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हिन्दू समाज के अस्तित्व की रक्षा एवं उसकी प्रगति के लिए जाति व्यवस्था को समाप्त करना जरूरी

डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर की 132 वीं जयंती सामाजिक पुर्ननिर्माण पर उनका दृष्टिकोण

प्रो. सुनील गोयल

(लेखक प्रख्यात समाज वैज्ञानिक एवं स्तंभकार है तथा वर्तमान में प्राध्यापक एवं अधिष्ठाता, समाज विज्ञान एवं प्रबंधन अध्ययनशाला के बतौर डॉ. बी. आर. अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय, डॉ. अम्बेडकर नगर (महू), जिला इन्दौर, मध्यप्रदेश, भारत में पदस्थ है.)

सारांश

आम्बेडकर की सामाजिक संरचना का प्रारूप एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था जो व्यक्ति को स्वतंत्रता और आत्म विकास का पर्याप्त अवसर प्रदान कर सकें और जो सामाजिक समानता एवं भातृत्व के सिद्धांत की स्थापना करती हो, पर आधारित है। वे ऐसी अर्थव्यवस्था के पक्षधर नहीं थे जिसमें व्यक्ति का व्यवसाय उसकी योग्यता के आधार पर न होकर जन्म पर निश्चित होता हो, एक समूह दूसरे समूह का परम्परात्मक आधार पर आर्थिक शोषण करता हो और जो श्रम स्वातंत्रय के नियमो के विरूद्ध हो।

डॉ. आम्बेडकर एक ऐसे बेहतर समाज की स्थापना करना चाहते थे, जो जितना अच्छा सवर्ण के लिये हो उतना अच्छा मजदूर के लिये भी हो, जो जितना अच्छा पुरूष के लिये हो उतना ही अच्छा नारी के लिये भी हो, वस्तुतः आम्बेडकर एक समेकित समाज की रचना करना चाहते थे। राजनैतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के पश्चात स्वतंत्रता, समानता, भातृत्व के सिद्धांतों पर भारतीय सामाजिक ढाँचें की पुर्नरचना की सहमति राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही हो गई थी, तथापि इसे मूर्त रूप देना एक दुष्कर कार्य था। स्वाधीन्तोपरान्त इस दायित्व का निर्वाह डॉ. आम्बेडकर ने किया।

डॉ. आम्बेडकर की नज़र में भारतीय समाज में विद्यमान असमानता, शोषण, अस्पृश्यता, सामाजिक भेदभाव तथा नारी एवं दलित समाज के पतन के लिए परम्परात्मक सामाजिक व्यवस्था दोषी है, डॉ. आम्बेडकर ने चतुर्वर्ण एवं जाति व्यवस्था के उन्मूलन को भारतीय समाज के प्रगति के लिये आवश्यक बताया उनका कहना था कि चतुर्वर्ण व्यवस्था हिन्दू समाज की बेड़ी है एवं न्यायोचित नहीं है, वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय नहीं है वर्णोत्पति सम्बन्धी ऋग्वेदिक सिद्धांत असत्य है, वर्ण व्यवस्था सामाजिक भेदभाव पर आधारित है, चतुर्वर्ण व्यवस्था परावलम्बन को बढ़ावा देती है एवं व्यक्तित्व के स्वाभाविक विकास में बाधक है, यह व्यक्तियों को विकास के समान अवसर दिये जाने के नियम के विरूद्ध है, यह अनिवार्य सेवाओं और प्रतिबन्धों का एक संग्रह है जो जानबूझकर समाज में अधिकांश लोगों को कुछ गिने-चुने लोगों की सेवा में लगाये रखने के लिये बनाई गई, यह शूद्र विरोधी है – इनमें शूद्रों को समाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक अधिकारों से वंचित किया गया है। ऐसा कहा गया है कि जहां शूद्रों का वास हो वहां वेद पाठ न किया जाये। शूद्रों को भले ही वे मेहमान हो कोई ब्राह्मण बिना काम करावे भोजन न दें।

डॉ. आम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि वर्ण व्यवस्था का कठोर स्वरूप जाति व्यवस्था है, जाति व्यवस्था समाज विरोधी है, जाति श्रम विभाजन नहीं श्रमिकों का विभाजन है। आर्थिक दृष्टि से भी जाति एक हानिकारक संस्था है। डॉ. आम्बेडकर का कहना था कि जाति के रहते हिन्दू समाज कभी भी एक संगठित व मजबूत समाज नहीं बन सकता। जाति समाज में फूट व प्रथकता को बढ़ावा देती है। इसलिए हिन्दू समाज के अस्तित्व की रक्षा एवं उसकी प्रगति के लिए जाति व्यवस्था को समाप्त करना जरूरी है। सीमित लोगों को ही जाति का अधिकार प्राप्त होने से उसके विकास की सम्भावना नहीं है।

डॉ. आम्बेडकर समाज में नारी के पतन का वास्तविक कारण ब्राह्मण वर्ण को मानते थे, चतुर्वर्ण व्यवस्था में विभिन्न वर्णों के लिये दण्ड निर्धारण नियमों में भी पक्षपात बरता गया था, वर्ण व्यवस्था समाज में प्रथक्करण एवं विघटन को बढ़ावा देती है.

आम्बेडकर ने कहा था कि जीवन को चार समान स्तरों में विभक्त कर प्रत्येक स्तर से सम्बन्धित कर्तव्य व दायित्व को विहित करने की आश्रम व्यवस्था बाहर से भले ही श्रेष्ठ व अच्छी लगती है किन्तु इसमें कई दोष है। उन्हीं के शब्दों में, जाति, समाज में जनसंख्या का निश्चित, स्थायी एवं अर्न्तविवाह के नियम पर आधारित अनुलंघनीय इकाईयों में विभाजन है। उनके अनुसार समाज व्यक्तियों से नहीं वर्गों से बनता है। जाति व्यवस्था समाज में ऐसे लोगों की देन है जो अपने छल-बल-कौशल से समाज के अन्य वर्गां पर अपने प्रभुत्व जमाने में सफल हो गये थे एंव अपने अहम की पूर्ति तथा अपने प्रभुत्व को चिर स्थायी बनाने के लिये उन्होंने जाति प्रथा को जन्म दिया। आम्बेडकर के अनुसार अस्पृश्यता के मूल में अपवित्रता की धारणा है। असपृश्यता के चलते अछूतों की सामाजिक स्थिति इतनी हीन है कि सवर्ण हिन्दू उन्हें अपने धार्मिक – सामाजिक कार्य व्यवहार में भागीदारी के उपयुक्त नहीं मानते। राष्ट्रीय संविधान द्वारा अस्पृश्यता का अंत कर दिया गया एवं 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम पारित हुआ। 

आम्बेडकर के शब्दों में परंपरात्मक पुरोहिताई ब्राह्मणवाद का पुतला है। यदि हिन्दू धर्म को बचाना है तो इसे समाप्त किया जाना आवश्यक है। ब्राह्मणवाद एक जहर है। वे इसके प्रबल पक्षधर थे कि जब तक व्यक्ति को स्वतंत्रता नहीं मिलती उसका विकास संभव नहीं है। उनकी दृष्टि में व्यक्ति के स्वाभाविक विकास के लिये तीन वस्तुओं की सर्वाधिक आवश्कता होती है ये वस्तुए है स्वतंत्रता, समानता एवं सहानुभूति। आम्बेडकर ने एक पंचफलकीय सामाजिक संरचना की परिकल्पना – धम्म, व्यक्ति, सामाजिक प्रजातंत्र, राजनैतिक प्रजातंत्र और आर्थिक प्रजातंत्रोन्मुख राज्य समाजवाद जैसे आधारभूत तत्व से की थी ।

प्रो. सुनील गोयल

(लेखक प्रख्यात समाज वैज्ञानिक एवं स्तंभकार है तथा वर्तमान में प्राध्यापक एवं अधिष्ठाता, समाज विज्ञान एवं प्रबंधन अध्ययनशाला के बतौर डॉ. बी. आर. अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय, डॉ. अम्बेडकर नगर (महू), जिला इन्दौर, मध्यप्रदेश, भारत में पदस्थ है.)

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