6 जनवरी, 1885 / पुण्यतिथि
हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में बाँटा गया है :
( 1 ) वीरगाथा काल,
( 2 ) भक्ति काल,
( 3 ) रीति काल तथा
( 4 ) नवजागरण काल।
नवजागरण काल को ‘भारतेंदु युग’ के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इसका नामकरण भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर हुआ है।
9 सितंबर 1850 को काशी में जन्मे भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी के जनक हैं। हिंदी खड़ी बोली में गद्य का प्रारंभ उन्हीं के समय से होता है।
भारतेंदु के समय देश अंग्रेजों के चंगुल में था। हिंदी काव्य-जगत में रीतिकाल और सामंती प्रवृत्ति चरम पर थी, लेकिन उन्होंने अपनी रचनाओं में जन-भावनाओं को रेखांकित किया। विभिन्न सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों को उजागर करते हुए समाज-सुधार को साहित्य का लक्ष्य बनाया। ग़रीबी, पराधीनता और अंग्रेजों का अमानवीय व्यवहार उनकी लेखनी के निशाने पर थे। वे एक अच्छे कवि, व्यंग्यकार, नाटककार, गद्यकार तथा जागरूक पत्रकार थे। उन्हें लंबा जीवन नहीं मिला।
लगभग पैंतीस साल के जीवन में उन्होंने पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किया। हिंदी भाषा की सेवा, देश की आज़ादी और समाज-सुधार को लक्षित उन्होंने तीन पत्रिकाएँ निकालीं—
( 1 ) 1867 में कविवचनसुधा,
( 2 ) 1873 में हरिश्चन्द्र मैगजीन
और
1874 में बाला बोधिनी।
‘बाला बोधिनी’ का लक्ष्य स्त्री-शिक्षा को आगे बढाना तथा स्त्री को पुरुष की बराबरी का दर्ज़ा दिलाना था।
उनकी बहुआयामी प्रतिभा को देखते काशी के विद्वानों ने उन्हें 1880 में ‘भारतेंदु’ उपाधि प्रदान की, जिसका अर्थ है- भारत का चन्द्रमा। निःसंदेह, यह उपाधि उनके सम्मान के अनुरूप थी।
उन्होंने एक लेखक मंडल भी तैयार किया जिसमें राधाचरण गोस्वामी, गोकुलचंद, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण प्रेमघन, श्रीनिवास राय जैसे लेखक शामिल थे। इन लेखकों ने उनके साहित्य के प्रसार के उद्देश्य को आगे बढ़ाया और उनके बाद भी उनकी स्मृति से प्रेरणा लेते हुए इस कार्य में संलग्न रहे।
उनके पिता गोपालचंद्र स्वयं कवि थे और ‘गिरधरदास’ उपनाम से कविता करते थे। काव्य-प्रतिभा तो उन्हें पिता से विरासत में ही मिली थी। मात्र सात वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने यह दोहा अपने पिताजी को सुनाया और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया—
” लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए, श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को, हनन लगे भगवान॥”
उनका बचपन कठिनाइयों में बीता। जब वे पाँच वर्ष के थे तो उनकी माता नहीं रहीं। विमाता से उन्हें स्नेह न मिला और दस वर्ष की अवस्था में उन्होंने पिता को भी खो दिया। इन झंझावातों के कारण उनमें स्वतन्त्र रूप से दुनिया देखने और सोचने-समझने की शक्ति का तेज़ी से विकास हुआ। वे स्कूल अवश्य गए, पर स्वाध्याय से उन्होंने खूब ज्ञानार्जन किया। संस्कृत, बंगला, उर्दू और अंग्रेजी भाषाएँ सीखीं और किशोरावस्था से ही साहित्यिक रचनाएँ करनी शुरू कर दीं।
भारतेंदु का वृहद् रचना-संसार है। काव्य, निबंध और नाटक के क्षेत्र में उन्होंने सर्वाधिक कार्य किया। 1873 से लेकर 1883 तक, दस वर्षों में उन्होंने नौ मौलिक नाटकों की रचना की और छह विश्वप्रसिद्ध नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया। ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेमजोगिनी, भारत दुर्दशा और अंधेर नगरी’ उनके प्रसिद्ध मौलिक नाटक हैं। ‘अंधेर नगरी’ का मंचन आज भी किया जाता है जो इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है। ‘विद्यासुंदर’, ‘मुद्राराक्षस’ तथा ‘दुर्लभ बंधु’ उनके क्रमशः बांगला, संस्कृत और अंग्रेजी के अनूदित नाटक हैं। ‘दुर्लभ बंधु’, शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद है।
वे कुशल अभिनेता, निर्देशक और नाट्य-समीक्षक भी थे।
उन्होंने कई निबंध लिखे। ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है, कश्मीर कुसुम, संगीत सार, हिंदी भाषा, स्वर्ग में विचार-सभा’ आदि उनके प्रमुख निबंध हैं।
कहानी विधा में भी उन्होंने, ‘अद्भुत अपूर्व स्वप्न’ जैसी कृति दी। ‘पूर्ण प्रकाश और चंद्रप्रभा’ नामक दो उपन्यास भी उन्होंने हिंदीजगत को दिये। ‘सरयू की यात्रा’ और ‘लखनऊ’ उनके यात्रा-वृत्तांत हैं। ‘एक कहानी- कुछ आप बीती और कुछ जगबीती’ उनकी आत्मकथा है।
