बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा?
*विनीत नारायण
मशहूर शायर नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता का शेर, ‘हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम, बदनाम
अगर होंगे तो क्या नाम न होगा’ काफ़ी लोकप्रिय हुआ। इसका अर्थ है जिन्हें शोहरत की भूख होती है वो
शोहरत पाने के लिए किसी भी हद तक जाने तैयार हो जाते हैं। ऐसा करने पर यदि उन्हें बदनामी भी मिले
तो वे उसी में शोहरत के अवसर खोज लेते हैं। सुप्रीम कोर्ट की मीडिया ऐंकरों को पड़ी फटकार का कुछ
ऐसा ही अर्थ निकाला जा सकता है।
दरअसल हेट स्पीच के एक मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टीवी एंकरों को कड़ी फटकार लगाई
है। कोर्ट ने कहा कि “नफरती भाषा एक जहर की तरह है जो भारत के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान
पहुंचा रही है। पिछले कुछ समय से चैनलों पर बहस बेलगाम हो गई है। देश के राजनैतिक दल इस सब में
भी लाभ खोज रहे हैं। अदालत ने कहा कि ऐसी नफ़रत फैलाने वाले दोषियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही
की जानी चाहिए। केंद्र सरकार से जवाब माँगते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या इसको लेकर सरकार का
कानून बनाने का इरादा है या नहीं? मौजूदा क़ानून ऐसे मामलों में निपटने के लिए अपर्याप्त है। न्यायमूर्ति
के एम जोसेफ और हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने कहा कि हेट स्पीच के मामलों में केंद्र को 'मूक दर्शक' नहीं
बने रहना चाहिए।” कोर्ट ने आगे कहा कि, “पूरी तरह से स्वतंत्र प्रेस के बिना कोई भी देश आगे नहीं बढ़
सकता है। एक मुक्त बहस होनी चाहिए। आपको यह भी पता होना चाहिए कि बहस की सीमा क्या है।
बोलने की स्वतंत्रता वास्तव में श्रोता के लाभ के लिए है। एक बहस को सुनने के बाद श्रोता अपना मन
बनाता है। लेकिन हेट स्पीच सुनने के बाद वह कैसे अपना मन बनाएगा।”
आपको याद होगा कि जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा
हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यकीनन टीवी चैनल ही इस
अराजकता फैलाने के गुनहगार है। जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लालच में आये दिन इसी तरह के विवाद
पैदा करते रहते है। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते है जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते
है जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों। टीवी ऐंकर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल कूद करते है।
जिस किसी ने बीबीसी के टीवी समाचार सुने होगें उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहें विषय
कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गम्भीर क्यों न हो, बीबीसी के ऐंकर संतुलन नहीं खोते। हर
विषय पर गहरा शोध करके आते है और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते है जो विषय के जानकार होते है। हर
बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का
संतोष मिलता है।
आज की स्थिति में मैं मानने लगा हूं कि टेलीविजन समाचारों पर नियंत्रण जरूरी है। खबरों को फूहड़ और
बिकाऊ बनाने के लिए टीआरपी को बहाना बनाया जाता है और खबरों के नाम पर ज्यादातर चैनल जो
कुछ परोस रहे हैं उसे झेलना बेहद मुश्किल हो गया है। एक समय था जब रात में सिर्फ एक बार नौ बजे
खबरें प्रसारित होती थीं। पहले रेडियो पर और फिर टीवी पर। उस समय खबरें सुनने या जानने में जो
दिलचस्पी होती थी वह क्या अब किसी में रह गई है। तब खबरें नई होती थीं वाकई खबर होती थीं। पर
अब दिन भर चलने वाली खबरों को जानने के लिए वो उत्सुकता नहीं रहती है। एक तो संचार के साधन
बढ़ने और लगातार सस्ते होते जाने से लोगों तक सूचनाएं बहुत आसानी से और बहुत कम समय में पहुंचने
लगी हैं। ऐसे में दर्शकों को खबरों से जोड़ने के लिए कुछ नया और अभिनव किए जाने की जरूरत है। पर
ऐसा नहीं करके ज्यादातर चैनल फूहड़पन पर उतर आए हैं।
दूसरी ओर, नए और अपरिपक्व लोगों को समाचार संकलन और संप्रेषण जैसे काम में लगा दिए जाने का
भी नुकसान है। किसी भी अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी आती है। नए और युवा लोग अधिकार तो
मांगते हैं पर जिम्मेदारी निभाने में चूक जाते हैं। उन्हें मीडिया की आजादी तो मालूम है पर इस आजादी के
प्रभाव का अनुमान नहीं है। आपने देखा होगा कि दिन भर चलने वाले समाचार चैनल अपने प्रसारण में
हिंसा और अपराध की खबरें खूब दिखाते हैं और कई-कई बार या काफी देर तक दिखाते रहते हैं। दर्शकों
को आकर्षित करने के लिए ये अपने हिसाब से अपराधी तय कर लेते हैं और अदालत में मुकदमा कायम
होने से पहले ही किसी को भी अपराधी साबित कर दिया जाता है। बाद में अगर वह निर्दोष पाया जाए
तो उसकी कोई खबर दिखाई बताई नहीं जाती है। ऐसी खबरों से आहत होकर लोगों के आत्म हत्या कर
लेने के भी मामले सामने आए हैं पर टेलीविजन चैनल संयम बरत रहे हों, ऐसा नहीं लगता है। दुर्घटना या
प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पीड़ितों से बेसिर-पैर के सवाल पूछे जाने के कई उदाहरण हैं। नए और
गैरअनुभवी लोगों पर समाचारों के चयन और प्रसारण की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी डाल दिए जाने और
टीआरपी की भूख से ऐसा हो रहा है। समय की मांग है समाचार चयन और चैनल का संचालन अनुभवी
हाथों में हो और हम तक निष्पक्ष खबरें ही पहुंचें।
जब भारत में कोई प्राईवेट टीवी चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी विडियो समाचार
कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टीवी पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किये थे। बिना किसी
औद्योगिक घराने या राजनैतिक दल की आर्थिक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया
था। हमने कालचक्र में जनहित के मुद्दों को गम्भीरता से उठाया और उन पर देश के मशहूर लोगों से बेबाक
बहस करवाई। जिनकी चर्चा लगातार देश के हर अखबार में हुई। इसी तरह आज के साधन सम्पन्न टीवी
चैनल अगर चाहें तो जनहित में अनेक गम्भीर मुद्दों पर बहस करवा सकते है। जैसे नौकरशाही या
लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर,
पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गम्भीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके
करने से देश के जनमानस में मंथन होगा और उससे विचारों का जो नवनीत निकलेगा उससे समाज और
राष्ट्र को लाभ होगा। आज की तरह देश में अराजकता, हिंसा और कुंठा नहीं फैलेगी।