श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
कवि तोरवे नरहरि (कुमार वाल्मीकि) कृत कन्नड़ रामायण में जाबाली मुनि द्वारा श्रीराम का दु:ख निवारण
आदिकवि वाल्मीकिजी की रामायण से प्रभावित होकर भारत में विभिन्न भाषाओं में श्रीरामकथा एवं काव्य की रचना की गई। गोस्वामी तुलसीदासजी के बहुत वर्ष पहले ही इतनी अधिक रामायणें तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम आदि भाषाओं में लिखी और पारायण की जाती रही थी। कन्नड़ भाषा में नागचन्द्र, पौन्न, कुमुदेन्दु, नारायण, विजगुणार्थ, योगीन्द्र, निम्भस प्रभृति कवियों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से श्रीरामचरित्र लिखे। भारतीय साहित्य में रामायण-काव्यों की कोई कमी नहीं है। इस महत्वपूर्ण तथ्य को कन्नड़ भाषा के ख्याति प्राप्त कवि ‘कुमार व्यासÓ ने बड़े ही हृदय स्पर्शीय पंक्तियों में इस प्रकार व्यक्त किया है।
तिणुकिदनु फणिराय रामायणद कविगल भारदलि।
तिंर्थिणय रघुवर चरित येलि कालिऽलु तेरपिलु।।
रामायण के कृतिकारों-कवियों के बाहुल्य के कारण फणिराज आदिशेष (शेषनाग) इनके भार से दबने लगे क्योंकि वहाँ इनका आधिक्य है कि वहाँ किसी को अपना पैर ‘चरित निर्माण मेंÓ रखने का अवकाश (समय) नहीं देता। आज संस्कृत और हिन्दी में ढेर सारी रामायण कथा की पुस्तकें हैं। इस कारण कन्नड़ भी इस दिशा में पीछे नहीं रही। सम्पूर्ण भारत ही नहीं अपितु विदेशों में श्रीलंका, तिब्बत, मंगोलिया, भूटान, चीन, लाओस, कम्बोडिया, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया, मलेशिया, फिलिपाइन्स, बर्मा आदि एशियाई देशों में श्रीरामकथा जन-जन के जीवन में आकर्षण का केन्द्र है। कुमार व्यास के द्वारा रचित ये पंक्तियाँ हमारे शत प्रतिशत समाज और देश में व्याप्त है।
कन्नड़ तोरवे रामायण के रचयिता श्री नरहरि है। अत: इस रामायण का नाम ‘तोरवेÓ रामायण रखा गया है। तोरवे नरसिंह (नृसिंह) भगवान के अनन्य भक्त थे। श्रीराम भी विष्णु के अवतार है। तोरवे के आराध्य देवता नरहरि (नृसिंह) भगवान है तथा इनकी कृपा से इन्होंने इस रामायण की रचना की है। इनका जन्म ब्राह्मण घराने में हुआ था। ‘कुमारस्वामी वाल्मीकिÓ इनका काव्य-जगत में नाम है। तोरवे रामायण का काल १४००-१६०० ई. के मध्य है। तोरवे रामायण की रचना कन्नड़ भाषा के ‘भमिनी षतपदीÓ नामक प्रसिद्ध छन्द में की है। तोरवे रामायण में कवि ने भगवान श्रीराम को आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित कर कन्नड़ साहित्य की अपूर्व सेवा की है। इनकी श्रीराम भक्ति धन्य है। तोरवे रामायण वाल्मीकि रामायण पर आधारित है किन्तु कहीं-कहीं कुछ अन्तर्कथाएँ एवं प्रसंग इसमें अलग भी है। तोरवे रामायण कहीं-कहीं मानस के निकट भी है।