काव्यजगत को उन्होंने बीस कृतियाँ दीं। इनमें ‘भक्तसर्वस्व, प्रेममालिका, प्रेम माधुरी, प्रेम-तरंग, प्रेम-प्रलाप, प्रेम फुलवारी, विनय प्रेम पचासा, कृष्ण चरित्र’ उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। ‘फूलों का गुच्छा’ उनकी खड़ी बोली का काव्य है। ‘बन्दर सभा, बकरी विलाप’, जैसा कि नाम से ही संकेत मिलता है, उनके हास्य-व्यंग कविता-संग्रह हैं। भारतेंदु कृष्ण-भक्त थे, लेकिन उनका काव्य-कर्म भक्तिकाव्य तक नहीं सीमित रहा। उन्होंने राष्ट्रप्रेम और समाज-सुधार आदि विषयों को अपनी रचनाओं में प्रमुखता से शामिल किया। छंदों की दृष्टि से उन्होंने दोहा, चौपाई, छप्पय, रोला, सोरठा, कुंडलियाँ, कवित्त आदि छंदों का सफल प्रयोग किया है। कजली, ठुमरी, लावनी जैसे लोक छंदों का भी प्रयोग भी उनके यहाँ प्रचुरता से मिलता है। विभिन्न रसों से स्नात उनके काव्य में उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक जैसे अर्थालंकारों का सफल प्रयोग है। शब्दालंकारों के प्रयोग में भी वे पीछे नहीं है। वृत्यानुप्रास का एक उदाहरण देखिए—
” तरनि तनूजा तट तमाल, तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाए॥ “
‘रसा’ उपनाम से वे ग़ज़लें कहते थे। प्रेम-विषयक उनकी ग़ज़लों की भाषा हिन्दुस्तानी थी। एक ग़ज़ल का मक्ता देखिए—
” ‘रसा’ की है तलाशे-यार में यह दश्ते-पैमाई,
कि मिस्ले-शीशा मेरे पाँव के छाले झलकते हैं।”
समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार के लिए उन्होंने हर विधा में व्यंग्य का भरपूर इस्तेमाल किया। नाटक ‘अंधेर नगरी’ में एक पात्र है— पाचकवाला, उससे वे सरकारी कारिंदों, महाजनों और अँगरेजों के पिट्ठुओं पर जमकर निशाना साधा :—
चूरन अमले सब जो सब खावैं। दूनी रिश्वत तुरत पचावैं॥
चूरन सभी महाजन खाते। जिससे जमा हजम कर जाते॥
चूरन साहेब लोग जो खाता।सारा हिन्द हजम कर जाता॥
इसी नाटक के कुछ काव्यांशों में अंग्रेजी शासन पर कठोर टिप्पणियाँ हैं—
अंधेर नगरी चौपट राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
ऊँच-नीच सब एकहि ऐसे। जैसे भडुए पंडित तैसे॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले और प्यादे॥
धर्म-अधर्म एक दरसाई। राजा करइ सो न्याव सदाई॥
लोककाव्य में उन्होंने ‘नये ज़माने की मुकरियाँ’ लिखीं। एक मुकरी में उन्होंने अंग्रेजों पर सीधे-सीधे प्रहार किया—
भीतर-भीतर सब रस चूसै।
हँसि-हँसिकै तन-मन-धन मूसै।
ज़ाहिर बातन में अति तेज़।
क्यों सखि सज्जन? नहिं अँगरेज़।
उनके समय फारसी भाषा प्रचलन में थी, लेकिन उन्होंने बोलचाल वाली हिंदी और उर्दू से बनी खड़ी बोली का विकास किया। उसमें आधुनिक चेतना का समावेश किया और उसे ‘जन’ से जोड़ा। यह आज के हिंदी का प्रारंभिक रूप है। हिंदी के महत्त्व को दर्शाता उनका यह दोहा आज भी किसी महामंत्र से कम नहीं—
निज भाषा उन्नति लहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल॥
‘कविवचनसुधा’ में उन्होंने लिखा कि जिस प्रकार अमेरिका उपनिवेशित होकर स्वतन्त्र हुआ, उसी प्रकार भारत भी स्वतन्त्रता-लाभ कर सकता है। उन्होंने विलायती कपड़ों के बहिष्कार की अपील की, जो बाद में भारत के लोगों का प्रतिज्ञा-पत्र बन गया—
” हम लोग सर्वान्तरयामी, सर्वस्थल में वर्तमान सर्वद्रष्टा और नित्य-सत्य परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा न पहिरेंगे और जो कपड़ा कि पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की मिती तक हमारे पास हैं, उसको तो उसके जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे, पर नवीन मोल लेकर किसी भाँति का भी विलायती कपड़ा न पहिरेंगे, हिंदुस्तान का ही बना कपड़ा पहिरेंगे।”
आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेंदु अग्रगण्य हैं। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध— सभी में उनकी देन अभूतपूर्व है। उनकी रचनाओं की संख्या 170 के आस-पास है। काशी प्रचारिणी सभा ने उनका सम्पूर्ण साहित्य प्रकाशित किया है।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हिंदी में वे नवजागरण का संदेश लेकर अवतरित हुए। अनेक रचना-विधाओं में उन्होंने सर्वथा नवीन भाषा-शैली में मौलिकता का समावेश किया और आधुनिक काल के अनुरूप बनाया। निस्संदेह, वे हिंदी नवजागरण के जनक हैं।