श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
श्रीरामकथा का भारतीय साहित्य में व्यापकता की अपेक्षा विदेशों में भी उसकी ख्याति और लोकप्रियता होना कोई कम आश्चर्य नहीं है। विश्व में जनसाधारण में यह श्रद्धा-विश्वास भावना है कि नेपाल में एक मात्र शिव भक्ति की उपासना ही प्रधान है। श्रीराम की चर्चा है करें तो भी नगण्य किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। नेपाल में भगवान् शिव के अतिरिक्त श्रीराम की विशद चर्चा और भक्ति भी है। नेपाल भारत की भाँति हिन्दू धर्मावलंबी प्रमुख देश है। अत: स्वाभाविक है कि वहाँ श्रीराम के अनन्य उपासकों और श्रीरामकथा भक्तों-प्रेमियों-पाठकों का बाहुल्य है। नेपाल में श्रीरामकथा पर हिन्दी में अनेक ग्रंथ लिखे गए किन्तु नेपाली भाषा का प्रसिद्ध-लोकप्रिय ग्रंथ है तो वह एकमात्र ग्रंथ है- नेपाली भानुभक्त रामायण। इस रामायण का सम्पूर्ण नेपाल में गरीब-अमीर सब ही नित्य पारायण करते हैं।
नेपाल देश में छोटे से पर्वतीय प्रदेश के पश्चिमी भाग के ऐसे ही भूभाग, रम्धा नामक ग्राम में विक्रम संवत् १८७१ आषाढ़ २९ गते (सन् १८१४ ई.) के पवित्र दिन संत भानुभक्त का जन्म हुआ। इनका जन्म वहाँ के ख्यातिप्राप्त परिवार विद्वान ब्राह्मण कुल के आचार्य श्रीकृष्ण के छ: पुत्रों में ज्येष्ठ धनञ्जय के एक मात्र पुत्र भानुभक्त के रूप में हुआ। श्री भानुभक्तजी के जीवन का अधिकांश समय पितामह के सानिध्य में व्यतीत हुआ। अत: उनके पितामह के संस्कृत भाषा का ज्ञान का लाभ इन्हें प्राप्त हुआ।
संत-कवि-भानुभक्त के बारे में नेपाल में एक किंवदन्ती बहुत प्रसिद्ध है। किंवदन्ती है कि 22 वर्ष की आयु में एक दिन एक वृक्ष की छाया में भानुभक्त की एक घसियारे से भेंट हुई। घसियारा अपनी दीन-हीन अवस्था होने पर भी अपने ग्राम में सार्वजनिक उपयोग के लिए कुआँ बनवाने हेतु गाढ़ी कमाई में से धन जमा कर रहा था। उसके इस कार्य से संत भानुभक्त के हृदय में भी सार्वजनिक कल्याण एवं सेवा की भावना का संचार हुआ। भानुभक्तजी के समय वाल्मीकि रामायण एवं अध्यात्म रामायण का सर्वत्र प्रचार-प्रसार प्रभाव एवं सम्मान था। क्षेत्रीय भाषाओं का धार्मिक साहित्य में प्रयोग लगभग नहीं के बराबर था क्योंकि ऐसी भाषा का प्रयोग पवित्र नहीं माना जाता था। इतना सब होने के उपरान्त भी भानुभक्त जी ने जनभाषा में रामायण की रचना का व्रत लेकर उस घसियारे से प्राप्त सार्वजनिक कल्याण के सपने को साकार रूप ही दिया।
भानुभक्तजी की भाषा नेपाली है किन्तु छन्द रचना में संस्कृत छन्दों का अनुकरण देखने को मिलता है। इनकी रामायण की कथावस्तु अध्यात्म रामायण से है। इनकी रामायण में नेपाल की सामाजिक रीतियों, वेशभूषा एवं भौगोलिक विशेषताओं आदि को स्थान दिया है। इनकी रामायण नेपाली भाषा की प्रथम रामायण मानी गई।
