श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
नारदजी, ब्रह्माजी और शिवजी भी पक्षिराज गरुड़ का सन्देह-मोह क्यों दूर नहीं कर सके?
गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा।।
अब सो कथा सुनहु जेहि हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू।।
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा।।
इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ५८-१-२
हे गिरिजे! मैंने (शिवजी ने) वह सब इतिहास तुम्हें कहा है कि जिस समय मैं काकभुशुण्डी के पास गया था। अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षिकुल के ध्वजा गरुड़ उस काक के पास गए थे। जब श्रीरघुनाथजी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करने से मुझे लज्जा होती है- मेघनाद के हाथों अपने को बँधा लिया- तब नारदजी ने गरुड़ को भेजा।
सर्पों के भक्षक गरुड़जी ने श्रीराम-लक्ष्मण के नागपाश के बन्धन काटकर उन्हें मुक्त कर चले गए। तब गरुड़जी के हृदय में विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बन्धन को स्मरण कर सर्पों के शत्रु गरुड़ जी बहुत प्रकार से सोच विचार करने लगे।
ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा।।
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ५८-४
जो ब्यापक, विकाररहित वाणी के पति और माया मोह से परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, मैंने सुना था कि जगत में उन्हीं का अवतार है। किन्तु मैंने उस अवतार का कोई प्रभाव कुछ भी नहीं देखा।
दोहा.- भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्ब निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा-५८
जिनका नाम जपकर मनुष्य संसार के बन्धन से छूट जाते हैं, उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बाँध लिया था।
गरुड़जी ने कई प्रकार से अपने मन को समझाया किन्तु उन्हें ज्ञान नहीं हुआ। हृदय में भ्रम और अधिक बड़ा हो गया। दु:ख से दु:खी होकर मन में कई तर्क-कुतर्क बढ़ाकर वे तुम्हारी (पार्वतीजी के) भाँति मोहवश हो गए। तब वे व्याकुल होकर उसी अवस्था में देवर्षि नारदजी के पास गए और मन में जो सन्देह था वह उनसे कहा। उसे सुनकर देवर्षि नारदजी को दया आ गई। तब देवर्षि नारदजी ने गरुड़ से कहा- हे गरुड़ सुनिए श्रीरामजी की माया बड़ी ही बलवती है। जो ज्ञानियों के चित्त को भी भलीभाँति हरण कर लेती है और उनके मन में अकारण बड़ा भारी मोह उत्पन्न कर देती है तथा जिसने मुझ को भी बहुत बार नचाया है, हे पक्षिराज! वही माया आपको भी व्याप्त हो गई है।
हे गरुड़ अपने हृदय में बड़ा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। यह मेरे समझाने से तुरन्त नहीं मिटेगा। अत: हे पक्षिराज! आप ब्रह्माजी के पास जाइए और वहाँ जिस काम के लिए आदेश मिले वही कीजिएगा।
यह सुनकर पक्षिराज गरुड़ ब्रह्माजी के पास गए और अपना सन्देह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्माजी ने श्रीरामजी को शीश नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके मन में अत्यन्त प्रेम छा गया। मन ही मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश है। भगवान् की माया का प्रभाव असीम है जिसने मुझ तक को कई बार नचाया है। यह सारा चराचर जगत तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ तब पक्षिराज गरुड़ को मोह होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी ने कहा- हे गरुड़ तुम शिवजी के पास जाओ। हे तात! और कहीं किसी से सन्देह का नाश उनके पास जाकर ही निश्चित रूप से हो जाएगा। ब्रह्माजी के वचन सुनते ही गरुड़ शिवजी के पास चल दिए।
दोहा- परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड – ६०
तब बड़ी ही आतुरतापूर्वक पक्षिराज गरुड़ मेरे (शिवजी के) पास आए। हे उमा! उस समय मैं कुबेर के घर जा रहा था और तुम कैलास पर थी। गरुड़ ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया तथा फिर मुझे अपना सन्देह सुनाया। हे भवानी उसकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उससे कहा- हे गरुड़! तुम मुझे मार्ग में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हें किस तरह समझाऊँ? सब सन्देहों का तो तभी नाश होता है जब दीर्घकाल तक सत्संग किया जाए। हे भाई! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम वहाँ जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब सन्देह दूर हो जाएगा और तुम्हें श्रीरामजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम और श्रद्धा हो जाएगी। सत्संग के बिना हरिकथा श्रवण करने को नहीं मिलती है तथा उसके बिना मोह दूर नहीं होता है, मोह गए बिना श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में दृढ़ प्रेम नहीं होता है। बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्य आदि के करने से श्रीरामजी नहीं मिलते हैं। अतएव तुम सत्संग के लिए उत्तरदिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है वहाँ परम् सुशील काकभुशुण्डी जी रहते हैं। वे सब गुणों के धाम, श्रीराम भक्ति के मार्ग में प्रवीण हैं। वे निरन्तर श्रीरामजी की कथा कहते रहते हैं जिसे नाना प्रकार के पक्षी आकर बड़े ही आदर सहित श्रवण करते हैं। वहाँ जाकर श्रीहरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दु:ख दूर हो जाएगा। यह सुनकर पक्षिराज गरुड़ मेरे चरणों में अपना सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया। हे उमा! मैं श्रीरामजी की कृपा से उसका मर्म भेद जान गया था किन्तु मैंने उसे समझाया नहीं क्योंकि उसने कभी अभिमान किया होगा, जिसको श्रीराम नष्ट करना चाहते हैं।
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा।
प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ६२ (क)-५
मैंने उसे अपने पास नहीं रखा क्योंकि पक्षी पक्षी की ही बोली समझते हैं। हे भवानी! प्रभु की माया बड़ी ही बलवती है ऐसा कौन ज्ञानी है जिसे वह न मोह ले?
