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भगवान श्रीराम का लक्ष्मणजी से क्रियायोग का वर्णन करना

श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंगभगवान श्रीराम का लक्ष्मणजी से क्रियायोग का वर्णन करनाश्रीराम जब पंचवटी में सीताजी एवं लक्ष्मण सहित निवास कर रहे थे तब लक्ष्मणजी ने एकान्त में बैठे हुए भगवान श्रीराम के साथ अत्यन्त ही नम्रतापूर्वक पूछा- भगवान मैं आपके मुख से मोक्ष का निश्चित साधन सुनना चाहता हूँ। अत: हे कमलनयन आप उसका संक्षेप में वर्णन कीजिए। हे रघुकुल श्रेष्ठ! आप मुझे भक्ति और वैराग्य से सना हुआ (युक्त) विज्ञानयुक्त ज्ञान सुनाइये। इस संसार में आपके अतिरिक्त इस गहन विषय का उपदेश करने वाला और कोई नहीं है। श्रीराम ने भी गुह्य से गुह्य यह परम रहस्य लक्ष्मण को सुनाया जिसका अध्यात्म-रामायण के अरण्यकाण्ड में चतुर्थ सर्ग में विस्तारपूर्वक बताया गया है।
किष्किन्धाकाण्ड में पुन: लक्ष्मणजी ने एक दिन एकांत में ध्यान करते हुए भगवान श्रीराम से उनके समाधि खुलने पर लक्ष्मणजी अत्यन्त प्रेम और भक्तिभाव से भरकर नम्रतापूर्वक कहा भगवन् आपने मुझे जो उपदेश पहले दिया था। उससे मेरे हृदय का अनादि अविद्याजन्य सन्देह तो दूर हो गया है किन्तु-
इदानीं श्रोतुमिच्छामि क्रियामार्गेण राधव: ।
भवदारादनं लोके यथा कुर्वन्ति योगिन: ।।
अध्यात्मरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग ४-८
हे राघव योगिजन क्रिया मार्ग (पूजा-पद्धति) से जिस संसार में आराधना किया करते हैं। इस समय में इसे आपसे सुनना चाहता हूँ।
समस्त योगिजन एवं देवर्षि नारदजी, महर्षि व्यासजी और ब्रह्माजी भी इसी को मुक्ति (मोक्ष) का साधन निरूपित करते हैं। हे राजराजेश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ आदि आश्रमों को मोक्ष देने वाला यही साधन है और स्त्री तथा शुद्रों की भी इसी साधना से सुगमता से मुक्ति हो सकती है। हे प्रभो! मैं आपका भक्त और भाई हूँ। अत: आप मुझे इस लोकोपकारी (लोककल्याणकारी) साधन का वर्णन कीजिये।
स्वगृह्योक्तप्रकारेण द्विजत्वं प्राप्य मानव:।
सकाशात्सद्गुरोर्मत्रं लब्ध्वा मद्भक्तिसंयुते:।।
अध्यात्मरामायण, किष्किन्धाकाण्ड, सर्ग ४-१२
श्रीराम ने लक्ष्मणजी से कहा- हे लक्ष्मण! मेरी पूजा-विधि का कोई अन्त नहीं है तथापि मैं क्रमश: उसका संक्षेप में यथावत् वर्णण करता हूँ। मेरी भक्ति से सम्पन्न मनुष्य अपनी शाखा की गृह्यसूत्र द्वारा बतलाये गये प्रकार से (उपनयन-संस्कार के अनन्तर या यज्ञोपवीत) द्विजत्व प्राप्त कर भक्तिपूर्वक सद्गुरु के पास जाय और उनसे मन्त्र ग्रहण करें।
तदनन्तर बुद्धिमान मनुष्य को चाहिये कि उन गुरुदेव की बतायी हुई विधि से अपने हृदय में अग्नि में, प्रतिमा अथवा (मूर्ति) आदि में सूर्य में केवल मेरी ही सेवा-पूजा करें। अथवा सावधानीपूर्वक शालग्राम शिला में मेरी उपासना करें। बुद्धिमान उपासक को चाहिये कि सर्वप्रथम देह शुद्धि के लिए प्रात:काल ही वैदिक तथा तान्त्रिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए शरीर में विधिवत् मृत्तिका (मिट्टी) आदि लगाकर स्नान करें और फिर नियमानुसार सन्ध्या आदि नित्यकर्म करें।
श्रीराम ने लक्ष्मणजी से कहा कि यदि मेरी मूर्ति शिलारूप हो तो स्नान कराना ही पर्याप्त है और यदि प्रतिमाकार हो तो केवल मार्जन ही करे। इस प्रकार की जाने वाली मेरी पूजा शीघ्र ही फलदायी होती है। यदि अग्नि में पूजा करनी हो तो आहुति द्वारा करें। भक्त के द्वारा श्रद्धापूर्वक निवेदन किया हुआ जल भी मेरी प्रसन्नता का कारण होता है फिर भक्ष्य भोज्य आदि पदार्थ और गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि पूजा-सामग्री एकत्रित कर मेरी पूजा करें। तदनन्तर श्रीराम ने पूजा करने की विधि बतायी। पहले क्रमश: कुशा, मृगचर्म और वस्त्र बिछाकर आसन बनाएं तथा उस पर शुद्ध चित्त से इष्ट देव के सम्मुख बैठे। तत्पश्चात बहिर्मातका और अन्तर्मातका न्यास करें तथा केशव, नारायण आदि चौबीस नामों का न्यास करके तत्त्वन्यास करे। इसके तश्चात (विष्णुपंजरोक्त विधि से) मेरी मूर्ति में पंजरन्यास तथा मन्त्रन्यास करें।
