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इतिहास के पन्नों से- भोर में अल्लाह-हू-अकबर की अज़ान और इस्लाम का हुआ कश्मीर!

इतिहास के पन्नों से- भोर में अल्लाह-हू-अकबर की अज़ान और इस्लाम का हुआ कश्मीर!
अमित
नीलमत पुराण में कश्मीर का परिचय कुछ ऐसा है- “कश्मीर पार्वती है, इसका शासक भगवान शिव का ही भाग है।” उस अनंत काल से लेकर महाभारत कालीन अर्जुन के प्रपौत्र (पड़पोते) हर्षदेव ने यहाँ रियासत की (व्यवस्थित शासन) नींव डाली। तब से लेकर 13वीं सदी तक कश्मीर में सनातन धर्मी (जिन्हें हम भाषाई सुविधा के लिए हिंदू कहेंगे) शासकों का शासन रहा।
इस काल में महान सम्राट अशोक ने कश्मीर को सीधे अपने नियंत्रण में लिया और तमाम ऐसे उल्लेखनीय कार्य किए जो आज भी घाटी की ठंडी शिलाओं पर दर्ज हैं। हालाँकि इसी समय कश्मीर बौद्ध धर्म प्रसार का एक प्रमुख केंद्र बनकर भी उभरा लेकिन धर्मों को राजनीतिक रूप से प्रतिस्थापित करने की होड़ नहीं थी।
हिंदू शासकों की कड़ी को तोड़ने का पहला पहला प्रयास इस्लाम द्वारा अपने जन्म के लगभग 300 वर्षों बाद किया गया। यह प्रयास भारत पर डेढ़ दर्जन आक्रमण करने वाले गजनी के महमूद ने किया था। 1015 ईस्वी में जिहाद की तलवार के बल पर इस्लाम ने पहली दस्तक़ देने की कोशिश की।
जिस तरह रूस में जनरल दिसंबर और जनरल जनवरी भयानक सर्दी के कारण अपनी अजेयता के लिए प्रसिद्ध हैं, कुछ-कुछ वैसे ही, कश्मीर की ठंड भी अपने आप में एक योद्धा है। इसे भी अजेय माना जाता है। जिहादी तलवारों की गर्मी कश्मीर की वर्फ़ीली शिलाओं से टकराकर ठंडी पड़ गई।
महमूद के सैनिक हिमालय और यहाँ की ठंड से हार गए। लेकिन इस्लाम ने हार नहीं मानी। अब इस्लाम कश्मीर के ठीक पश्चिम में चुपचाप बैठकर टुकुर-टुकुर मौका देख रहा था कि कैसे कश्मीर को अपने पंजे में जकड़ा जाए?
क़रीब 300 सालों बाद बुलबुल शाह ने रूमानियत (प्यार-मोहब्बत) के जरिए इस्लाम को घाटी में पहुँचा दिया। एमजे अकबर की किताब, कश्मीर- बिहाइंड द वैले, से हमें पता चलता है कि मार्को पोलो जब 1277 ईसवी में कश्मीर पहुँचा तो उसने घाटी में इस्लाम की उपस्थिति देखी।
इस्लाम आम जनमानस में धीरे-धीरे घुलने लगा था लेकिन बिना सत्ता हासिल किए कुछ भी हासिल नहीं होता, सो इंतज़ार करना और सही मौके को तांकना ही एक मात्र विकल्प था। इस्लाम के रहनुमाओं ने यह धैर्य दिखाया। बुलबुल शाह के समय में ही श्रीनगर (कश्मीर) में पहली मस्जिद बनी, इसे ही आज बुलबुल लंगर के नाम से जाना जाता है। यह अलग बात है कि वहाबी और कट्टर सुन्नी विचारों के बढ़ते प्रभाव के कारण बुलबुल शाह की विरासत आज के कश्मीर में धुंधली पड़ती जा रही है।
समय हर समय एक जैसा नहीं रहता। इस्लाम के मानने वालों ने साध्य अटल रखे, लेकिन साधन बदल दिया। इस्लाम ने पहले असफल तलवार चलाई थी, फिर बुलबुल शाह ने प्रयास किया था, अब सत्ता हथियाने की बारी थी। 13वीं सदी आ गई। इसके उत्तरार्ध में एक तरफ पश्चिम में इस्लाम ताक में था तो पूरब में तिब्बत की अस्थिरता ने वहाँ के एक राजकुमार को कश्मीर जाने को विवश कर दिया।
इस समय सहदेव कश्मीर का राजा था। सहदेव के शासन में उस वक़्त अस्थिरता आई जब मंगोल दुलाचा ने 1320 में कश्मीर में आक्रमण किया। यह आक्रमण कुछ-कुछ वैसा ही था जैसा नादिर शाह ने दिल्ली पर किया था। कश्मीर के गवर्नर रहे जगमोहन ने अपनी किताब, माइ फ्रोज़न टर्बुलेंस इन कश्मीर, में लिखा है, “जैसे शेर हिरणों के बीच जाता है।”, “लोग आग में कीट-पतंगों जैसे मारे गए।” दुलाचा की तलवारों ने पुरुषों के खून से अपनी प्यास बुझाई, जबकि महिलाएँ और बच्चों को गुलाम बना लिया गया।
दूसरी राजतरंगिणी लिखने वाले जोना राजा ने लिखा, “कश्मीर ऐसा वीरान हो गया जैसे सृजन/निर्माण से पहले की स्थिति।“ सहदेव के सेनापति सह-प्रधानमंत्री रामचंद्र ने सहदेव और दुलाचा के संघर्ष में अपने आपको राजा घोषित कर दिया। कश्मीर पूरी तरह अस्थिरता की आगोश में था।
जिस समय कश्मीर में यह चल रहा था, लगभग उसी समय तिब्बत में मंगोल कुबलाई खान की रियासत में, उसकी मौत से राजनीतिक उठा-पटक शुरू हो गई। कुबलाई खान की मौत की ख़बर तिब्बत पहुँची तो (जनजातीय) बाल्टिस विद्रोह हो गया। स्थानीय प्रतिनिधि ल्हा चेन दुगोस ग्रुब मारा गया। लेकिन किसी तरह उसका ‘होनहार’ पुत्र रिनचिन जोजिला दर्रे से कश्मीर पहुँच गया।
रास्ते में ही रिनचिन की मुलाक़ात रामचंद्र से हुई। दोनों में मित्रता हुई और रिनचिन रामचंद्र के घर मेहमान बनकर रहने लगा। रिनचिन को रामचंद्र की बेटी कोटा से प्यार हो गया। फिर जब राजा सहदेव की मौत से अस्थिरता आई तो सत्ता रिनचिन के हाथों में आ गई।
रिनचिन ने रामचंद्र की हत्या की और कश्मीर का मुकुट अपने सिर पहन लिया। कोटा को इस बात की जानकारी थी कि रिनचिन ने ही उसके पिता की हत्या की है लेकिन प्यार और ऊपर से राजनीति…! जब रिनचिन कश्मीर का राजा बना तो कोटा रानी ने (राजनीतिक दृष्टि से) रिनचिन का साथ पाना ही ठीक समझा।
मठाधीशों की रूढ़िवादिता
रिनचिन बौद्ध था तो कोटा हिंदू, एक कश्मीरी पंडित। दोनों के व्यक्तिगत जीवन में तो धर्म के बंधन आड़े नहीं आए, रिनचिन भी ठीक-ठाक शासन करने लगा। अक्टूबर 1320 में रिनचिन कश्मीर का शासक बन गया था। पंडित जोनाराज ने बौद्ध रिनचिन के शासन को ‘स्वर्ण काल’ की संज्ञा दी है।
कोटा रानी भी राजनीतिक रूप से सक्रिय थी। लेकिन रिनचिन को लगा कि जब इन्हीं लोगों के बीच रहना है, तो इन्हीं का धर्म अपनाना होगा। विकल्प एक था, हिंदू। हिंदू बनने की इच्छा से रिनचिन शिव मंदिर (शारदा पीठ) गया।
एमजे अकबर के अनुसार, मंदिर के सर्वोच्च पुजारी देवा स्वामी ने उसे, “हम तुम्हें (रिनचिन को) किस जाति में रखेंगे?“ कहकर हिंदू धर्म में लेने से इंकार कर दिया। अन्य प्रचलित मान्यताओं में माना जाता है कि “पीठ के पुजारी ने कहा था कि तुम्हें एक कठिन परीक्षा पास करनी होगी और जो ज्ञान अभी तक तुमने अर्जित किया है उसे भूलना होगा।”
कितनी अजीब मूर्खता की थी न? हम इतिहास नहीं पढ़ते फिर उससे सीखने का तो सवाल ही नहीं बनता।
इस्लाम को जिस क्षण का इंतजार था, वह आ गया। कश्मीर के पश्चिमी छोर, स्वात घाटी में बैठा एक अफगान, मीर शाह, जो एक समय कश्मीर पर शासन करने के सपने देखा करता था, ने रिनचिन को रास्ता दिखाया। निमंत्रण स्वीकार करना आसान नहीं था। थोड़ा वक़्त लगता है।
असमंजस में फँसे रिनचिन ने एक दिन की मोहलत मांगी और तय हुआ कि अगली सुबह में जिस प्रार्थना की आवाज़ रिनचिन को सबसे पहले सुनाई देगी, शासक उसी धर्म के हो जाएँगे। रिनचिन ने शाह मीर के ‘कश्मीर का सुल्तान’ बनने सपने को कुछ समय के लिए ओझल ज़रूर किया था, लेकिन पूरी तरह मिटा नहीं सका था।
यहाँ जो बात गौर करने लायक है वह है, शाह मीर स्वयं सुल्तान बनना चाहता था, लेकिन उसके प्रतिद्वंद्वी रिनचिन ने जब उससे अपने असमंजस (धर्म के चुनाव) पर चर्चा की तो उस वक़्त शाह मीर ने उसे इस्लाम अपनाने की सलाह दी, यह जानते हुए भी शायद इसके बाद वह कभी कश्मीर का सुल्तान नहीं बन पाएगा। उसका सपना महज़ कोरा सपना बनकर रह सकता था, लेकिन इस्लाम की विजय पताका फहराने का अवसर शाह मीर ने अपने हाथों से नहीं जाने दिया।
कश्मीर में लगभग हमेशा सर्दियों का मौसम रहता है। रिनचिन जब सोया तब बौद्ध था। भोर में आवाज़ आई, “अल्लाह-हू-अकबर! हय्या अल अस सलत, हय्या अल अस सलत!” यानि, अल्लाह महान है! आओ और पूजा करो, आओ और पूजा करो!
अज़ान की यह आवाज़ भोर की ख़ामोशी की चीरती हुई रिनचिन के कानों में खनकी… कश्मीर की सर्दियों ने उसे और तेज़ कर दिया। विज्ञान ने भी इसमें सहायता की क्योंकि ठंड में हवा भारी हो जाती है भारी हवा में ध्वनि अधिक तेज़ और स्पष्ट सुनाई देती है।
सुबह कलमा पढ़ा गया। ‘ला-इलाहा-इल्लल्लाह’ और रिनचिन हो गए सदरुद्दीन! बुलबुल शाह ने रिनचिन को वह दिया जो पीठ के देवा स्वामी न दे पाए। शाह ने खुद कश्मीर के बादशाह का धर्मांतरण कराया। शारदा पीठ के देवा स्वामी शायद उस रात रोए होंगे। या शायद न भी रोए हों। लेकिन उनकी मूर्खता को पढ़ते हुए हिंदुत्व के समर्थक आज रो सकते हैं।
इस तरह इस्लाम ने कश्मीर को जीत लिया। हालाँकि सदरुद्दीन (रिनचिन) की मौत के कुछ समय बाद फिर से हिंदू शासन का दौर आया। लेकिन यह बहुत कम समय के लिए था। रिनचिन की कोटा रानी ने संघर्ष किया, छाप छोड़ी लेकिन पुरुष ना होने के भी अपने मायने होते हैं। दिल्ली के तख़्त के लिए रज़िया ने भी तो संघर्ष किया था।
मीर शाह, जिसने रिनचिन को इस्लाम अपनाने का निमंत्रण दिया था, उसका सपना सच हो गया। वह कश्मीर का शासक बन बैठा। इस तरह कश्मीर में इस्लाम का शासन आया जो अंग्रेज़ों के आने तक लगभग 600 वर्षों तक कश्मीर में बना रहा।
आज की रूढ़िवादिता
हिंदु धर्म का, खासकर कश्मीरी समाज में यह रूढ़िवादी स्वरूप आज भी दिखाई देता है। इसका उदाहरण उस समय देखने को मिला जब राहुल गांधी ने अपने आपको दत्तात्रेय गौत्र का कौल (कश्मीरी) ब्राह्मण बताया तो विरोधियों ने उनपर वही ‘मूर्खतापूर्ण’ प्रतिक्रिया दी, जो 650-700 साल पहले रिनचिन को दी गई थी। अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ और दूसरों को हीन मानना, उन्हें अपने में शामिल न करने की यह आदत ऐसा आत्मघाती लक्षण है, जो उस समय भी हिंदु धर्म के पतन में प्रमुख कारणों में था, आज भी यह बुराई इसे जकड़े हुए है।

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