जो ज्ञानियों और भक्तों में शिरोमणि है एवं त्रिभुवनपति भगवान के वाहन है उन गरुड़जी को भी माया ने मोह लिया फिर नीच मनुष्य मूर्खतावश, घमण्ड किया करते हैं गरुड़जी वहाँ गए जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्तिवाले काकभुशुण्डीजी रहते थे। उस पर्वत को देखकर उनका मन प्रसन्न हो गया और उनके दर्शन मात्र से ही सब भाषा माया-मोह तथा सोच जाता रहा। तालाब में स्नान और जलपान करके वे प्रसन्नचित्त से वटवृक्ष के नीचे गए। वहाँ श्रीरामजी के सुन्दर चरित्र को सुनने के लिए बूढ़े-बूढ़े पक्षी आए हुए थे। काकभुशुण्डीजी कथा आरम्भ करने वाले ही थे कि ठीक उसी समय पक्षिराज गरुड़जी वहाँ उनके पास पहुँच गए। पक्षियों के राजा गरुड़जी को आता देखकर काकभुशुण्डी सहित सारे पक्षी हर्षित हो उठे। उन्होंने पक्षिराज गरुड़जी का बहुत ही आदर-सत्कार किया। प्रेमसहित पूजा करके काकभुशुण्डी मधुर वचन बोले- आप जिस कार्य के लिए यहाँ आए हैं, वह बताए। पक्षिराज गरुड़जी ने कोमल वचन कहे- आप तो सदा ही कृतार्थ रूप हैं, जिनकी बड़ाई स्वयं महादेवजी ने आदरपूर्वक अपने श्रीमुख से कही है।
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ६४-१
हे तात! सुनिए, मैं जिस कारण से आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गए। आपका परम पवित्र आवास (आश्रम) देखकर ही मेरा मोह-सन्देह और अनेक प्रकार के भ्रम सब जाते रहे।
गरुड़जी को काकभुशुण्डीजी ने श्रीरामजी की सम्पूर्ण कथा कही तथा सत्संग कराया। अंत में पक्षिराज गरुड़ का सन्देह-मोह सब भंग हो गया।
यहाँ यह प्रश्न विचारणीय है कि गरुड़जी का सन्देह-मोह भ्रम आदि काकभुशुण्डीजी के पास जाने पर ही क्यों दूर हो गया? जबकि वे भ्रम निवारण हेतु नारदजी, ब्रह्माजी और शिवजी के पास भी गए थे। सभी ने उन्हें एक-दूसरे के पास भेजा तथा अंत में शिवजी ने उन्हें काकभुशुण्डीजी के पास भेजा क्योंकि समुझइ खग खग ही के भाषा। गरुड़जी का काकभुशुण्डीजी के आश्रम में प्रवेश करते ही उनके सन्देह-मोह भ्रम आदि नष्ट हो गए क्यों-
दोहा.- जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ११३ (ख)
काकभुशुण्डीजी के गुरु लोमश ऋषि ने उनसे कहा था कि इतना ही नहीं श्रीभगवान को स्मरण करते हुए जिस आश्रम में निवास करोगे वहाँ एक योजन अर्थात् चार कोस तक अविद्या (माया-मोह) नहीं व्यापेगी।
इस तरह हम देखते हैं कि गरुड़जी के काकभुशुण्डीजी के आश्रम में आने पर काकभुशुण्डीजी के गुरुजी के आशीर्वाद से आश्रम में प्रवेश करते हैं, माया-मोह-सन्देह आदि का उनके मन से निवारण हो गया।
वृत्तांत से यह शिक्षा प्राप्त होती है कि कभी अभिमान नहीं करना चाहिए। सब कार्य का कर्ता प्रभु को मानकर उनकी कृपा से सब कार्य पूर्ण होते हैं अन्यथा स्वयं को कर्ता मानने पर गरुड़जी के समान मोह हो जाता है कि श्रीराम-लक्ष्मण के नागपाश काटे तथा उनकी रक्षा की, जबकि यह सब श्रीरामजी की नरलीला थी।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर