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राष्ट्र-चिंतन उर्दू तो विखंडन की भाषा रही है

विष्णुगुप्त

अभी-अभी उर्दू को लेकर परतंत्रवाद-सेक्युलरवाद और परसंस्कृतिवाद की वैचारिक गुलामी देखने और समझने को मिली। अवसर था वरिष्ठ कवि महेश बंसल की जन्मतिथि पर आयोजित राष्टीय कवि सम्मेलन का। कवि सम्मेलन में मेरे अतिरिक्त डॉ सुरेश नीरव और डा सरस्वत मोहन मनीषी सहित देश भर से आये एक दर्जन से अधिक कवि शामिल थे। अधिकांश कवियों के शब्द और अंदाज उर्दू प्रेरित थे, संस्कृत निष्ठ हिन्दी के शब्द गायब थे। देश में उर्दू को लेकर वैचारिक परतंत्रता, अति सेक्युलरवाद और परसंस्कृतिवाद कोई नयी घटना-परिघटना नहीं है, यह तो मुगलकालीन विकृति है जो निरंतर जारी है। अंग्रेज के जमाने में भी उर्दू की विकृति जारी रही और आजादी के बाद भी उर्दू को देश की भाषा समझने का विकृति जारी रही। उर्दू में बोलना और उर्दू में लिखना तुष्टीकरण की एक बहुत बड़ी चाल थी, एक खास परसंस्कृति को संतुष्ट रखने का हथकंडा था, वह परसंस्कृति हिंसक और भस्मासुर प्रवृति की समर्थक थी। परसंस्कृति को लादने और इस पावन भूमि की संस्कृति के विध्वंस के ख्याल से ही उर्दू को जन्म दिया गया था और उर्दू का प्रचार-प्रसार किया गया था। जिस तरह से अंग्रेजों ने अंग्रेजी लागू कर भारत जी जनता को मन व मिजाज से अंग्रेज बनाने और ईसाईयत का वर्चस्व स्थापित करने के लिए हथकंडे अपनाये थे उसी तरह से मुगल शासकों ने भी इस्लाम को भारत में स्थापित करने और यहां की मूल सनातन संस्कृति को नष्ट करने के लिए उर्दू को थोपा था। जब किसी देश के काम-काज यानी शासन-प्रशासन की भाषा उर्दू होगी तब उर्दू के सर्वश्रेष्ठ होने और सर्वव्यापी होने से कैसे रोका जा सकता था? निसंदेह तौर पर मुगलों के शासन-प्रशासन की भाषा उर्दू थी और देश की जनता उर्दू को समझने, लिखने और पढ़ने के लिए मजबूर होती थी। आज भी पश्चिम बंगाल जैसे जगहों पर जहां स्कूलों को उर्दू माध्यम में तब्दील कर दिया गया है वहां के गैर इस्लामी बच्चे उर्दू भाषा वाले और इस्लामिक संस्कृति वाले मदरसे में पढ़ने के लिए मजबूर हैं।
अगर उर्दू मूल रूप से देश की भाषा है और उर्दू को थोपा नहीं गया है, उर्दू को थोपने के लिए मुगलकालीन शक्ति शामिल नहीं रही है तो फिर इन प्रश्नों का उत्तर क्या है? क्या यह सही नहीं है कि उर्द की लिपि अरबी है? उर्दू की लिपि अरबी ही है। अरबी का अर्थ अरब देशों से है। अरब में किस संस्कृति का वर्चस्व और एकाधिकार है तथा वह संस्कृति कितनी हिंसक और कितना एकात्मक है? यह तो सर्वविदित है। अरब में इस्लामिक संस्कृति हैं जो न केवल एकात्मक वर्चस्ववाली है बल्कि हिंसक है, हिंसा के आधार पर अन्य धर्मो के अस्तित्व को ही चबा गयी। जब ईरान में इस्लाम का प्रवेश हुआ तो फिर वहां पर फारसी सभ्यता थी। इस्लाम पहुंचने के बाद ईरान से हिंसा के बल पर फारसी सभ्यता का विध्वंस हुआ और अरबी-इस्लाम की सभ्यता का उदय हुआ। अरबी-इस्लामिक सभ्यता को शासन-प्रशासन में परेशानी हुई, इसलिए कुछ शब्द फारसी से लिये गये। इसी तरह मुगलों ने जब भारत पर आक्रमण कर अपना राज स्थापित किया तो इन्हें भारत की भाषाएं गैर इस्लामी नजर आयीं, इन्हें लगा कि हम भारत को उनकी भाषाओं का संरक्षण कर राज नहीं कर पायेंगे। इसीलिए इन्होंने अरबी भाषा को लागू करने की नीति अपनायी। अरबी लिपि को स्वीकार कर लिया और अरबी-फारसी के शब्द उर्दू में घुसा दिये गये। भारतीय परिपेक्ष्य में जो उर्दू के शब्द फिट नहीं बैठते थे वे शब्द संस्कृत से निकली हुई स्थानीय भाषाओं से लिये गये।
भाषा लिपि के बिना अधुरी होती है। लिपि के बिना भाषा स्वतंत्र नहीं बल्कि परतंत्र होती है। जिस भाषा की अपनी कोई लिपि नहीं होती है वह भाषा न तो सर्वप्रिय होती है और न ही अन्य भाषाओं के साथ वर्चस्व की प्रतिस्पर्द्धा में आगे बढ़ सकती है। उर्दू के शब्द और लिपि अरबी व फारसी है। इसलिए यह कहना ज्यादा उचित रहेगा कि उर्दू भारतीय भाषा नहीं बल्कि वह मूल रूप से अरबी है। उर्दू को भारतीय भाषा मानने वाले इस प्रश्न का कभी जवाब नहीं देते हैं कि फिर लिपि क्यों अरबी है, उर्दू के लिए भारतीय लिपि को किस कारण अनिवार्य नहीं किया गया था। अगर उर्दू की लिपि भारतीय होती तो भी उर्दू के अरबी-फारसी शब्दों के वर्चस्व के बाद भी भारतीय भाषा मानी जा सकती थी।