मेरी प्रतिमा आदि में निरालस्य भाव से उसी प्रकार न्यास करना चाहिये तथा अपने सामने बायीं ओर कलश और दायी ओर पुष्प आदि सामग्री रखें। उसी तरह अर्ध्य पाद्य मधुपर्क और आचमन के लिये चार पात्र रखें। तत्पश्चात् अपने सूर्य के समान तेजस्वी हृदय कमल में जीवननाम्नी मेरी कला का ध्यान करे और हे शत्रुदमन अपने सम्पूर्ण शरीर को उससे व्याप्त देखें तथा प्रतिमा आदि का पूजन करते समय भी उन (प्रतिमा आदि) में उस जीवनकला का ही आवाहन करे।
पाद्यार्घ्याचिंमनीयाद्यै: स्नानवस्त्रविभूषणै:।
यावच्छवयोपचारैर्व त्वर्चयेन्मामायया।।
अध्यात्मरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग ४-२७
पाद्य, अर्ध्य, आचमन, स्नान, वस्त्र आभूषण आदि से अथवा जो कुछ सामग्री मिल सकें उसी से निष्कपट होकर मेरी पूजा करे।
यदि धनवान हो तो नित्यप्रति कर्पूर, कुंकुम, अगरू, चन्दन और अत्युत्तम सुगन्धित पुष्पों से मंत्रोच्चारण करते हुए मेरी पूजा करे तथा नीराजन (पाँच बत्तियों की आरती) धूप, दीप और नाना प्रकार के नेवैद्यों द्वारा वेदोक्त दशावरण-पुष्प विधि से अर्चन करे। नित्य प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सब पदार्थ निवेदन करे, क्योंकि मैं परमात्मा मात्र श्रद्धा का भूखा हूँ। मंत्रविधि को जानने वाले उपासक पूजा के बाद विधिपूर्वक हवन करे। शास्त्रविधि के जाननेवाले बुद्धिमान पुरुष को उचित है कि अगस्त्य महर्षि की बतायी हुई विधि से कुण्ड बनाकर उसमें गुरु के दिए हुए मूलमन्त्र से अथवा पुरुषसूक्त के मन्त्रों से आहुति करे अथवा अग्निहोत्र की अग्नि में ही चरू होमाग्नि में तपाये हुए सुवर्ण की सी कान्तिवाले सर्वालंकार विभूषित भगवान् यज्ञ पुरुष के रूप में परमात्मा का सदा ध्यान करें और फिर मेरे पार्षदों के लिये बलि देकर होम समाप्त कर दे।
तदन्तर मौन धारण कर मेरा ध्यान और स्मरण करता हुआ जप करे। फिर प्रीतिपूर्वक ताम्बूल और मुखवास देकर मेरे लिये नृत्य-गान और स्तुतिपाठ आदि करावे और हृदय में मेरी मनोहर मूर्ति को धारण कर पृथ्वी पर लेटकर साष्टांग दण्डवत करें। मेरे दिए हुए भावनामय प्रसाद को यह भगवत्प्रसाद है ऐसी भावना से सिर पर रखे और भक्तिभाव से विभोर होकर मेरे चरणों को अपने मस्तक पर रखकर और हे प्रभो! इस प्रकार भयंकर संसार से मुझे बचाओ। ऐसा कहकर मुझे प्रणाम करे। उसके बाद बुद्धिमान उपासकों को चाहिये कि प्रतिमा में आवाहन की हुई जीवनकला को वह मुझ ही प्रवेश कर गयी है ऐसी भावना करते हुए विसर्जन करे। जो पुरुष उपर्युक्त प्रकार से मेरी विधिपूर्वक पूजा अर्चना करता है, वह मेरी कृपा से इंद्रलोक और परलोक दोनों जगह सिद्धि प्राप्त करता है।
मद्भक्तों यदि मामेवं पूजां चैव दिने दिने।
करोति मम सारुप्यं प्राप्नोत्त्येव न संशय:।।
अध्यात्मरामायण किष्किन्धाकाण्ड सर्ग ४-३९
यदि मेरा भक्त इस प्रकार नित्यप्रति पूजा करे तो वह मेरा सारूप्य प्राप्त कर लेता है इसमें सन्देह नहीं है।
यह अति गोपनीय पूजाविधि परम पवित्र और सनातन है। इसे साक्षात मैंने ही अपने मुख से कहा है, जो पुरुष इसे निरन्तर पढ़ता या सुनता है, उसे निसंदेह संपूर्ण पूजा का फल निश्चित मिलता है। इस प्रकार अपने अनन्य भक्त शेषावतार लक्ष्मणजी के पूछने पर परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी ने अत्युत्तम क्रिया योग का उन्हें उपदेश दिया। फिर श्रीरामजी अपनी माया का अवलम्बन कर साधारण पुरुषों के समान दु:खित से दिखायी देने लगे। वह ‘सीते हा सीतेÓ कहते हुए सारी रात यों ही बिता देते हैं तथा उन्हें किसी प्रकार नींद न आती है।
श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी को जो गुप्त क्रियायोग का वर्णन बताया है उसे यदि हम इस आपाधापी के जीवन में अनुकरण करें तो निश्चित रूप से श्रीरामजी की कृपा से मोक्ष का मार्ग मिल जायेगा। हमारा मानव जीवन में जन्म लेना सार्थक होकर श्रीराम के परमधाम में जाकर उनके दर्शन को प्राप्त कर सकेगा।

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