ह्रदय नारायण दीक्षित
जीवन इसी जगत में है और सुख दुख भी। आनंद भी इसी संसार में है। योग ध्यान भक्ति उपासना इसी संसार में है। भारतीय धर्म चिंतन में चार पुरुषार्थ धमर्, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति का क्षेत्र यही संसार है। संसार त्याग क्षेत्र नहीं है। यह कर्म क्षेत्र, धर्म क्षेत्र व भोग क्षेत्र है। कर्तापन भ¨क्तापन ही संसार है। लेकिन जीवन रहस्य जटिल हैं। भारतीय दर्शन और चिंतन में जिज्ञासा का महत्व है। ऋग्वेद प्राचीनतम ज्ञानकोष है। यह जिज्ञासा से भरापूरा है। इसके रचनाकाल से लेकर संपूर्ण वैदिक साहित्य में भरी पूरी प्रश्न जिज्ञासा है। मानने पर जोर नहीं है, जानने की इच्छा महत्वपूर्ण है। केन उपनिषद् बड़ी प्यारी पुस्तक है। इसमें अंतःकरण से जुड़े 5 प्रश्न हैं। पहली जिज्ञासा है, ‘‘यह मन किसके द्वारा प्रेरित होकर सक्रिय है?‘‘ सीधा सरल प्रश्न है। मन चंचल है। गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘‘हे कृष्ण मन बड़ा चंचल है। चंचलम् हि मनः कृष्णः इसका निग्रह कठिन है। केनोपनिषद् के ऋषि मन के प्रेरक तत्व को जानना चाहते हैं। दूसरा प्रश्न प्राण के सम्बंध में है।, ‘‘यह प्राण किसकी प्रेरणा से काम करता है? कैसे गति करता है ?‘‘ तीसरा प्रश्न वाणी पर है, ‘‘हम किसकी इच्छा से बोलते हैं? चैथे प्रश्न का सम्बंध आंखों से है, ‘‘आंखों को काम में कौन लगाता है? पांचवा प्रश्न कान श्रवण पर है, ‘‘कानों के सुनने के लिए कौन प्रेरित करता है?‘‘ केनोपनिषद् के पांचों प्रश्न हमारी अंतर्यात्रा से जुड़े है। ऋषि ने इन प्रश्नों के उत्तर भी दिए हैं। ज्ञान यात्रा में उत्तर महत्वपूर्ण नहीं होते। प्रश्न उत्तरों से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। कभी कभी उत्तर संतोष नहीं देते। संभवतः इसीलिए यजुर्वेद में प्रश्नों को देवता कहा गया है।
महाभारत में यधिष्ठिर और यक्ष के प्रश्नोत्तर हैं। यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न हमारी ज्ञान परम्परा की महत्वपूर्ण संपदा हैं। मैं परम्परा और संस्कृति दर्शन का विद्यार्थी हूँ। मेरे अंतःकरण में भी अनेक प्रश्न उठते हैं। प्रश्न है कि अंतःकरण में इष्र्या या द्वेष कहां से आए? क्यों आए ? कुछ प्राकृतिक दृश्य मनोरम लगते हैं और कुछ असुंदर। ऐसी अनुभूति का आधार क्या है? सुंदर और असुंदर के मानक कब बने? क्यों बने? यश पदार्थ या भौतिक वस्तु नहीं है। तब यश की इच्छा का जन्म कब हुआ और क्यों हुआ? कुछ वस्तुए, जीव और मनुष्य सुंदर लगते हैं। क्यों लगते हैं? सौंदर्य के मानक क्या हैं ? क्या सुंदरता वास्तविक है? क्या यह देखने वाले व्यक्ति की दृष्टि में होती है? या वस्तु या प्राणी के रूप ही सुंदर होते हैं? हिंसा को समाज ने गलत बताया। हिंसा त्याज्य है। लेकिन संसार हिंसा से भरा पूरा क्यों है? गीत संगीत अच्छे लगते हैं। ऐसा कब से है? और क्यों है? भारतीय मनीषा ने धर्म का विकास किया। लोकमंगल धर्म का अधिष्ठान है। रिलीजन मजहब की आस्थाऐं भी है। सबके घोषित लक्ष्य मानवता का संवर्द्धन हैं। लेकिन पंथ मजहब को लेकर हिंसा और रक्तपात क्यों है? आनंद के स्रोत क्या हैं? उपकरण क्या हैं? आनंद है क्या? क्या आनंद भीतरी ही है? या संसारी आत्मीयता है?
