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लोहिया एवं राजव्यवस्था

23 मार्च को डॉ. राम मनोहर लोहिया का जन्म दिवस है। कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा। तस्वीरों पर फूल मालाएं चढ़ायी जाएगी परन्तु उनके दर्शन, सिद्धान्त और नीतियों को भुला दिया जाएगा। समलक्ष-समबोध, समदृष्टि, समता समाज और समूल परिवर्तन की राह पर चलकर उनका अनुसरण नहीं किया जाएगा। जाति प्रथा के समूल नाश के लिए वे जीवन भर सामाजिक चेतना जागृत करने में लगे रहे। जब तक जाति प्रथा रहेगी तब तक जातिवाद और जातीयता चलती रहेगी। जब तक जातिवाद रहेगा तब तक परिवार वाद और सामाजिक सामन्तवाद चलता रहेगा। इसको तोडऩे के लिए कोई पार्टी और सरकार कुछ नहीं कर रही है। इस पर चिन्तन करना चाहिए। एक कारण लगता है कि चुनाव लडऩे वाली सभी पार्टियां जातियों का धु्रवीकरण कर सत्ता प्राप्त करना चाहती है। वाणी से जातीयता का विरोध और कर्म से समर्थन करते हैं। डॉ. लोहिया जीवन भर जाति तोड़ो सम्मेलन करवाते रहे। उन्होंने कार्यक्रम दिया था कि सरकारी नौकरी और सरकारी सुविधा पाने के लिए अन्तर्जातीय विवाह को अनिवार्य किया जाना चाहिए। इसके लिए संसद कानून बनावे। बिहार और उत्तर प्रदेश में लोहिया के तथाकथित शिष्यों के हाथ में लंबे समय तक सत्ता रही परन्तु उन्होंने राज्य सरकार की सेवाओं में इसको लागू नहीं किया। कहीं से शुरू हो जाए तो उसकी हवा चलेगी। जाति प्रथा के कारण ही देश बार-बार गुलाम होता रहा। जाति प्रथा के कारण सामाजिक शोषण होता रहा। समाज के पिछड़े वर्ग और दलित समाज के लोगों को गुणहीन, अयोग्य और नीच समझा जाता रहा। जब वोट की ताकत उनको मिली और उसके कारण वे ज्यों-ज्यों वोट की ताकत पहचानते गए त्यों-त्यों उनकी राजनीतिक शक्ति बढ़ती गई और वे सत्ता पर अधिकार जमाने लगे। सत्ता का स्वभाव है कि वह मनुष्य को अहंकारी, एकाधिकार वादी और व्यक्तिवादी बना देता है। कभी-कभी कोई व्यक्ति अपवाद होता है जो इन दुर्गुणों से बचा रह जाता है। अपने 56 वर्षों के राजनीतिक जीवन में मैंने सत्ता पाने पर लोगों को भ्रष्टाचारी बनते देखा है। अपवाद स्वरूप कुछ महान पुरुष निर्मल चरित्र वाले आये परन्तु देश ने उन्हें जोरदार समर्थन नहीं दिया। जाति प्रथा के कारण पिछड़े और दलित समाज के ऐसे नेताओं का उपहास किया गया। चौधरी चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री इसके उदाहरण हैं। ये सभी देश और समाज के रत्न थे परन्तु इन्हें कोई सम्मान पुरस्कार नहीं दिया गया। कई घटिया लोग पद्म पुरस्कार पा गए। इसका कारण रहा है कि पिछड़े और दलित समाज के पूज्यनीय पुरुषों के लिए कोई लॉबी करने वाला नहीं होता है। वही लोग लाभ उठाते रहे हैं जिनके लिए निहित स्वार्थी तत्व लॉबी करते रहते हैं। अयोग्य को योग्य तथा योग्य को अयोग्य बनाने में वे पारंगत होते हैं। सत्ता की परिक्रमा करने में वे चतुर होते हैं। सत्ता बदलती है परन्तु उनका खेल नहीं बदलता है।

जाति प्रथा के कारण प्रतिभा, योग्यता और क्षमता रहते हुए भी पिछड़े और दलित वर्ग के लोग अवसर नहीं पाते हैं। इसके लिए जाति प्रथा का समूल नाश होना चाहिए। पिछड़े वर्ग और दलित समाज के युवा वर्ग को एकजुट होकर आक्रामक रूप से इस पर हमला करना चाहिए। संसद को कानून बनाने के लिए मजबूर करना चाहिए। जाति प्रथा के समाप्त होते ही भारत का रूपान्तरण हो जाएगा और एक नए भारत का अभ्युदय होगा जो चमकता हुआ भारत होगा। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और प्रखर हिन्दुत्व की बात करने वालों को समझ लेना चाहिए कि जाति प्रथा के रहते यह दोनों होने वाला नहीं है।

लोहिया आर्थिक, प्रशासनिक और राजनीतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण चाहते थे। खेती, नौकरी और व्यापार एक व्यक्ति एक रोजगार के सिद्धान्त के आधार पर समाज बनाना चाहते थे। कुछ लोगों के हाथ में सभी सत्ताओं का केन्द्रीयकरण रहा है। समाज का बहुत बड़ा हिस्सा वंचित रहा है। केवल सम्पत्ति ही नहीं बल्कि सामाजिक सम्मान में भी समरूप से भागीदारी मिल सके। समता समाज के लिए समान शिक्षा आवश्यक है। राजापूत निर्धन संतान सबकी शिक्षा एक समान के सिद्धान्त पर काम होना चाहिए। धनवानों की सन्तान काफी महंगी शिक्षा पाती है जबकि निर्धन की सन्तान गांव के सरकारी विद्यालयों में जैसे-तैसे घटिया स्तर की शिक्षा पाती है। एक है इन्डिया और एक है भारत। इस फर्क को मिटाना होगा। राज्यों में जहां सामजवादियों के हाथ में सत्ता रही उन्हें यह करना चाहिए था। पिछड़े और दलित समाज के नेताओं ने सम्पन्न वर्ग और द्विजों के चरित्र से दुर्गुणों को सीख लिया तथा उसका अनुकरण तथा अनुसरण किया परन्तु उनके गुणों को नहीं सीखा। लोहिया ने 11 सितम्बर, 1995 को सेंट एण्ड्रूज कॉलेज गोरखपुर में देश की राजनीति पर व्याख्यान देते हुए कहा था ”इनके पास रुपया, शिक्षा, बोलने की ताकत, कार्यकुशलता और सबसे बढ़कर आपस में निभाने की ताकत ये पाँच गुण भरपूर होते हैं।’’ पिछड़े वर्ग और दलित समाज के नेताओं में जलन, ईष्र्या और द्वेष के अलावा धन जमा करने की लालसा इतनी प्रबल हो जाती है कि वे राष्ट्रीय स्तर के नेता बन नहीं पाते हैं। इस वर्ग को आत्म चिंतन करना चाहिए। देश के बार-बार गुलाम होने का कारण भी जाति प्रथा रही है।

लोहिया ने सावधानी बरतने के लिए कहा था। एक नम्बर के राजा बदलते रहते हैं परन्तु दो नम्बर के राज पुस्तैनी गुलाम बनकर कुर्सी पर बने रहते हैं। हिन्दुस्तान में यह एक कारण रहा है जिसके कारण भ्रष्टाचार बना रहा है। नरम और गरम पंथ पर 28 मई, 1960 को हैदराबाद के एक कार्यक्रम में व्याख्या देते हुए कहा था ”जहां एक पेशा एक जाति के गिरोह में बंध जाता है वहां पर कायदा कानून, ईमान, सच्चाई खत्म होकर गिरोह बाजी आ जाया करती है और जब गिरोहबाजी आ जाती है तब लोग एक-दूसरे को लूटने की कोशिश करते हैं। इसलिए आज जो इतना व्यापक भ्रष्टाचार सरकार का और व्यापार का है, वह तब तक जारी रहेगा जब तक जाति प्रथा वाला मामला चलता रहेगा। चाहे स्वतंत्र आये, चाहे कांग्रेस जाए और कोई आए, चाहे हमारी समाजवादी पार्टी भी आ जाए बुनियाद को नहीं बदला तो उसमें थोड़ा बहुत भ्रष्टाचार चलता ही रहेगा।’’ गंभीरता से चिंतन करने और व्यापकता में सोचने पर स्पष्ट दिखाई देगा। आवश्यकता है निरपेक्ष भाव से चिंतन करने की। उसी तरह निराशा के कर्तव्य पर 23 जून, 1962 को नैनीताल में व्याख्यान देते हुए लोहिया ने कहा था  दो नंबर के राजा हिन्दुस्तान में कभी खत्म नहीं हो पाते। एक नंबर वाला राजा तो बदलता रहता है। पठान गए-मुगल आया, मुगल गए-मराठा आया, मराठा गए-अंग्रेज आया, अंग्रेज गए तो जो कोई भी आया। पुस्तैनी गुलाम दो नम्बर के राजा, शासक वर्ग जो भी आप इनको कह लें इनकी कसौटियां बनाना काफी मुश्किल होगा।’’ आगे उन्होंने कहा ”यह शासक वर्ग, पुस्तैनी गुलाम, दो नंबर के राजा बदलते नहीं। ये सब चीजों से मिलाप कर लेते हैं और हिन्दुस्तान हर किसी तूफान के सामने झुक जाता है। झुकने का माध्यम है यही शासक वर्ग-पुश्तैनी गुलाम।’’ इसलिए लोहिया सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण चाहते थे। निर्वाचित शासक बदलते रहे हैं और आगे भी बदलते रहेंगे। परन्तु प्रशासन चलाने वाले प्रशासनिक अधिकारी वहीं के वहीं बने रहे हैं और बने रहेंगे। इसी को कहते हैं निहित स्वार्थी वर्ग। एक गिरोह बन गया है। गंभीर चिंता की बात है कि राज बदलते रहे परन्तु प्रशासन के शीर्ष पर सचिव के स्तर का कोई अधिकारी पिछड़े वर्ग और दलित समाज का नहीं बन पाया। सेमी फाईनल तक उन्हें खेलने दिया जाता है परन्तु फाईनल में उन्हें नहीं खेलने दिया जाता। पद्म पुरस्कार में उन्हें सम्मान नहीं मिल पाता है। उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति भी उनमें से नहीं बन पाया। जो बनता भी है उनकी मानसिकता भी वैसी ही होती है। लोक भाषा, लोकभूषा, लोक भोजन, लोक भवन, लोक जीवन और लोक संस्कार वाला इस देश में उपेक्षित उपहासित और वंचित रहा है। लगता है अब नया युग आने वाला है। लोहिया आज भी प्रासांगिक है।

लेखक लोकसभा सांसद हैं

R K Sinha

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