गणगौर का त्यौहार सदियों पुराना हैं। हर युग में कुंआरी कन्याओं एवं नवविवाहिताओं का अपितु संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा संबंध इस पर्व से जुड़ा रहा है। यद्यपि इसे सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मान्यता प्राप्त है किन्तु जीवन मूल्यों की सुरक्षा एवं वैवाहिक जीवन की सुदृढ़ता में यह एक सार्थक प्रेरणा भी बना है।
गणगौर शब्द का गौरव अंतहीन पवित्र दाम्पत्य जीवन की खुशहाली से जुड़ा है। कुंआरी कन्याएं अच्छा पति पाने के लिए और नवविवाहिताएं अखंड सौभाग्य की कामना के लिए यह त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाती हैं, व्रत करती हैं, सज-धज कर सोलह शृंगार के साथ गणगौर की पूजा की शुरुआत करती है। पति और पत्नी के रिश्तें को यह फौलादी सी मजबूती देने वाला त्यौहार है, वहीं कुंआरी कन्याओं के लिए आदर्श वर की इच्छा पूरी करने का मनोकामना पर्व है। यह पर्व आदर्शों की ऊंची मीनार है, सांस्कृतिक परम्पराओं की अद्वितीय कड़ी है एवं रीति-रिवाजों का मान है।
गणगौर का त्यौहार होली के दूसरे दिन से ही आरंभ हो जाता है जो पूरे अठारह दिन तक लगातार चलता है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से कुुंआरी कन्याएं और नवविवाहिताएं प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ला द्वितीया (सिंजारे) के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं।
अठारह दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार में होली की राख से सोलह पीण्डियां बनाकर पाटे पर स्थापित कर आस-पास ज्वारे बोए जाते हैं। ईसर अर्थात शिव रूप में गण और गौर रूप में पार्वती को स्थापित कर उनकी पूजा की जाती है। मिट्टी से बने कलात्मक रंग-रंगीले ईसर गण-गौर झुले में झुलाए जाते हैं। सायंकाल बींद-बींनणी बनकर बागों में या मोहल्लों में रंग-बिरंगे परिधान, आभूषणों में किशोरियां और नवविवाहिताएं आमोद-प्रमोद के साथ घूमर नृत्य करती हैं, आरतियां गाती हैं, गौर पूजन के गीत गाकर खुश होती हैं। जल, रोली, मौली, काजल, मेहंदी, बिंदी, फूल, पत्ते, दूध, पाठे, हाथों में लेकर वे कामना करती हैं कि हम भाई को लड्डू देंगे, भाई हमें चुनरी देगा, हम गौर को चुनरी धारण करायेंगे, गौर हमें मनमाफिक सौभाग्य देगी।
गणगौर त्यौहार विशेषतः पश्चिम भारत खासतौर से राजस्थान, गुजरात, निमाड़-मालवा में मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने के अलग-अलग जगह के अलग-अलग तरीके हैं। कन्याएं कलश को सिर पर रखकर घर से निकलती हैं तथा किसी मनोहर स्थान पर उन कलशों को रखकर इर्द-गिर्द घूमर लेती हैं। जोधपुर में लोटियों का मेला लगता है। वस्त्र और आभूषणों से सजी-धजी, कलापूर्ण लोटियों की मीनार को सिर पर रखे, हजारों की संख्या में गाती हुई नारियों के स्वर से जोधपुर का पूरा बाजार गूंज उठता है।
नाथद्वारा में सात दिन तक लगातार सवारी निकलती है। सवारी में भाग लेने वाले व्यक्तियों की पोशाक भी उस रंग की होती है जिस रंग की गणगौर की पोशाक होती है। सात दिन तक अलग-अलग रंग की पोशाक पहनी जाती हैं। आम जनता के वस्त्र गणगौर के अवसर पर निःशुल्क रंगे जाते हैं। उदयपुर में गणगौर की नाव प्रसिद्ध है। जयपुर में ़ित्रपोलिया गेट से आज भी राजशाही तरीके से गणगौर की सवारी अतीत की परम्परा को जीवंत करती है। इस प्रकार पूरे राजस्थान में गणगौर उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
नाचना और गाना तो इस त्यौहार का मुख्य अंग है ही। घरों के आंगन में, सालेड़ा आदि नाच की धूम मची रहती है। परदेश गए हुए इस त्यौहार पर घर लौट आते हैं। जो नहीं आते हैं उनकी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है। आशा रहती है कि गणगौर की रात को जरूर आयेंगे। झुंझलाहट, आह्लाद और आशा भरी प्रतीक्षा की मीठी पीड़ा को व्यक्त करने का साधन नारी के पास केवल उनके गीत हैं। ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं।
गणगौर का पर्व दायित्वबोध की चेतना का संदेश हैं। इसमें नारी की अनगिनत जिम्मेदारियों के सूत्र गुम्फित होते हैं। यह पर्व उन चैराहों पर पहरा देता है जहां से जीवन आदर्शों के भटकाव की संभावनाएं हैं, यह उन आकांक्षाओं को थामता है जिनकी गति तो बहुत तेज होती है पर जो बिना उद्देश्य बेतहाशा दौड़ती है। यह पर्व नारी को शक्तिशाली और संस्कारी बनाने का अनूठा माध्यम है। वैयक्तिक स्वार्थों को एक ओर रखकर औरों को सुख बांटने और दुःख बटोरने की मनोवृत्ति का संदेश है। गणगौर कोरा कुंआरी कन्याओं या नवविवाहिताओं का ही त्यौहार ही नहीं है अपितु संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं को प्रेम और एकता में बांधने का निष्ठासूत्र है। इसलिए गणगौर का मूल्य केवल नारी तक सीमित न होकर मानव मानव के मनों तक पहुंचे।
बेला गर्ग