इस रामायण में छ: काण्ड है इन्हें संधियों (अध्याय) में विभक्त किया गया है। इस रामायण में युद्धकाण्ड आधी रामायण के बराबर है। तोरवे रामायण में उत्तरकाण्ड नहीं है। तोरवे रामायण में कुछ प्रसंग आनन्दरामायण जैसे भी वर्णित है। कुछ प्रसंग तो ऐसे भी है जो कि अन्य रामायणों से भिन्न भी है। अत: आलेख में ऐसे ही प्रसंगों का उल्लेख किया जा रहा है।
यह प्रसंग अन्य रामायणों में लगभग नगण्य है किन्तु रोचक एवं शिक्षाप्रद भी है। अत: सुधीजनों एवं नई पीढ़ी के युवाओं के जीवन में संघर्ष से लड़ने की शक्ति प्रदान करने वाला है। इस कथा प्रसंग में महर्षि वाल्मीकिजी पूरे वृत्तांत को कुश को समझा रहे थे। महर्षि वाल्मीकिजी ने कहा- सुनो कुश! तुम्हारे रघुपति अगस्त्य ऋषि के परामर्श के अनुसार पवित्र स्थान पंचवटी प्रदेश में निवास कर रहे थे। समय बीतता चला गया। एक वर्ष समाप्त हो गया तथा चार माह बीतने पर जाड़े की ऋतु शुरू हो गई। तम-तमाते सूर्यवंश में पैदा हुए होने के भी उपरान्त श्रीराम-लक्ष्मणादियों ने बाघ का चमड़ा, हिरन का चमड़ा बिछाने-ओड़ने के लिए उपयोग कर जाड़े के दिन काटे।
उधर भरत नन्दीग्राम में कोपलों से निर्मित कुटी में लकड़ियों के टुकड़ों से अग्रि प्रज्वलित कर अग्रि के सम्मुख बैठकर राम का स्मरण करते हुए समय काट रहे थे। गर्मी के दिन, वर्षा के दिन तथा जाड़े के दिनों के थपेड़े में रघुपति राम फंस गए। उनका यह कष्ट देखने हम जीवित हैं न? शिव-शिव महादेव! इन प्राणों का रहना भी व्यर्थ है न? इस प्रकार भरत वेदना प्रकट करने लगे तब जाबाली मुनि ने भरत को समझा-बुझाकर उनके मन का ताप दूर किया। हे भरत! शिव धनुष को तोड़ने वाले राम को मैं देखकर आता हूँ तुम इस प्रकार दु:खी मत होओ। इस प्रकार कहते हुए भरत के यहाँ से जाबाली मुनि दक्षिण भारत में यात्रा करने चल पड़े। अनेक पहाड़, पहाड़ियों, जंगल, सरोवर आदि पार करके राम के पास आए।
इधर राम अपने भाईयों से, तीन माताओं से, गुरु वसिष्ठ से अलग होने से दु:ख एवं चिन्ता में बैठे थे। इन सबका समाचार देने वाला कोई रहा न? इस तरह सोच विचारते आँसू बहा रहे थे। इसी समय जाबाली मुनि वहाँ आए। जाबाली मुनि को देखते ही राम के नेत्रों से आनंदाश्रु के मोती के दाने जैसे अश्रु उनके नेत्रों से टपाटप गिरने लगे। सीता सहित मुनिवर के चरणों में दण्डवत प्रणाम किया। वेदोक्त रीति से राम ने मुनि का आदरातिथ्य किया।
गुरु वसिष्ठन चरणयुग सुस्थिरवे कौसलादि जननिय
रिखु कुशलवे भरत शत्रुघ्नरू बलान्वितरे
वर सुमंत्र प्रमुख मंत्रीश्वरू सूक्षेमिगले पुरजन
दिखु लेसे मुनिप हेलेदरस बेसगोंड।।
कन्नड़ तोरवे रामायण अरण्यकाण्ड संधि २-१०
गुरु वसिष्ठजी के श्रीचरण कुशलमंगल सम्पन्न हैं न? कौसल्यादि माताएँ कुशल-मंगलपूर्वक हैं न? भरत-शत्रुघ्न स्वस्थ हैं न? सुमन्त्रादि मंत्रिगण ठीक हैं न? इस तरह राम ने अयोध्यावासियों के कुशलमंगल के बारे में पूछताछ की।
