३. सूरविनय पत्रिका- गीता प्रेस गोरखपुर, उ.प्र.
४. कल्याण वर्ष ६८ श्रीरामभक्तिअंक गीता प्रेस गोरखपुर
५. कबीर वाणी लालचन्द दूहन जिज्ञासु, मनोज पब्लिकेश, नई दिल्ली
६. श्रीरामचरितमानस गीता प्रेस गोरखपुर, उ.प्र.
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
“मानसश्री”, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर