डॉ शशांक शर्मा
(शारदा विश्विद्यालय, ग्रेटर नोएडा)
विश्व के सबसे प्राचीन धर्म सनातन धर्म के मानने वालों हिन्दू कहा जाता है । किंतु इस शब्द “हिंदू” नाम की उत्पत्ति, इतिहास और प्रयोग के बारे में बहुत अधिक स्पष्टता नहीं है । हिंदू होना क्या है? क्या सिर्फ देवी देवताओं की पूजा करने वाले, होली दीवाली मनाने वाले, व्रत रखने वाले ही हिंदू हैं या फिर इसका अर्थ कुछ और भी है । बहुत सारे लोगों का मानना है कि हिंदुत्व कोई पंथ नहीं है , यह एक जीवन शैली है जो संस्कृतियों के पार जा सकती है । भारत के सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2005 में अपने एक वक्तव्य में हिंदुत्व को कोई पंथ नहीं माना है । एक दूसरा वर्ग भी है जो मानता है कि जब यूनानी भारत आये तो उन्होंने सिंधु नदी को हिन्दू कहा क्योंकि वे “स” को “ह” से उच्चारण करते थे । वैदिक व्याकरण की दृष्टि से सिंधु से हिंदू होना अनुकूल प्रतीत होता है क्योंकि वैदिक व्याकरण में शब्द की उत्पत्ति का आधार ध्वनि विज्ञान है । इस ध्वनि विज्ञान में ‘स’ का ‘ह’ और ‘ह’ का ‘स’ परिवर्तन दिखता है। तथ्य है कि सरिता शब्द की उत्पत्ति ‘हरित’ शब्द से हुई है। निघंटु का दृष्टान्त है- “सरितों हरितो भवंति।” लिखा है। इतना ही नहीं सरस्वती को ‘हरस्वती’ कई जगह लिखा गया है। ऋग्वेद में भी सरस्वती को हरस्वती लिखा गया है। शब्दकल्पद्रुम में भी “हिन्दुहिंदूश्च हिंदवः” मिलता है। अगर अफगानिस्तान आदि क्षेत्र के लोग हिंदुकुश, आदि शब्द का प्रयोग करते थे, तो वहाँ आरंभ में अरबी या फ़ारसी नहीं लौकिक संस्कृत आदि ही बोली जाती थी। यह भी तथ्य है कि ईरानी भी ‘स’ को ‘ह’ करते थे, जैसे पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता में ही ‘असुर’ को ‘अहुर’ लिखा गया है। पर यह भी सच है कि संस्कृत को हंस्कृत कहीं नहीं लिखा गया है, न अवेस्ता में,न अरबी-फ़ारसी में। इसी तरह पाकिस्तान के सिंध को सिंध ही कहा गया, हिन्द नहीं। संस्कृत व्याकरण के महान ऋषि पाणिनि का जन्म स्थान आज के कंधार (अफ़ग़ानिस्तान) में ही माना जाता है ।
किंतु हिंदू नामकरण का बस यही एक आधार नहीं हो सकता । हजारों वर्ष पुराने विश्व के तमाम ऐतिहासिक अभिलेखों में भी हिंदू शब्द का उल्लेख मिलता है । चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग के यात्रा संस्मरणों में हिंदू शब्द मिलता है, यूनान के जेरेक्स के अभिलेख में भी हिंदू शब्द है । पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता में भी यह शब्द बार बार आता है । ऋग्वेद के बृहस्पति अग्यम में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार से है – “हिमालयात् समारंभ्य यावत् इन्दु सरोवरम् । तद्देव निर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते।।”– इसका अर्थ है: हिमालय से प्रारंभ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव-निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है। इस प्रकार जो सिंधु के पार हिमालय और हिन्द महासागर के मध्य के भूभाग में रहता है वह हिंदू है भले ही उसकी पूजा पद्धति और पंथ कुछ भी हो । दूसरे शब्दों में कहें तो ये एक तरह की भौगोलिक पहचान (geographical identity) है । ऋग्वेद में हिंदू शब्द की जो भौगोलिक पहचान बताई गई है उसके साथ ही एक खास प्रकार के दर्शन को भी जोड़ा है । किन्तु आज के समय में लोग सिर्फ भौगोलिक पहचान से ही सभी को हिन्दू मानने लगे हैं जो पूर्णतया अधूरा तथ्य है । क्योंकि यदि कोई हिंदू व्यक्ति जो बरसों पहले भारतभूमि छोड़कर दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में बस गया है तो क्या अब वो हिंदू नहीं रहा या कोई विदेशी जो भारतभूमि में रहता है गौमांस भी खाता है, जो ओंकार को भी नहीं मानता, दूसरे की धार्मिक आस्थाओं को नगण्य मानकर उसका अपमान करता है और खुद की पूजा पद्धति को ही सर्वोपरि मानता है वो क्या हिंदू कहा जायेगा ।