सुनिये राजन्! तुमने जिन-जिनके बारे में पूछा है- वे सभी कुशलमंगलपूर्वक हैं। किन्तु भरत आपके बारे में सोचते-सोचते दुबला-पतला हो गया है। उसकी इस स्थिति के कारण ही मुझे तुम्हारे पास आना पड़ा। इस तरह जाबाली ने कहा ये बातें सुनकर भाई भरत के विरह से राम की आँखें डबडबा गई। भरतादियों का विरह भोगना पड़ रहा है न। पिताजी की मृत्यु के समय में उनके पास नहीं रह सका था। माताओं के चरणकमलों की सेवा के भाग्य से वंचित रहा था। सीता-लक्ष्मण को भी वनवास के कष्ट भोगने को बाध्य किया। इस तरह कहते-कहते राम नि:श्वास भरने लगे। ये क्या महान कष्ट हैं? तू राजाओं में लोकविख्यात है न? क्या तू नहीं जानता कि प्राचीनकाल में महाराजा नल पर कैसी-कैसी विपदाएँ आ पड़ी थी। वह कपट से रचे हुए जुएँ में हारकर सारा राज्य खो बैठा तथा पत्नी के साथ उसने जंगल की राह ली। इस प्रकार जाबाली मुनि ने कहा-
बिसुटने बलिकऽपियौलगायसव सैरिस लारदा दम-
रुषिय देसेयिदाद दमयंतियनु विपिनदलि
नुसुलिदनु वलिकोब्वने संधिसिद क कौटकन दैसेय
दसुव नीग दे सारिदनु रुतपर्ण भूपतिय।।
कन्नड़ तोरवे रामायण अरण्यकाण्ड संधि २-१४
जंगल की मुसीबतों को सह सकने में असमर्थ हो दम ऋषि-पुत्री दमयंती को नल बीच जंगल में छोड़ चला गया। वहाँ से छुटकारा पाकर आते समय बीच जंगल में अकेला ककोटक अजगर के मुँह में फँस किसी तरह अपने प्राण बचाकर भाग, ऋतुपर्ण की राजधानी पहुँचा। वहाँ जकर उसके यह कहने पर कि मैं नल के यहाँ था। तुम्हारे वंशज ऋतुपर्ण ने नल को अपने यहाँ ठहरा (रख) लिया। तदनन्तर दमयंती अनेक प्रकार के कष्टों की भुगतती हुई अपने मायके पहुँची। सुनो राम! इस तरह जाबाली मुनि ने कहा दामाद को ढूँढ निकालने विदर्भ के राजा ने चारों दिशाओं में दूतों को दौड़ाया। वे जंगल, गाँव, पहाड़, नगर सब ओर दौड़ पड़े। कहीं भी पता लगाने में असमर्थ होकर खाली हाथ लौट आए। भीष्मक राजा अपनी पुत्री के बचने का मार्ग न सूझ पड़ने से अंत में एक निकर्ष पर पहुँचे। वह इस प्रकार है निषध राजा की रानी का दूसरा स्वयंवर आयोजित है। यह खबर दूतों के द्वारा विभिन्न राजाधिराजों की राजधानियों में फैलाई गई। वस्तुस्थिति न जानने के कारण कई राजे-महाराजे क्षुद्र आशा से कुंडिनीपुर की तरफ आने लगे। इस जगत में राजा नल तो एक श्रेष्ठ राजा हैं उनकी साध्वी पत्नी तो सतीत्व में पार्वतीजी से भी कई गुना श्रेष्ठ हैं। इस तरह की लोकवाणी क्या आज झूठ सिद्ध हुई? इस प्रकार वह वार्ता सुनने पर तुम्हारे इक्ष्वांकु वंश के राजा ऋतुपर्ण सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की निन्दा करते हुए दीर्घ नि:श्वास लेने लगे। इस तथ्य की परीक्षा करने की दृष्टि से राजा ऋतुपर्ण ने श्रेष्ठ दर्जे के घोड़ों को रथ में जोतने के लिए सारथी से कहा- सारथी चुने हुए घोड़े लेकर आ पहुँचा। नल ने ये घोड़े देखकर कहा कि कल तक ये कुंडिनीपुर न पहुँच सकते हैं। तब ऋतुपर्ण ने नल से इस प्रकार पूछा- इस जगत में अन्य सभी राजे-महाराजे राजा नल की इसलिए खूब प्रशंसा करते हैं क्योंकि वही एक मात्र अश्वहृदय पारखी हैं।
क्या तुम अश्व लक्षण जानते हो? इस प्रकार प्रश्न पूछे जाने पर नल ने हाँ कहकर उत्तर दिया। फिर नल ने ऐसे घोड़े लाकर उस स्वर्णरथ में जोते जो देखने में बिलकुल आकर्षक न थे। ऋतुपर्ण रथ पर आरूढ़ होकर यात्रा पर रवाना हुए। नल ने बड़े उत्साह से घोड़ों की पीठ थपथपाई तो आँख मूँदकर खोलने तक की अवधि में हवा से बातें करने लगे। ऋतुपर्ण काकुट इससे उड़ गया तो उसने नल को रथ को रोकने के लिए कहा। तब तक सौ योजनों का अंतर घोड़े पारकर चुके हैं। इस तरह नल के कहने पर राजा आश्चर्यचकित हो गए। फिर नल ने घोड़ों को आवाज लगाई। ऋतुपर्ण राजा को शंका हुई कि कहीं यह सचमुच राजा नल तो नहीं। सत्य का पता लगाने की दृष्टि से वे रथ से नीचे कूद गए। यह देखते हुए नल ने तुरन्त लगाम खींचकर घोड़ों को रोक दिया तथा पूछा कि रथ से उतर पड़ने का क्या कारण है? कहिए इस प्रकार प्रश्न किया-
नलनु नीनहुदेनलु कंगल झलद झाडियलषि तुरगा-
वलिय हृदयव नरिदनात निनक्ष हृदयवनु
नलतदीय नृपालनिं दरि दोलवु मिगे रथवेरि भूमिप
तिलक रिब्वरु सारिदरु भीष्मकन पट्टवन।।
कन्नड़ तोरवे रामायण अरण्यकाण्ड संधि-२३
तू सचमुच ही नल है। इस तरह कहते आँसूओं से खुशी की झलक बरसाते हुए उसे गले लगा लिया। फिर नल से राजा ऋतुपर्ण ने अश्वहृदय विद्या समझ ली। ऋतुपर्ण से नल ने शतरंज की विद्या का रहस्य जान लिया। तदनन्तर वे दोनों रथ पर सवार होकर भीष्मक की राजधानी पहुँचे।
नगरी में आये हुए राजाओं में अमुक ही अपना दामाद नल है पहिचान कर भीष्मक राजा ने अपनी बेटी दमयन्ती को पुन: नल को बड़ी प्रसन्नता से सौंप दी। स्वयंवर के लिए आये हुए राजा अपने-अपने स्थानों को लौट गए। नल को लेकर बड़े वैभव के साथ निषध राज्य में सिंहासन पर बैठाया। नल ने दायाद पुष्कर को वापसी जुए में हराया तथा अपना राज्य उससे जीत लिया। राज्य शासन करते करते वह प्रसिद्ध राजा कहलाए।
सूर्यवंशीय हरिश्चन्द्र की कथा का तुमको मालूम नहीं? सुनो। एक बार देवेन्द्र-सभा में वसिष्ठ-विश्वामित्र में विवाद उठ खड़ा हुआ कि भूमण्डल के सारे राजाओं में वीर हरिश्चन्द्र सत्य हरिश्चन्द्र हैं। इस तरह वसिष्ठ ने जब कहा तो विश्वामित्र ने उस कथन का विरोध करते हुए कहा- वह (हरिश्चन्द्र) झूठ बोलने में सर्वश्रेष्ठ है। विश्वामित्र ने अपनी माया के बल पर हरिश्चन्द्र के राज्य में प्रवेश किया। विश्वामित्र ने दुष्ट मृगों का निर्माण कर उनके आक्रमण को रोकने के लिए हरिश्चन्द्र को उस शिकार (मृगया) में लगा कर दम लिया। बहुत बड़े सुवर्ण-याग (स्वर्ण-यज्ञ) के निमित्त से राज्य को दान में पाकर छीन लिया। तत्पश्चात् कठोर बातों से हरिश्चन्द्र को जंगल-जंगल भटकने के लिए विवश कर दिया। पत्नी, पुत्र तथा मंत्री के साथ हरिश्चन्द्र से यज्ञ की दक्षिणा प्राप्त करने के लिए निर्दय तथा संकोच रहित घमण्डी शिष्योत्तम को नियुक्त किया। विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र को खूब सताया तथा उनकी पत्नी और बेटे को हरिश्चन्द्र ने काशी में, एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया। अंत में हरिश्चन्द्र ने स्वयं एक चांडाल की सेवा स्वीकार कर श्मशान की रखवाली करने लगे। विश्वामित्र ने माया सर्प का निर्माण कर हरिश्चन्द्र के पुत्र के प्राण ले लिए। बेटे को ढूँढते आई राजा हरिश्चन्द्र की पत्नी को काशी राजा से ‘राक्षसीÓ कहलवा, उसको कैद करवा दिया। हरिश्चन्द्र की तलवार से कंठ काट देने को बाध्य किया।
वितत राज्य भ्रष्ट चिंता व्यतिकरव नंत्यजन सेवा
कृतियना सुकुमार मरणवना कुलांगनेय
कृतक वध व्यापार मननादतिशयद बललिकेयनणु स
प्रतिगे तारवे सलुहिदनु सत्यवनु भूपाल।।
कन्नड़ तोरवे रामायण अरण्यकाण्ड संधि २-३०
अपना राज्य खो देने की चिंता या चांडाल की सेवा स्वीकार करने का दु:ख या अपने बेटे की मृत्यु से विचलित होना या अपनी पत्नी से काशी नरेश के पुत्र की हत्या का दोषारोपण से उत्पन्न व्यथा इन सभी घटनाओं से यत्किंचित् भी बुरा न मानते हुए राजा हरिश्चन्द्र अन्त तक सत्यपालन के मार्ग पर आडिग रहे।
तत्पश्चात् हरिश्चन्द्र को सत्य के मार्ग पर अडिग देखकर विश्वामित्र प्रसन्न हुए तथा अपना पूर्व संचित तपस्या का सम्पूर्ण फल हरि-हर-ब्रह्मवादियों के सम्मुख हरिश्चन्द्र को कृष्णार्पण कर दिया। हरिश्चन्द्र को फिर राज-सिंहासन पर आसीन किया।
हे राजन् (राम) इस संसार में अत्यधिक कष्ट भोगने वाले राजाओं के बारे में अच्छी तरह समझ लेने की कोशिश करो। इनके आचरण के अनुसार आचरण कर इस जगत में तुमने बहुत कीर्ति प्राप्त की है। इस प्रकार तुम्हारी (राम की) बराबरी कौन कर सकता है? अंत में जाबाली मुनि यह सब राम से कहकर भरत के निवास की तरफ खुशी-खुशी प्रस्थान कर गए।
आज हम श्रीराम को एक आदर्शपुत्र, आदर्श राजा, आदर्श पुरुष आदि इसलिए मानते हैं कि श्रीराम में जो गुण थे उनको उनकी लीला जान लेने पर हमारे हृदय में प्रकट होते हैं। श्रीराम सब गुणों के भण्डार हैं यथा-
सत्यं दानं तपस्त्यागो मित्रता शौचमार्जवम्।
विद्या च गुरुशुश्रूषा ध्रुवाण्येतानि राघवे।।
वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड १२-३०
सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, पवित्रता, सरलता, विद्या (ज्ञान) और गुरुशुश्रूषा- ये सभी सद्गुण श्रीराम में स्थिर रूप से रहते हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
१. कन्नड़ तोरवे रामायण- प्रकाशक भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ-२०
२. वाल्मीकिरामायण- गीता प्रेस गोरखपुर (उ.प्र.)
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर