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गणेशजी की रोचक लघुकथाएँ

गणेशजी की रोचक लघुकथाएँ
गणेश पूजन में दूर्वा
पौराणिक धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार गणेशजी को दूर्वा अवश्य चढ़ाना चाहिए। अनलासुर नामक एक राक्षस था। वह देखने में भयानक लगता था। वह साधु संतों को जीवित अवस्था में ही निगल जाता था। सभी बड़े दु:खी और अशान्त थे। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। सभी सन्तजनों ने गणेशजी से प्रार्थना की कि वे इस दानव से मुक्ति प्रदान करें और उनकी रक्षा करें। गणेशजी ने सन्तों की प्रार्थना सुनी और वे अनलासुर राक्षस के पास गए। उन्होंने राक्षस को निकल लिया। ऐसा करने से गणेशजी के पेट में जलन होने लगी। गणेशजी बड़े परेशान हो गए। कश्यप ऋषि ने उन्हें हरी दूर्वा की इक्कीस और ग्यारह गाँठ चढ़ाई। इस प्रकार गणेशजी के पेट की जलन का शमन हो गया। तभी से गणेशजी को दूर्वा चढ़ाने की परम्परा चली आ रही है। कुछ धार्मिक ग्रन्थों में गणेशजी को दूर्वा की माला पहनाने का वर्णन भी प्राप्त होता है। दूर्वा एक सर्वसुलभ घास होती है जो बारीक होती है। इसकी तीन या पाँच की संख्या में इक्कीस या ग्यारह गाँठें बनाई जाती है। पवित्र स्थानों की दूर्वा का ही पूजन में उपयोग किया जाना चाहिए। भक्त अपने सामर्थ्य के अनुसार ही हरी या सफेद दूर्वा का उपयोग कर सकते हैं। गणेश चतुर्थी, बुधवार या अन्य कोई भी पूजन विधान हो भक्तजन सर्वप्रथम गणेशजी का ही पूजन करने की व्यवस्था करते हैं।
तुलसी और गणेश पूजन
भगवान के पूजन में तुलसी दल का विशेष महत्व है। श्रीकृष्ण, श्रीविष्णु तथा श्रीराम का पूजन करते समय तुलसी चढ़ाई जाती है। किन्तु गणेशजी के पूजन में तुलसी चढ़ाना वर्जित है। पौराणिक ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेख प्राप्त होता है। ग्रन्थों के आधार पर ऐसी कथा है कि एक बार तुलसी (वृन्दा) नदी के किनारे घूम रही थी। उसे वहाँ ध्यान मग्न गणेशजी दिखे। वे एक सुन्दर सिंहासन पर विराजमान थे और उन्होंने चन्दन का लेप अपने सम्पूर्ण शरीर पर लगा रखा था। तुलसी उनके समीप गई और अपने सौन्दर्य से उन्हें रिझाने लगी। उसने गणेशजी के सामने विवाह का प्रस्ताव भी रखा। गणेशजी ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जिससे वह क्रोधित हो गई और उसने गणेशजी को शाप दिया कि तुम्हारे दो विवाह होंगे। इस शाप से गणेशजी क्रोधित हो गए और उन्होंने तुलसी को शाप दिया कि तुम्हारा विवाह शंखचूड़ राक्षस से ही होगा और तुम पौधे के रूप में घर के बाहर ही रहोगी। पति की मृत्यु के बाद श्री विष्णु ने तुलसी को राधा की तरह स्थान दिया और कहा कि मेरे हृदय में तुम हमेशा निवास करोगी।
गणेशजी को मोदक की प्राप्ति
एक बार देवगण गजानन तथा षड़ानन के दर्शनार्थ आए। दोनों बालकों के दर्शन से वे अत्यधिक प्रसन्न हुए। देवताओं ने एक दिव्य मोदक माता पार्वती को दिया। मोदक देखकर दोनों बालक उस मोदक को खाने के लिए माँगने लगे। माता पार्वती ने उन दोनों बालकों को उस मोदक की विशेषता सुनाई। मोदक की गंध से अमरत्व की प्राप्ति होती है। जो इस मोदक को खाता है उसे दिव्य गुणों की प्राप्ति होती है। वह सभी शास्त्रों का ज्ञाता, विद्वान्, प्रवीण लेखक, चित्रकार तथा सभी विषयों में पारंगत हो जाता है। माता पार्वती ने दोनों बालकों से कहा कि तुम दोनों में से जो भी धर्माचरण के द्वारा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर देगा, वही इस मोदक को प्राप्त करने का अधिकारी होगा। तुम्हारे पिता शंकरजी की भी यही इच्छा है।
माता की आज्ञा सुनकर कार्तिकेय अपने वाहन मयूर पर सवार होकर तीर्थों की यात्रा पर चल दिए और सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर वापस आ गए। गणेशजी भी अपने वाहन मूषक पर सवार होकर निकले और उन्होंने अपने माता-पिता की सात परिक्रमा की और उनके सम्मुख करबद्ध खड़े हो गए। उन्होंने उस दिव्य मोदक को प्राप्त करने का अपने आपको अधिकारी सिद्ध कर दिया। माता-पिता का सभी तीर्थों से सर्वोपरि स्थान है। संयम, नियम, अनुष्ठान, तीर्थस्थान, व्रत, उपवास, योग, ध्यान सभी माता-पिता के सम्मान के सामने नगण्य है। माता-पिता की सेवा भक्ति सर्वोपरि है। पार्वती माता ने कहा कि गणेश यज्ञ, विवाह, उपनयन आदि सभी धार्मिक अनुष्ठान में सर्वोपरि है और प्रथम पूज्य है। शिव और शिवा ने कहा कि यह अमृतमय मोदक हम गणेश को देते हैं। तभी से मोदक गणेशजी को सर्वप्रिय हुआ यह गणेशजी की कुशाग्र बुद्धि का प्रतिफल है।
गणेशजी ने सर्वदा अपने माता-पिता का सम्मान किया। उन्हें समस्त पुण्य कार्य, तीर्थाटन, व्रत, उपवास, यज्ञ आदि सभी में सर्वोपरि माना। माता-पिता इन सभी से बढ़कर है। विवाह की प्रतिस्पर्धा में भी कार्तिकेय मयूर वाहन पर भू मण्डल की परिक्रमा करने चल दिए थे और गणेशजी ने माता-पिता की परिक्रमा की और सर्वप्रथम उनके सम्मुख खड़े हो गए। उन्होंने यह प्रतिस्पर्धा अपनी त्वरित बुद्धि से जीत ली और उनका विवाह सिद्धी और वृद्धि के साथ संपन्न हुआ। कार्तिकेय को ब्रह्मचारी रहना पड़ा। अपने भक्तों के सम्मुख गणेशजी ने यह सिद्ध किया कि माता-पिता के पावन अंगों में समस्त देवता निवास करते हैं। सभी तीर्थों का निवास स्थान माता-पिता ही हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थ – पद्मपुराण और स्कंद पुराण

प्रेषक
डॉ. शारदा मेहता

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