आज राजनीति का स्तर लगातार गिरता चला जा रहा है। राजनीति का मतलब आज सेवा नहीं अपितु मेवा खाना हो गया है। देश में आजकल रेवड़ी कल्चर खूब प्रचलन में है।यह तथ्य आज किसी से भी छिपा हुआ नहीं कि रेवडिय़ां बांटने की राजनीतिक संस्कृति ने न जाने कितने देशों को तबाह किया है। आज राजनीति का मतलब है रेवड़ी कल्चर।आम आदमी को रेवड़ियां बांटकर वोट हथियाना शायद आज की राजनीति का प्रमुख हथियार हो गया है।एक समय था,जब लोग राजनीति में समाज सेवा,देश सेवा, सामाजिक सरोकारों के लिए आते थे। राजनीति का असली धर्म भी सेवा ही तो है लेकिन आज इसके उलट देखने को मिल रहा है और राजनीति आज तुच्छ राजनीति हो चली है, यहां स्वार्थ और लालच की नदियां बहती है, देश व समाज चाहे भाड़ में जाए,किसी को देश व समाज से कोई लेना देना अथवा कोई सरोकार नहीं रह गया है। सच तो यह है कि रेवड़ी कल्चर आज के राजनीतिक गलियारों का प्रमुख शब्द हो गया है, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हम रोज रेवड़ी कल्चर की बातें पढ़ते ही हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि कुछ समय पहले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी रेवड़ी कल्चर को लेकर सवाल उठाए थे। दरअसल, रेवड़ी एक मिठाई होती है और राजनीति में रेवड़ी का अर्थ आमजन को राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा उपलब्ध कराई गई मुफ्त की विभिन्न स्कीमों से लिया गया है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेवड़ी कल्चर को देश व समाज के लिए अत्यंत घातक बताया था। आज हमारे देश की राजनीति का स्वरूप बहुत बदल चुका है और आज की इस मुकाम पर पहुंच चुकी है कि राजनेता ‘रेवड़ी कल्चर’ से ऊपर सोच ही नहीं सकते। चुनाव नजदीक आते-आते देश में हर तरफ रेवड़ियां बांटने की राजनेताओं में व राजनीतिक दलों में होड़ लग जाती है कि कौन-सी पार्टी कितनी रेवड़ियां आमजन में बांट सकती है। वास्तव में, आज जरूरत इस बात की है कि हमें जल्द ही देश की राजनीति से इस रेवड़ी कल्चर को हटाने की जरूरत है। इन रेवड़ी कल्चर वालों को यह लगता है कि देश की जनता को मुफ्त की रेवड़ी बांटकर, वे उन्हें खरीद लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं है और आज की जनता खूब समझदार है। वास्तव में जनता को फ्री सुविधाओं का लगातार एलान करने वाले राजनीतिक दलों व उनके नेताओं के बारे में जनता यह बात आज अच्छी तरह से जानती व समझती है कि कोई भी नेता अपने घर से रेवड़ी नहीं बांटता है। ये रेवड़ियां राजनेताओं की जेब से नहीं अपितु प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से निकलती तो आम जनता की जेब से ही है और राजनेता इन्हें अपनी रेवड़ी बताकर जनता को मूर्ख बनाते हैं कि उन्होंने जनता को फलां फलां सुविधाएं या रेवड़ियां उपलब्ध कराई है। सच तो यह है कि आज रेवड़ी बांटने वाले राजनेता अपने राजनीतिक हित व स्वार्थ सिद्ध करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे रेवड़ी बांटकर अपने चूल्हे के नीचे ही आंच सरकाते है। बहुत बार आम आदमी इन राजनेताओं की रेवड़ियों के बहकावे में आ जाता है और गलत लोगों को वोट दे बैठता है जो कि समाज व देश के लिए घातक सिद्ध होता है, क्यों कि चुनाव जीतने के बाद में राजनेता आम आदमी को पांच साल तक अपना मुंह तक नहीं दिखाते हैं। सभी रेवड़ियां चुनावी सीजन के दौरान ही बांटी जाती है। विभिन्न प्रकार के झूठे वादे जनता से किए जाते हैं। घोषणाओं का अंबार लगाया जाता है। चुनावी सीजन में मतदाताओं को लुभाने के लिए टी-शर्ट, मोबाइल, लैपटॉप, टेबलेट, स्कूटी, गैस सिलेंडर, साड़ियां, कंबल, आटा, दाल, चावल, तेल , अनाज, बेरोजगारी भत्ता और न जाने क्या क्या रेवड़ियों के नाम पर बांटा जाता है।