भानुभक्तजी का स्वर्गवास वि.स. १९२५ (१८६८ ई. सन्) आश्विन शुक्ल पंचमी के दिन ५४ वर्ष की अवस्था में हो गया। नेपाल में प्रतिवर्ष उनकी स्मृति में १३ जुलाई को उनकी जयन्ती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। नेपाली भाषा की इस रामायण के कुछ अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग इस प्रकार है-
नेपाली भाषा के संतकवि भानुभक्तजी ने अपनी रामायण के उत्तरकाण्ड में लक्ष्मणजी के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर श्रीराम ने दिए हैं। ये ही इस रामायण में ‘श्रीरामगीताÓ के नाम से प्रसिद्ध है। अत: सुधीजनों एवं आने वाली पीढ़ियों के ज्ञानार्थ जीवन में अनुकरण हेतु प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
इस जगत में श्रीराम की लीलाओं को सुनकर लोग कहते हैं कि लोकहित (लोक कल्याण) के निमित्त भगवान ने मनुष्य का स्वरूप धारण कर अनेक लीलाएँ की और वृद्धों द्वारा किए गए कर्मों के समान सत्कार्य करते हुए दिन व्यतीत किए, बस यही सबके हरि थे।
लक्ष्मणजी प्रभु (श्रीराम) के पास बैठे थे। लक्ष्मणजी ने श्रीरामजी से प्रश्न किया कि सबसे बड़ा विष कौन सा है? प्रभु ने तब विस्तारपूर्वक बताने की कृपा की कि ‘ब्रह्मस्वÓ ही महान (बड़ा) विष है। इस प्रकार राजा नृग के बारे में विस्तारपूर्वक सुना और मन में सन्तोष करने के पश्चात् पुन: लक्ष्मणजी कुछ और प्रश्न पूछने लगे।
हे नाथ! ज्ञान स्वरूप देहरूका आत्मा अघीन् भै पनि।
भूभार हर्नुभयो अनेक् तरह का यस् आकृती का बनी।।
लीला होइत आत्मरूपि भगवान् भक्तै फगत् जान्दछन।
योलीला त दया निमित्त हुनगो यस्तो पनी मान्दछन।।
नेपाली भानुभक्त रामायण उत्तरकाण्ड अथ श्रीरामगीता १२२
हे नाथ! ज्ञानरूपी देह आदि आत्माओं के अधीन होने पर भी ऐसी आकृति धारण कर अनेक प्रकार के भू-भार हरण करने की कृपा की। केवल भक्तगण ही जानते हैं कि यही तो आत्मिक भगवान की लीला है। ये भी माना जाता है कि ये लीला दया के निमित्त की गई।
ऐसे जानकार मालिक हे स्वामी! मैं आपके चरणतल में पड़ा हूँ। संसार रूपी गम्भीर समुद्र किस पाठ (ज्ञान) के द्वारा सहज ही तर (पारकर) सकते हैं, वही युक्ति सिखाने की कृपा करें ताकि उसी पाठ के द्वारा आनंद भोगकर सहज ही उस स्थान पर पहुँच सकूँ।
लक्ष्मण के इन वचनों को सुनकर श्रीरघुनाथजी ने प्रसन्न मुद्रा में अपने भक्त व भाई लक्ष्मणजी के सम्पूर्ण ताप का निवारण कर तत्वज्ञान आदि बताने की कृपा की। जिनके बारे में वेदों में भी कहा गया है कि यही मनुष्यों के लिए एक सरल साधन है। इस वर्णाश्रम की क्रियाएँ कुछ भी है, उन्हें पहले करके दशोन्द्रियों एवं मन को जीतकर गुरु के सम्मुख आगे जाकर निरन्तर गुरु की सेवा करते हुए आत्मज्ञान की प्राप्ति की कामना करने से आत्मज्ञान भी मिल जाता है और रीति से अनेक लोगों ने संसार तर (पार कर) लिया।
यदि फल की इच्छा करके कर्म को करते हैं तो ऐसी देह को धारण करके भी उस फल का भोग करते हैं और अन्यत्र मन अन्य कर्मों को भी करते हैं जिसके प्रभाव से ज्ञानी जगत में उन्हें पुन: देह प्राप्त होती है। इस रीति से चक्र के समान वह जगत में घूमता रहता है।
अज्ञान ही शत्रु के समान है जो सबके मन को घुमाता रहता है। अत: मन में यह समझ लेना कि ज्ञान से अज्ञान का नाश होता है और इन कर्मों का कितना महत्व है- मात्र क्रिया को करने से अज्ञान नष्ट नहीं होता है, अत: ज्ञान के समान अन्य कोई उपाय नहीं है।
अज्ञान-कर्मों से न तो अज्ञानता ही नष्ट होती है और न ही रोग से छुटकारा मिलता है। कर्म ही सब कुछ करता है, कर्म के ही धर्म से प्राणी इस जगत में घूमता रहता है। अत: लोग यह विचार कर लें कि ज्ञान के द्वारा कितने लोग इस जगत से तर गए। ज्ञान को छोड़कर कर्म के द्वारा ही संसार में कौन लोग तर गए?
विद्यालाइ सहाय कर्म छ ठुलों भच्छन इ वेदलें पनि।
तस्मात् कर्म अवश्य गर्नु जनले साहाय होला भनी।।
क्वै येसो पनि भन्दछन त ति भूनून् साहाय कोही रती।
विद्यालाइ त चाँ हिदैने नुझ यो विस्तार बताऊँ कति।।
नेपाली भानुभक्त रामायण उत्तरकाण्ड श्रीरामगीता १२९
वेद भी कहता है कि विद्या का सहायक कर्म ही है। अत: लोग अवश्य ही कर्म करें ताकि वह सहायक बन सके। कई लोग ऐसा भी कहते हैं कि विद्या (ज्ञान) को ङ्क्षकचित मात्र भी सहायक की आवश्यकता नहीं होती है। इसी विस्तार को समझे और कहाँ तक बताऊँ?
कर्म तो देह होता है और देह में अभिमान व्याप्त हो जाता है और विद्या जो उसी अभिमान युक्त देहादि में जाकर जब मिल जाती है तो परस्पर विरोध उत्पन्न होता है। इस तरह विद्या और कर्म के परस्पर विरोध में एक-दूसरे के कहाँ सहायक हो सकते हैं? विद्या ही एक युक्ति दे सकने में समर्थ है, यही सब लोग अच्छी तरह जान लें।
श्रुतियों को सुननेवाले लोग भी यही बात कहते हैं। विद्या (ज्ञान) को छोड़कर अन्य किसी का आश्रय नहीं ढूँढते हैं। अत: कर्म को विरोधी समझकर लोगों को चाहिए कि सब कर्मों को छोड़ दें और केवल विद्या को महान समझकर इसी में मन को लीन करें। जो ये तपस्वी वाक्य हैं इसमें वाक्यार्थ को जान लेना चाहिए। इसमें तीन पद विद्यमान हैं। उन तीनों पदों का तात्पर्य मन को अर्पण करना है। तत् का अर्थ परमात्मा है। उस पद में स्वयं कहना जीवात्मा है। इनको एक ही बोध करने वाले ‘असÓ जो पद में है उसी का रात दिन ध्यान करना चाहिए।
माया से ही शरीर का सृजन हुआ है और अन्त में यह सब मृत्यु को प्राप्त होता है, देखना, इन सभी में पंचमहाभूत व्याप्त है। इस प्रकार संसार के सुखदु:ख, साधन स्वरूप इस देह में दृष्टिगोचर होता है। सब इसे ‘स्थलोपाधिÓ कहते हैं और इसका यही तो नाम है।
दश् इन्द्रीय मन् अपञ्चिकृत भूत यो सोहजम्मा छ जो।
स्थूलोपाधि भनी वहिन्छ सबको मूल भोग साधन् छ यो।।
येसै स्थूल उपाधि भिन्न छ सदा इनको वियोग् भी जसै।
स्थूलोपाधि गलेर जान्छ सबको, टिक्तैन एक क्षण कसै।।
नेपाली भानुभक्त रामायण उत्तरकाण्ड श्रीरामगीता १३४
दश इन्द्रिय और मन पञ्चभूत-ये कुल सोलह है और इन सबको ‘सूक्ष्मोपाधिÓ कहते हैं और इनका साधन ही मूल भोग है। इस स्थूलोपाधि के अन्दर सदा ही इनका वियोग होता रहता है। सबको स्थलोपाधि गल कर विलीन हो जाता है, क्षणभर भी नहीं टिकता है।
जीव तो शुद्ध निर्मल एवं फटिक के समान मुक्त उपाधि युक्त है। अत: सद्गुणों के प्रभाव से उसी उपाधि के समान निर्मल भी होता है। इन दोनों उपाधियों के प्रभाव से अभी उपाधि के समान निर्मल होता है। इन दोनों उपाधियों के द्वारा समझने पर जीव को हम पृथक जब अनुभव करेंगे तब ही मुक्ति प्राप्त होगी अन्यथा और कोई उपाय नहीं है।
रात्रि के समय संग में रहने पर स्फटिक भी ठीक उसी रात्रि के समान दिखाई देता है, उसी प्रकार आत्मा भी उपाधि के संग उपाधि के समान हो जाता है। आत्मा ही उपाधि है जैसे स्फटिक में कहीं भी लाल दाग नहीं होता है, केवल वह चमक झूठी है यही मन में समझ लो।
जागृत-स्वप्न-सुसुप्ति वृत्तियाँ ये ही बुद्धि के तीन अंग हैं। भ्रम से ही इस ब्रह्म-रूप में नित्यसुख का रूप धारण किया जाता है। इन वृत्तियों को रोककर लोग इस आत्मा को पहचान ले। आत्मा के अन्दर उपाधि को झूठ जानकर इसे छोड़ दो।
इन सब में जो अभिमान है उसे आत्मा के अन्दर पहचानने का अभ्यास होता है। इच्छा आदि भी बुद्धि धर्म भी जानना जिसका कोई सार नहीं है। आत्मा साक्षी है कि इन सबमें यह अलग है और सब में व्याप्त भी है। जिस प्रकार अग्नि लोहे में व्याप्त हो जाती है।
गुरु के वेद-वचनों के द्वारा इसी आत्मा को पहचानना चाहिए। आत्मा को पहचानने से यह समझ लेना कि वह उसी क्षण मुक्त हो जाता है। अत: लोगों को यह विचार करना चाहिए कि आत्मा का रूप इस प्रकार है और अज्ञान नष्ट करने के लिए अन्य कोई उपाय भी नहीं है।
आत्मा को इस तरह पहचाना जाता है कि वह पहले एकान्त में जाकर बैठ जाए, दस इन्द्रियों को वश में कर मन को जीतकर आत्मा के विचार में लीन हो जाए। सकल लोक यह जान ले कि जो जगत में प्रकाश है वही आत्म सत्ता है। इन्हीं तत्वों को समझ करके ही तो स्वयं भी पूर्ण रूप की प्राप्त होता है।
सर्वजगत को अज्ञान व्यवस्था में कहे जाने वाला शब्द ओंकार है। ज्ञान का उत्तर अर्थात् वाचक आत्मा में कैसे लीन हो सकता है। जब आत्मा में लीन हो जाता है, तब अ-ऊ-म इन तीन विश्व के साक्षी सहित उस समय केवल ‘आत्माÓ ही उपाधि रहित निर्मल रहती है।
जैसे ही ज्ञान द्वारा विचार करने से यह बात दृढ़ हो जाती है कि मैं ही वह आत्मा हूँ। तब कहा जाता है कि जीव जीवमुक्त हो जाता है और वह मनुष्य कदापि ताप से पीड़ित नहीं होता है। सब इन्द्रियों को एकाग्र एवं संशक्त करके उपाधि को नाश करते हुए समाधि में अभ्यास करने वाला सहज ही अभ्यास करता हुआ मैं दिखता हूँ।
इसी आत्मरूप का ध्यान रखते रहो और जो कुछ भी कठिन और सरल अर्थात जो कुछ भी सुख दु:ख तुम्हें मिलेगा उसे साहस के साथ सहन करो। इसी तरह यदि तुम सम्पूर्ण समय व्यतीत कर लोगे तो एक दिन संसार के सारे दु:खों को छोड़कर तुम्हारा शरीर मुक्त हो जाएगा और मुझमें लीन हो जाओगे।
प्रारम्भ में न तो अन्त में न बीच में, यह देहधारी बनकर पूर्ण आनन्द को प्राप्त नहीं होता है और यह बात सत्य मानकर सब लोग इसे जान लें। इसलिए इस विधि को सर्वजन त्याग कर आत्मा में गम्भीरता से विचार करें। वैसे ही लोग मुझ में विलीन हो जाते हैं, जिस प्रकार जल जलधि (समुद्र) में पहुँच कर।
यह संसार झूठा (मिथ्या) है, केवल आत्मा ही सत्य है जैसे रस्सी को सर्प समझने के समान अज्ञानता में सच ही दिखाई देता है। यदि ज्ञान की बात ज्ञान कर सकने पर मेरे चरणों में (भक्ति द्वारा) पकड़कर सेवा करेगा, तभी उसे सर्वज्ञान प्राप्त होगा अन्यथा वह किसी प्रकार तर नहीं सकता है।
वेदों का सार-रहस्य सब कुछ कह चुका हूँ। जो इसे विचार करता है, उसके कोटि जन्मों के सहस्त्र सकल पाप सहज ही विनाश हो जाते हैं। इसलिए भाई! इस जगत को झूठे (असत्य) जादू के समान समझकर सदा मेरी भक्ति में मन लगाकर और अनन्त रूपी बनकर रहना।
मेरे इन सद्गुणों से पूर्ण स्वरूप की प्रसन्नता से भजन करें अथवा निर्गुण गायें। परिपूर्ण आत्मरूप में ले जाकर इस मन को रखें। वे दोनों मेरे ही समान हैं और वह मैं ही हूँ। अत: वे जो मेरे समान बन सम्पूर्ण लोकों को पाँव से कुचल देने पर पवित्र हो जाते हैं।
गुरुचरणों में तथा मेरे वचन में श्रद्धा भक्ति रहें इसे श्रुतिकार समझकर पढ़े और इसे मूल तत्व समझें। इस रीति से पढ़ने से भी अज्ञानता का नाश होकर मेरा ही रूप धारण कर लेता है और संसार-सागर से बड़ी ही सरलतापूर्वक तर जाता है।
श्रीरामचरितमानस में श्रीरामगीता
श्रीरामचरितमानस में भी श्रीरामगीता का अत्यन्त ही संक्षिप्त में वर्णन है किन्तु उसे कम नहीं आंका जा सकता है। श्रीरामगीता में लक्ष्मणजी ने श्रीराम से प्रश्न पूछे तथा श्रीरामजी ने उन्हें अत्यन्त सरल विधि से उपदेश एवं ज्ञान दिया है वहीं श्रीरामगीता के रूप में प्रसिद्ध है।
श्रीराम-सीताजी सहित पंचवटी में थे तब एक दिन श्रीराम को आनन्दपूर्वक बैठे देख बड़ी विनम्रता से उनसे लक्ष्मणजी ने प्रश्न इस प्रकार पूछे तथा श्रीराम ने बड़े ही प्रेमपूर्वक उनको उत्तर दिए।
दोहा- ईश्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा १४)
हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिये, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएं। श्रीराम ने कहा- हे भाई।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा-१४
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित्त लाई।।
मैं अरू मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १५-१
श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- मैं थोड़े में सब समझाकर कह देता हूँ। तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो। मैं और मेरा, तू और तेरा-यही माया है जिसमें समस्त जीवों को वश में कर रखा है।
लक्ष्मणजी ने श्रीराम से पूछा परम बैरागी इस संसार में कौन होता है?