अथर्ववेद में भी विस्मयजनित प्रश्न हैं। कुछ प्रश्न मनुष्य शरीर संरचना पर हैं, ‘‘किसके द्वारा एड़ियों और घुटनों को भरा गया? किसने अलग – अलग जांघें बनाई? अंगुलियों और तलुवों को किसने पोषण दिए?‘‘ ऋषि को शरीर की संरचना आश्चर्यजनक लगती है। उन्हें लगता है कि यह देवों द्वारा बनाई गई हैं। ऋषि प्रश्न करते हैं – वे कौन देव हैं? कितनी तरह के देवता हैं? जिन्होंने कोहनी, कंधे और पसलियां जोड़ी? ऋषि शरीर के सभी अंगों को ध्यान से देखते हैं। प्रश्न करते हैं, ‘‘किस देवता ने मुख, दो नाक, दो आंख, दो कान व 7 छिद्र बनाए? फिर मनोभावों को लेकर ऋषि जिज्ञासा मजेदार है। सुंदर प्रश्न है, ‘‘प्रिय, अप्रिय, वाणी, निद्रा, स्वप्न, आनंद और हर्ष किस देव के प्रभाव से पुरुष में आए? रूप, सौन्दर्य, महिमा, कीर्ति व जिज्ञासा किन देवों ने प्रतिष्ठित किए? इसी तरह मृत्यु रहस्य की जिज्ञासा है, ‘‘जन्म मृत्यु का विस्तार और ऊषा का प्रकाश किसने किया? अंत में एक उत्तर है, ‘‘उसे निश्चित ही ब्रह्म ज्ञानी जानते हैं।‘‘ मैं विनम्र विद्यार्थी की तरह प्रश्न बेचैन हूँ। जीवन जगत के रहस्य जटिल हैं। ऋषि बताते हैं कि सभी जिज्ञासाओं का समाधान ब्रह्म ज्ञानी ही कर सकते हैं। तब सहज प्रश्न उठता है कि ब्रह्म क्या है? ब्रह्मसूत्र अथातो ब्रह्म जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है। ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म हो जाते हैं। सूत्र शब्दों से बनते हैं। मन में प्रश्न उठता है, ‘‘क्या वास्तविक ज्ञान के लिए शब्द पर्याप्त हैं?
भारतीय चिंतन में केवल अध्यात्म जिज्ञासा ही नहीं है। मनुष्य शरीर जटिल संरचना है। आधुनिक विज्ञान ने काया पर काफी शोध किया है। शरीर का अध्ययन एनाटामी कहा जाता है। शरीर प्राण धारण करता है, बुद्धि उपलब्ध ज्ञान का विवेचन करती है। इस विवेचन के आधार मानक परिवर्तित होते रहते हैं। सभी मनुष्य एक जैसे नहीं होते। अस्तित्व में अरबों मनुष्य हो चुके है। कोई दो मनुष्य एक जैसे नहीं हुए। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है कि, ‘‘जब भी किसी शिशु के जन्म की सूचना मिलती है, प्रतीत होता है कि ईश्वर अभी थका नहीं, नवसृजन जारी है।‘‘ शतपथ ब्राह्मण में एक प्रश्न है, ‘‘मनुष्य को कौन जानता है – को वेद मनुष्यस्य। मनुष्य साधारण विषय नहीं है। इसे जानना आसान नहीं। कोई प्रयोगशाला मनुष्य का ज्ञान नहीं करा सकती और न ही कोई ग्रन्थ। मनुष्य के अध्ययन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण सहायक हम स्वयं हैं। हम मनुष्य हैं। हम मनुष्य अपने भीतर जा सकते हैं। किसी दूसरे मनुष्य के भीतर पैठना आसान नहीं। स्वयं का अध्ययन स्वयं के द्वारा ही करने का कोई विकल्प नहीं। यह कठिन नहीं और सरल भी नहीं। हमारे भीतर का संसार भी बहुत बड़ा है। यहां राग हैं, द्वैष हैं। तमाम धारणाएं हैं। कुछ ग्रंथों को पढ़कर भी ऐसी धारणाएं बनती हैं। तमाम धारणाएं उधार की हैं। स्व अनुभूति से पैदा धारणाएं उपयोगी होती हैं।
स्वयं के द्वारा स्वयं को पढ़ने का अपना मजा है। भीतर हम और बाहर संसार। संसार और हम जुड़े हुए हैं। हिन्दू दर्शन में ये दो नहीं है। संसार में धरती आकाश हैं। अग्नि तेजस हैं। जलमाताएं हैं। वायु प्राण संवर्द्धक हैं। वनस्पतियां हैं। ग्रह नक्षत्र हैं। सूर्य चंद्र हैं। प्रश्न उठते हैं कि धरती, आकाश, जल, अग्नि और वायु किसने बनाए? और क्यों बनाए? वनस्पतियों व लाखों प्राणियों की रचना किसने की? सौर मण्डल का निर्माता विधाता कौन है? ज्ञान का आधार क्या है? प्रकाश और अंधकार का सर्जक कौन है? मैं स्वयं ऐसे प्रश्नों को लेकर व्याकुल हूँ। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि मैं कौन हूँ और क्यों हूँ? पृथ्वी आकाश और ज्ञानी जन हमारी जिज्ञासा शांत करें।
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