मणिपुर में पिछले 15 सालों से कांग्रेस के ओकराम इबोबी मुख्यमंत्री थे। लगातार इतने सालों से मुख्यमंत्री रहने के कारण उनके विरोध में एक सत्ता विरोधी लहर तो उनके पिछले कार्यकालों के दौरान भी साफ तौर पर थी किन्तु किसी मजबूत विकल्प न होने के कारण सत्ता का बदलाव मुश्किल था। असम की जीत के बाद भाजपा की मजबूती मणिपुर में भी बढ़ी। वहां पैदा हुये आत्मविश्वास ने इस बार मणिपुर में भाजपा को एक विकल्प के रूप में खुद ब खुद पेश कर दिया। गोवा और मणिपुर में हालांकि भाजपा दूसरे नंबर पर थी किन्तु भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों के बेहतर रणनीतिक कौशल के कारण मणिपुर में भाजपा सरकार बनाने में कामयाब रही। मणिपुर पर अमित त्यागी का एक लेख।
भारत में लोकतन्त्र मजबूत होता दिखने लगा है। जनता जागरूक होने लगी है। इसकी वजह यह है कि जनता अब उन विषयों पर जागरूक होने लगी है जो राष्ट्रनिर्माण से सरोकार रखते हैं। जिनसे देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा जुड़ी होती है। मणिपुर में भाजपा का अचानक उभरना और फिर सरकार बना लेना इसकी एक मिसाल है। 11 मार्च को घोषित चुनाव परिणामों में मणिपुर की 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। भाजपा को 21 सीटों पर विजय मिली। सबसे बड़े दल के रूप में कांग्रेस ने दावा तो पेश किया किन्तु अन्य विधायकों के समर्थन के दावों के साथ भाजपा का दावा ज़्यादा पुख्ता नजऱ आया। राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला ने भाजपा को न्योता दिया। इसके बाद एन बीरेन सिंह को मुख्यमंत्री और एनपीपी नेता यूमनाम जयकुमार सिंह को डिप्टी सीएम के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई गई। बाद में बीरेन सिंह ने अपना बहुमत भी साबित कर दिया।
जब सारे विश्लेषक मणिपुर में भाजपा की सरकार बनने को मुश्किल मान रहे थे तब भी डायलॉग इंडिया के फरवरी अंक में इस बात का जि़क्र किया गया था कि मणिपुर में भाजपा की सरकार बनने की संभावनाएं हैं। भाजपा ने पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त करने का जो अभियान चला रखा है उसको हौसला असम की जीत से मिला है। असम में मिली बड़ी जीत और मणिपुर में 2 सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा का विजयी होना समीकरण बदल रहा है। भाजपा को इस बात का आभास हो चुका था कि इस बार मणिपुर बदलाव की राह पर है। भाजपा ने असम की जीत के सूत्रधार हेमंत बिस्वा सरमा को असम के बाद मणिपुर की जिम्मेदारी दी जो वहां की स्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ थे। चुनाव से ठीक पहले मणिपुर में नए जिलों के गठन के बाद जिस तरह हिंसा और विरोध हुआ। उसके बाद यह, वहां बड़ा मुद्दा बन गया था। भाजपा का ध्यान इसी मुद्दे को भुनाने पर था और उसका भरपूर फायदा भाजपा को मिला भी। इस मुद्दे ने राजनीतिक समीकरण को कुछ इस तरह से फ़ोल्ड किया कि आज भाजपा सत्ता पर काबिज है। 15 सालों के कांग्रेस शासन की असफलता ने एक तरह से आग में घी का काम किया।
सरकार बनते ही शांति की तरफ मणिपुर
नयी सरकार ने आते ही मणिपुर में करीब पांच माह से जारी यूनाइटेड नगा काउंसिल (यूएनसी) की आर्थिक नाकेबंदी को समाप्त करा दिया। केंद्र, राज्य सरकार और नगा समूहों की बातचीत के बाद एक आधिकारिक बयान दिया गया और कहा गया कि ‘यूएनसी नेताओं को बिना शर्त रिहा किया जाएगा और आर्थिक नाकेबंदी को लेकर नगा जनजातीय नेताओं और छात्र नेताओं के खिलाफ चल रहे मामलों को खत्म किया जाएगा।’ इस तरह से मणिपुर में शान्ति की तरफ एक अहम पहल कर दी गयी है। पूर्व मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार के सात नए जिले बनाए जाने के फैसले के खिलाफ यूएनसी द्वारा 1 नवंबर, 2016 को आर्थिक नाकेबंदी के बाद मणिपुर अस्थिर होने लगा था।
केजरीवाल के मंसूबे स्वाहा
केजरीवाल थिंक बिग थियरी के आधार पर नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेकर सुर्खियां बटोरते रहे हैं और इसी के बलबूते गोवा, पंजाब पर सत्ता पर काबिज होना चाह रहे थे। मणिपुर में उनका कंधा इरोम शर्मिला थीं। पर टोबाल सीट की जनता ने इरोम शर्मिला को मणिपुर का केजरीवाल नहीं बनने दिया। शर्मिला मणिपुर में कोई बड़ा राजनैतिक परिवर्तन कर पायेंगी ऐसी संभावना नहीं के बराबर थी। शर्मिला मैतई समुदाय से आती हैं और इबोबी भी इसी समुदाय से थे। यह समुदाय शुरू से शर्मिला के अनशन के विरोध में था। जब शर्मिला ने चुनाव लड़ा तो इस समुदाय ने अपना विरोध लोकतान्त्रिक रूप से शर्मिला को जता दिया।
मेतई समुदाय पर ध्यान दे भाजपा, 2019 में मिल सकता है फायदा।
मणिपुर की 31 लाख जनसंख्या में 63 प्रतिशत आबादी मेतई समुदाय से है। पूर्व मुख्यमंत्री इबोबी सिंह मेतई समुदाय से आते हैं। इरोम शर्मिला भी इसी समुदाय से हैं। इतने बड़े वोट बैंक होने के कारण मणिपुर की सत्ता प्राप्त करने के लिये मेतई बहुल घाटी की सीटों पर जीत बेहद अहम होती है। मणिपुर दो भागों में बांटा जा सकता है। एक पहाड़ और दूसरा घाटी। 60 विधानसभा वाला पहाड़ी इलाकों में 20 सीटें हैं तो घाटी के इलाके में 40 सीटें हैं। पहाड़ में नगा जाति निवास करती है और घाटी में मेतई जाति का दबदबा है। राज्य प्रशासन और प्रदेश की राजनीति में हमेशा मेतई समुदाय का ही दबदबा रहा है। अब जब भाजपा सत्ता में आ गयी है तब अगर प्रशासन और शासन के माध्यम से वह इस समुदाय को अपनी तरफ खींचने में कामयाब हो गयी तो एक बात तो तय है कि मणिपुर में लोकसभा सीट जीतने के लिए अपना खाता खुलने का इंतज़ार कर रही भाजपा को सिर्फ खाता खुलने से ज़्यादा भी मिल सकता है। 2019 में पूर्वोत्तर की एक एक सीट अहम होने जा रही है।
आंदोलन और राजनीति को जोडऩे से हुयी इरोम शर्मिला की हार
इरोम शर्मिला और अरविंद केजरीवाल की पृष्ठभूमि काफी मिलती जुलती है। जब जब जहां जहां रायता फैलाना हो, अरविंद केजरीवाल पहुंच ही जाते हैं। मुख्यमंत्री इबोबी के खिलाफ चुनाव लड़कर 90 वोट पाने वाली इरोम शर्मिला के कंधे पर भी अरविंद केजरीवाल ने हाथ रखा था। जिस तरह से जनलोकपाल के आंदोलन के माध्यम से अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता पर कब्जा किया था ठीक वैसा ही केजरीवाल इरोम शर्मिला के द्वारा मणिपुर में होना देख रहे थे। मणिपुर में मुद्दा था अफस्पा। राजनीति में अब शातिर खिलाड़ी हो चुके अरविंद केजरीवाल ने चुनाव लडऩे के लिए पचास हज़ार रुपये की धनराशि इरोम शर्मिला को दान स्वरूप दी थी। इरोम शर्मिला का केजरीवाल कनैक्शन इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि पहले शर्मिला ने निर्दलीय चुनाव लडऩे की घोषणा की थी किन्तु बाद में उन्होंने पीपुल्स रीसर्जन्स एंड जस्टिस एलायंस (पीआरजेए) नाम से एक पार्टी बनाकर उसके लिए ऑनलाइन चंदा इक_ा करना शुरू कर दिया था।