उर्दू भारतीय परिपेक्ष्य में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के परिपेक्ष्य में भी विख्ंाडन की भाषा रही है, हिंसा और अलगाव की भाषा रही है, सांप्रदायिकता विद्वेश की भाषा रही है। भारत विभाजन की भाषा रही है, पाकिस्तान विखंडन की भाषा रही है। क्या आपको यह सब प्रमाणित करने के लिए किसी प्रमाण की जरूरत है? प्रमाण उपस्थित है। भारत विभाजन की नींव उर्दू के कारण पड़ी थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय भाषाओं की मजबूति और बढ़ती लोकप्रियता के कारण उर्दू भाषी मुसलमानों ने विरोध का हथकंडा अपनाया था। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय जो उर्दू और मुसलमानों की बेहतरी के लिए खड़ा किया गया था, में भारत विखंडन की नींव पड़ी थी। उर्दू के कुख्यात साहित्यकार इकबाल ने पाकिस्तान की मांग की थी और दो देशों की थ्योरी दी थी, उसने कहा था कि हिन्दुओं के बीच मुसलमान रह नहीं सकते हैं, हिन्दुओं की वर्चस्ववाली सरकार में मुसलमानों का रहना इस्लाम का तौहीन है, इसलिए भारत को दो भागों में बांट दिया जाना चाहिए और मुसलमानों के लिए एक अलग देश बनाना ही होगा। इकबाल ने इसके पहले हम हैं उर्दू, हम हैं मुसलमां और सारा जहां है हमारा का तराना लिखा था।
उर्दू और इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान तो बन गया लेकिन उर्दू पाकिस्तान के लिए भी खलनायक साबित हुई। पाकिस्तान बनने के बाद उर्दू राज-काज की भाषा बन गयी। जबकि पाकिस्तान में उर्दू के साथ ही साथ कई स्थानीय भाषाएं थी जो उर्दू से घृणा करती थी, क्योंकि उर्दू के वर्चस्व से उन्हें अस्तित्वहीन होने का खतरा था। एक महत्वपूर्ण भाषा बांग्ला थी। बांग्लाभाषा पूर्वी पाकिस्तान की वर्चस्व वाली भाषा थी। बांग्ला भाषा के शब्द संस्कृत के काफी निकट हैं। इसी कारण पाकिस्तान के शासकों ने बांग्ला भाषा के दमन के लिए उर्दू की अनिवार्यता लादी थी। उर्दू भाषियों ने बांग्ला भाषियों के खिलाफ हिंसक अभियान छेड़ दिया था। उर्दू भाषियों और बांग्ला भाषियों के बीच हिंसा और तकरार की अति हुई। इसके बाद पाकिस्तान के शासकों ने बांग्ला भाषियों के दमन के लिए पुलिस और सेना को लगा दिया। पाकिस्तान की सेना और पुलिस ने लाखों बांग्ला भाषियों का नरसंहार किया और उन्हें राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर दिया। भारत का हस्तक्षेप हुआ और पाकिस्तान से अलग होकर बांग्ला देश का निर्माण हुआ। बांग्ला देश का निर्माण का आधार बांग्ला भाषा ही रही है और उर्दू का वर्चस्व रहा था।
अभी भी पाकिस्तान में उर्दू के खिलाफ संघर्ष जारी है, उर्दू से घृणा करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। बलूच भाषी लोग तो उर्दू के खिलाफ हिंसक होकर पाकिस्तान की एकता और अखंडता के प्रति असहिष्णुता रखते हैं। इसके अलावा पंजाबी भाषा भी अपने आप को अस्तित्वहीन समझती है। पाकिस्तान में पंजाबी और सिंघी भाषा की समृद्धि आजादी से पूर्व बहुत ही ज्यादा थी। पंजाबी और सिंघी भाषा के सामने उर्दू भाषा की शक्ति क्षीन ही थी। पर पाकिस्तान बनने के बाद से ही पंजाबी और सिंघी भाषाएं उूर्द की गुलाम हो गयी। उर्दू बर्चस्व के कारण भविष्य में पाकिस्तान के कई टूकड़े होने की आशंका है।
कोई भी देश अपने विखंडन के लिए जिम्मेदार तत्वों को सम्मान नहीं देता है, उससे घृणा करता है और उस पर विश्वास नहीं करता है। लेकिन भारत में विखंडनकारी और हिंसक लोगों को भी गले लगाने की तुष्टीकरण राजनीति चलती है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में उर्दू के शब्द घुसैड़ कर इस्लामिक संस्कृति को लादने की नीति राष्ट की एकता और अंखडता को एक बार फिर तोड़ देगी। इसके पीछे सेक्युलर वाद से ग्रसित साहित्यकारों की भूमिका भी कम खतरनाक नहीं है। साहित्यकार देश से बड़े नहीं हो सकते हैं। अगर देश है तो फिर साहित्यकारों की वाणी सुरक्षित है। इसलिए राजनीति और साहित्य को उर्दू के अति प्रेम में पागल होने की आवश्यकता कतई नहीं होनी चाहिए।

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विष्णुगुप्त

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