संसदीय व्यवस्था अन्य तंत्रों की अपेक्षा अधिक सुसभ्य और सुसंस्कृत है क्योंकि इसमें लोग संसद में मिल-बैठ कर बातचीत के द्वारा अपने मतभेदों का हल खोजने का प्रयास करते हैं तथा राजनीतिक शक्ति के लिए सतत संघर्ष भी या तो आम चुनावों के समय मतपेटियों के माध्यम से होता है या फिर संसद के सदनों में वाद-विवाद। संसदीय व्यवस्था का मूलमंत्र यही है कि स्वतंत्र चर्चा हो। हर राष्ट्रीय महत्त्व के मामले पर खुले आम बहस हो, आलोचना की पूरी छूट हो और विभिन्न मतों में टकराव, सभी पक्षों द्वारा आपसी बातचीत और वाद-विवाद के बाद देश हित में निर्णय लिए जाए।
कई बार लोक सभा में सांसदगण हास्य विनोद, कविता और शेरो-शायरी के जरिए अपनी बात मुखरता से कहते हुए दिखते हैं। हास्य-विनोद से ना केवल माहौल का तनाव कम होता है बल्कि अन्य वक्ताओं की बोलने की इच्छा का भी संवर्धन होता है। एक शेर के जवाब में दूसरा वक्ता भी अपनी बात शेर से कहने की कोशिश करता है और वही क्षण पूरी संसदीय प्रणाली में बहस और वह भी मर्यादा का दायरे में रह कर करने को पुनर्जीवित कर देती है। पंद्रहवीं लोकसभा के दौरान सत्तारूढ़ कांग्रेस और विपक्षी भाजपा के बीच अक्सर वाकयुद्ध होता रहता था लेकिन उसी दौरान सुषमा स्वराज और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच हुई शेरो-शायरी अब भी लोग याद करते हैं। सुषमा स्वराज उस समय नेता प्रतिपक्ष थीं और कई यादगार उदाहरण हैं जिनमें दोनों नेताओं ने शेरो-शायरी के जरिए एक दूसरे पर निशाना साधा। पंद्रहवीं लोकसभा में ही एक बहस के दौरान सिंह ने भाजपा पर निशाना साधते हुए मिर्जा गालिब का मशहूर शेर पढ़ा, ‘हम को उनसे वफा की है उम्मीद, जो नहीं जानते वफा क्या है।’ इसके जवाब में सुषमा स्वराज ने कहा कि अगर शेर का जवाब दूसरे शेर से नहीं दिया जाए तो ऋण बाकी रह जाएगा। इसके बाद उन्होंने बशीर बद्र की मशहूर रचना पढ़ी, ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।’ गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्प पर चर्चा में भाग लेते हुए केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना के माध्यम से नहरों के निर्माण के संबंध में बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी की कमी और आवारा गायों की समस्या को दूर करने के सम्बन्ध में दिनांक 21.06.2019 को श्री निशिकांत दुबे ने कवि बशीर बद्र की शेर पढ़ी, ‘अगर फुससत मिले, पानी की तहरीरों को पढ़ लेना, हर एक दरिया हमारे सालों का अफ़साना लिखता है।’
सिर्फ लोक सभा ही नहीं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी अपनी गंभीर छवि के उलट हास्य प्रेमी और हाज़िरजवाबी के भी महान उदहारण हैं। महात्मा गांधी की छवि आम तौर पर एक धीर-गंभीर विचारक, आध्यात्मिक महापुरुष और एक कड़क अनुशासन प्रिय राजनेता की रही है लेकिन उनकी विनोदप्रियता और हाज़िरजवाबी का भी कोई जवाब नहीं था। अपने हास्य और व्यंग्य से वे बड़े-बड़े लोगों को लाजवाब कर देते थे। वह खुलकर हंसते थे और हंसते वक्त ही पता चलता था कि उनके कई दांत उम्र के साथ ग़ायब हो चुके हैं। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘जिसने महात्माजी की हास्य मुद्रा नहीं देखी, वह बेहद कीमती चीज़ देखने से वंचित रह गया है।’ सरोजनी नायडू तो महात्मा गांधी को प्यार से ‘मिकी माउस’ बुलाती थीं। गांधीजी भी अपने पत्रों में उनके लिए ‘डियर बुलबुल’, ‘डियर मीराबाई’ तो यहां तक कि कभी-कभी मज़ाक में ‘अम्माजान’ और ‘मदर’ भी लिखते थे। गांधी ने कहा, ‘जिन विषम और विकट परिस्थितियों में मैं काम करता हूँ, अगर मुझ में इतना अधिक ‘सेन्स ऑफ ह्यूमर’ ना होता, तो मैं अब तक पागल हो गया होता।’ लंदन में गांधीजी की मुलाकात एक रिटायर्ड ब्रिटिश फौजी से हुई। वह उनका ऑटोग्राफ चाहता था। चलते वक्त गांधी जी ने उससे पूछा आपके कितने बच्चे हैं? फौजी ने कहा आठ, चार लड़के और चार लड़कियां। गांधीजी हंसे और बोले मेरे बस चार लड़के हैं इसलिए मैं आपके साथ आधे रास्ते तो दौड़ ही सकता हूं। ये सुनकर सब हंसने लगे।
देश में कानून बनाने की सर्वोच्च संस्था संसद में गर्मागर्म राजनीतिक बहस के बीच कविताओं, छंदों, संस्कृत के श्लोकों, चुटकियों और शेरो-शायरी का दौर भी चलता रहता है। सदन का माहौल हल्का हो जाता है और सांसदों के ठहाके व तालियां गूंजती हैं। संस्कृत के श्लोक जहां ऋग्वेद एवं गीता से लेकर अन्य शास्त्रों से लिए जाते हैं, वहीं बशीर बद्र, राहत इंदौरी एवं वसीम बरेलवी की शेरो-शायरी, रवींद्रनाथ टैगोर, रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं और गोस्वामी तुलसीदास एवं अमीर खुसरो के दोहे पर सदन में मौजूद सदस्य खूब तालियां बजाते देखे जाते हैं।
सलिल सरोज
नई दिल्ली