अगर सिर्फ भौगोलिक पहचान की ही बात होती तो इसे सही माना जा सकता था किंतु हिंदुत्व कोई सीमाओं में घिरा हुआ राष्ट्र नहीं है, यह एक विराट दर्शन है जो दूसरे मज़हब, पंथ मानने वालों से अलग है । हिंदुत्व का दर्शन सनातन दर्शन है जिसका अर्थ है – जो सदा रहे, हीन ना हो, नष्ट ना हो । अब प्रश्न यह है कि हिंदू कौन है ? एक पंक्ति में इसका उत्तर यह है – “हीनम नाशयति इति हिंदू ।” अर्थात जो आपको सीमित करता है, बांधता है, हीनता का बोध कराता है, उससे मुक्त होना है । यह मुक्ति ही हिन्दू धर्म का मुख्य लक्ष्य है । इसलिये जो हिन्दू है वह हमेशा काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से मुक्ति के लिये वेदोचित जीवन शैली अपनाता है ।
व्यापक दृष्टि में हिंदू जन एक ब्रहम (परमात्मा),आत्मा की अवधारणा, पुर्नजन्म की अवधारणा और कर्म सिद्धांत को मानते हैं । हिंदू एक ब्रहम को मानते हैं किंतु उसका स्वरूप कैसा है इसको लेकर आपस में झगड़ते नहीं हैं ।
एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति”I
(परमात्मा एक है, दूसरा नहीं है । ना भूतकाल में था और ना ही भविष्य में होगा )
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम पूर्णात पूर्णमुदच्यते I
पूर्णस्य पूर्णमादाय , पूर्णमेवावशिष्यते II
(वह पूर्ण है,यह भी पूर्ण है,पूर्ण में से पूर्ण ही उत्पन्न होता है, और यदि पूर्ण में से पूर्ण को निकाल ले,तो भी पूर्ण ही शेष बचता है )
एकम सत विप्रा बहुदा वदन्ति ।
(सत्य एक है, पर ज्ञानीजन उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं)
अर्थात सत्य एक है किंतु उसे जानने और समझने के मार्ग अलग अलग हो सकते हैं । हिंदुत्व का मूल दर्शन यही है कि एक ही परमात्मा है जो अनन्त है और जब आप अनन्त की बात करते हैं तो उसकी कोई सीमा नहीं होगी, यह जो आत्मा है वह भी परमात्मा का ही रूप है, उससे अलग नहीं है । यदि अलग होती तो जहां परमात्मा की सीमा खत्म होगी वहीं से आत्मा शुरू होगी किन्तु परमात्मा तो अनन्त है तो इस अनन्त विस्तार को दूसरे से भिन्न नहीं कर सकते । यही अद्वैत सिद्धांत है यानी कि सब कुछ बस एक (Oneness) ही है । हर ओर वही ऊर्जा फैली हुई है अव्यक्त और व्यक्त ऊर्जा के रूप में और हम उसी ऊर्जा के एक छोटे से रूप हैं । आधुनिक विज्ञान भी यही कहता है जो कुछ भी आपको दिख रहा है वह सूक्ष्म स्तर पर ऊर्जा ही है (matter is nothing but energy). इसलिए हिन्दू जन कण कण में एक ही ईश्वरीय तत्व (परमात्मा) को देखते हैं और सबके भले की कामना करते हुए पूरे विश्व को एक परिवार मानते हैं –
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः।
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः ! शान्तिः॥
और इसीलिए प्रकृति के हर घटक की उपासना करते हैं जैसे जल, वायु, अग्नि, धरती, पेड़ पौधे, पशु पक्षी आदि । इस उपासना के पीछे सहअस्तित्व (coexistance) की भावना होती है जो एक दूसरे के संरक्षण और पोषण से जुड़ी है । पूरे विश्व में हिन्दू संस्कृति या सनातन संस्कृति ही ऐसी है जहां लोग चींटियों को आटा खिलाते हैं, सांप को दूध पिलाते हैं, नदी को मां कहते हैं, आदि ।
हिंदू जन कर्म सिद्धांत को मानते हैं । भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के सिद्धांत को गहनता से समझाया है । इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य को अपने शुभ और अशुभ कर्मों का फल भोगना पड़ता है । यह सिद्धांत अकाट्य है जिसके अनुसार यदि इस जन्म में आपको आपके कर्मों का फल नहीं मिला तो दूसरे जन्म में मिलेगा पर मिलेगा अवश्य । कर्मफल प्राप्ति की दृष्टि तीन प्रकार के कर्म बताए गए हैं – प्रारब्ध, संचित, क्रियमाण I प्रारब्ध वे कर्म हैं जो मनुष्य पहले कर चुका है और जिनका फल वर्तमान में भोग रहा है । संचित कर्म वे होते हैं जो व्यक्ति अपने पूर्व जन्म में कर चुका है और जिसके फल की प्राप्ति अभी नहीं हुई है । क्रियमाण कर्म वह कर्म हैं जिसे मनुष्य वर्तमान में कर रहा है और जिसका फल भविष्य में उसे प्राप्त होगा ।
कर्म सिद्धांत के कारण पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है । सभी हिंदू जन पुनर्जन्म की अवधारणा को मानते हैं अर्थात वे इस बात को समझते हैं कि कर्मों का फल भोगने के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता है । पतंजलि योग सूत्र में पुनर्जन्म का एकमात्र कारण अज्ञानता को माना गया है । इस अज्ञानता के दूर होते ही व्यक्ति मोह से छूटने लगता है और अंततः उसे मोक्ष प्राप्त होता है और मोक्ष या मुक्ति ही हिन्दू सनातन धर्म का अंतिम उद्देश्य है ।