आरबीआई ने अपनी इस रिपोर्ट में ‘कैग’ के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि राज्य सरकारों का सब्सिडी पर खर्च लगातार बढ़ रहा है। वर्ष 2020-21 में सब्सिडी पर कुल खर्च का 11.2 फीसदी खर्च किया था, जबकि 2021-22 में 12.9 फीसदी खर्च किया था। रिपोर्ट में कहा गया है कि अब राज्य सरकारें सब्सिडी की बजाय मुफ्त ही दे रहीं हैं। सरकारें ऐसी जगह पैसा खर्च कर रहीं हैं, जहां से उन्हें कोई कमाई नहीं हो रही है। फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री यात्रा, बिल माफी और कर्ज माफी, ये सब ‘फ्रीबाई हैं, जिन पर राज्य सरकारें खर्च कर रहीं हैं। सच तो यह है कि आज हमारे देश में रेवड़ी कल्चर लगातार फल फूल रहा है। कोई फ्री बिजली की घोषणाएं करते हैं तो कोई फ्री पानी और फ्री साइकिलों की।निश्चित तौर पर राजनीतिक दलों द्वारा अपनाई जा रही इस तरह की प्रक्रियाएं आम जन को आकर्षित कर सत्ता पाने की ललक के सिवाय और कुछ नहीं होती हैं और इस दिशा में आज कोई भी राजनीतिक दल और उनके नेता किसी से कम नहीं हैं। वैसे रेवड़ी कल्चर को वेलफेयर के नाम पर आजकल भुनाया जाता है लेकिन वेलफेयर अलग चीज है। रेवड़ी कल्चर कभी भी वेलफेयर नहीं हो सकता है। यह ठीक है कि स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, सीवरेज, बिजली और परिवहन जैसी कुछ सेवाएं हैं जिन्हें आम जनता बहुत बार अपने लिए व्यवस्थित नहीं कर सकते हैं, क्यों कि बहुत से लोग आज गरीब भी हैं, इसलिए वे हर पांच साल के अंतराल के बाद सरकारें चुनते हैं। ये सभी कल्याणकारी उपाय हैं। वास्तव में, इनमें से कितनी सेवाएं मुफ्त होनी चाहिए ये सरकार के राजकोषीय दायरे पर निर्भर करता है। आज विश्व के अनेक देशों में स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली -पानी व यहां तक कि आवास उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है ताकि देश व समाज का विकास हो। सरकार का काम आम आदमी का कल्याण करना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सिर्फ वोट बैंक पानी के लिए फ्रीबीज को बढ़ावा दिया जाए। शिक्षा, स्वास्थ्य आज बहुत से देशों में आमजन का अधिकार है। यदि किसी देश के नागरिक शिक्षित व स्वस्थ हैं तो उन्हें फ्रीबीज की जरूरत ही नहीं है, वे अपना कल्याण स्वयं कर सकते हैं, आगे बढ़ सकते हैं।यहां यह उल्लेखनीय है कि फ्रीबीज शब्द का डिक्शनरी में अर्थ है जो आपको मुफ्त में दिया जाता हो। वास्तव में, एक फ्रीबीज और एक आवश्यक सेवा के बीच भेद करने के लिए समय और स्थान के उचित संदर्भ की आवश्यकता होती है। मसलन, हेल्थ और एजुकेशन को कभी भी रेवड़ी नहीं समझा गया। उल्लेखनीय है कि आमजन के लिए मुफ्त सुविधाओं पर ज्यादा जोर देने से राज्य की वित्तीय स्थिति कहीं न कहीं आवश्यक रूप से प्रभावित होती है और इससे बहुत सी सरकारें कर्ज के जाल में फंस जाती हैं। आरबीआई की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि फ्रीबीज क्रेडिट संस्कृति को कमजोर करते हैं, क्रॉस-सब्सिडी के माध्यम से कीमतों को विकृत करते हैं, निजी निवेश के लिए प्रोत्साहन को कम करते हैं, वर्तमान मजदूरी दर पर काम को हतोत्साहित करते हैं जिससे श्रम बल की भागीदारी में गिरावट आती है। कुछ समय पहले इस संबंध में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि लोगों (आमजन) की भलाई के लिए चलाए जाने वाली वेलफेयर स्कीम और देश की आर्थिक सेहत दोनों में बैलेंस बनाए रखने की जरूरत है। यहां यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि भारत के संविधान के भाग IV में राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत कहते हैं कि राज्य सरकार को उन लोगों के कल्याण को बढ़ावा देना चाहिए जो गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) हैं या समर्थन के बिना प्रगति नहीं कर सकते हैं। आज कोई रेवड़ी कल्चर के नाम पर पेंशन राशि बढ़ाने की बात कर रहा है तो कोई बेरोजगारी भत्ता बढ़ाने की बात कर रहा है। यह ठीक है कि आज हमारे देश में निवास करने वाले हर नागरिक की सामाजिक, आर्थिक दशा एक जैसी नहीं है। आज अमीरों और गरीबों के बीच एक बहुत बड़ी खाई है और इस खाई को पाटना आसान काम नहीं है, क्यों कि आज अमीर पहले से और अधिक अमीर तथा गरीब पहले से और अधिक गरीब बनता चला जा रहा है। आज देश की सर्वाधिक मध्यम वर्ग की जनता सर्वाधिक टैक्स सरकार को देती है लेकिन अपना दुःखड़ा किसी से कह नहीं सकती। जो बहुत गरीब है उसे तो हर प्रकार की सुविधाएं हर सरकार देती है ,लेकिन जो मध्यमवर्गीय वेतनभोगी, किसान, आम मजदूर परिवार हैं तथा जिनके कंधों पर परिवार चलाने का सर्वाधिक भार है। उनके आमदनी कम खर्च अधिक है, उसकी आज कोई चिंता नहीं करता है और जब उसे कभी भी कुछ थोड़ी बहुत राहत मिलने की बात सामने आती है, तो मुफ्त रेवड़ी बांटने की वकालत होने लगती है। यहां जानकारी देना चाहूंगा कि सरकार द्वारा आम जन को दी जाने वाली राहत पाने का आमजन का मौलिक अधिकार है। ऊपर भी जानकारी दे चुका हूं विदेशों में बहुत सी सरकारें शिक्षा, स्वास्थ्य व आवास आमजन को उपलब्ध कराती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य व आवास के अलावा वहां बेरोजगारों व वृद्ध जनों की सारी जिम्मेवारी वहां की सरकार उठाती है। आम जन को दी जाने वाली राहत कभी भी मुफ्त रेवड़ी कल्चर नहीं हो सकती, लेकिन वोट बैंक हथियानें के लिए फ्रीबीज कल्चर अपनाकर सरकार पर बिना मतलब आर्थिक बोझ बढ़ाने को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता है। सच तो यह है कि मुफ्तखोरी की राजनीति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है बल्कि देश की आर्थिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली भी है। उल्लेखनीय है कि भारत के पड़ोस में ही श्रीलंका, पाकिस्तान का भी इसी रेवड़ी संस्कृति ने बुरा हाल किया है। श्रीलंका व पाकिस्तान ही नहीं यूरोप के बहुत से देशों को ही आप देख लीजिए, आज यदि वे आर्थिक संकट से गुज़र रहे हैं तो उसका कारण रेवड़ी कल्चर या फ्रीबीज ही है।अपने देश में ही देखा जाए तो कई राज्य सरकारें इस रेवड़ी संस्कृति के कारण लगभग दीवालिया होने की कगार पर हैं। उनका बजट घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन यह विडंबना ही कहा जा सकता है कि कोई भी आज मुफ्तखोरी की राजनीति का परित्याग करने के लिए तैयार नहीं हैं। आज देश के विभिन्न राजनीतिक दल व उनके नेतात रह-तरह के तर्कों से रेवड़ी संस्कृति का न केवल बचाव कर रहे हैं, बल्कि उसे जरूरी भी मान रहे हैं, यह ठीक नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में,राजनीतिक दलों की मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली मनमानी घोषणाओं पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। आज देश में चलाई जा रही विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं और लोकलुभावन योजनाओं के बीच के अंतर को भी परिभाषित किया जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा ऐसा कोई नियम भी बनना चाहिए कि बजट का कितना प्रतिशत धन जनकल्याणकारी योजनाओं पर खर्च किया जा सकता है ? और वास्तव में कौन ऐसे लोग हैं जिनको कि सहायता की जरूरत है ?
(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)