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं।।
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १५-४
ज्ञान वह है जहाँ मान आदि एक भी दोष नहीं है और जो सब में समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसके परम् वैराग्यवान् कहना चाहिए जो सारी सिद्धियाँ को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका है।
इस तरह जो संसार के पदार्थों को त्याग करे वह वैरागी और दिव्य पदार्थों का त्याग करें वह परम वैरागी होता है। सिद्धि तीनि गुन के त्याग का श्रेष्ठ उदाहरण भरतजी है यथा- ‘भरतहि होई न राजमद बिधि हरि हर पद पाई।Ó २-२३१ विधि हरि हर तीनों गुणों के स्वरूप हैं। भरतजी ने तीनों की सिद्धियों को तिनका के समान त्याग कर दिया है।
लक्ष्मणजी ने श्रीराम से पूछा- माया और ईश्वर में क्या भेद है।
दोहा- माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा-१५
जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए। जो (बन्धन) कर्मानुसार और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वही ईश्वर है।
लक्ष्मणजी ने श्रीरामजी से पूछा धर्म और ज्ञान से क्या प्राप्त होता है?
धर्म तें बिरति जोगतें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।।
जाते बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १६-१
धर्म के आचरण से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है। ऐसा वेदों में वर्णन किया है। हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो कि भक्तों को सुख देने वाली है।
लक्ष्मणजी ने श्रीरामजी से भक्ति के बारे में पूछा तब-
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १६-४
श्रीराम ने कहा कि श्रवण आदि नौ प्रकार की भक्तियाँ दृढ़ होगी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यन्त प्रेम होगा। ये नवधा भक्ति इस प्रकार हैं- श्रवणं, कीर्तनं, स्मरणं, पादसेवनं, अर्चनं, वन्दनं, दास्यं, संख्यं और आत्मनिवेदन।
अंत में लक्ष्मणजी ने श्रीरामजी से पूछा कि भगवान किसके वश में रहते हैं?
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा।।
काम आदि दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १६-६
मेरा गुण गाते समय जिनका शरीर पुलकित हो जाय वाणी गद्गद् हो जाए और नेत्रों से प्रेमाश्रुओं का जल बहने लगे, काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हो भाई। मैं सदा उसके वश में रहता हूँ।
लक्ष्मणजी ने पूछा हे प्रभु आप विश्राम कहाँ करते हैं?
दोहा- बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं नि:काम।
तिन्हके हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १६
भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा।।
एहि बिधि गए कछुक दिन बीती। कहत बिराग ज्ञान गुन नीती।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १७-१
जिनको वचन, कर्म और मन से मेरी ही गति है और जो कामनारहित होकर मेरा भजन करते हैं, उनके हृदयकमल में मैं सदा विश्राम करता हूँ।
भक्तियोग सुनकर लक्ष्मणजी ने अत्यन्त सुख पाया और प्रभु के चरणों में माथा नवाया। इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान, गुण और नीति कहते हुए कुछ दिन बीत गए।
इस संसार में भवसागर से पार होना है तो श्रीरामगीता को समझकर जीवन में उतार ले तो हमें सब दु:खों से छुटकारा प्राप्त होगा तथा मनुष्य जन्म लेना सार्थक होगा।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर