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काव्य की उपेक्षिताएं: भारतीय जीवन दृष्टि

रवीन्द्रनाथ का निबंध काव्य की उपेक्षिताएं पढ़ रहा था। प्रिय भाई शिव कुमार ने अपनी वाल पर लगाया है। उस निबंध के केन्द्र में रामायण की पात्र उर्मिला है। कविवर मानते हैं कि आदिकवि ने उर्मिला के साथ न्याय नहीं किया। वे अत्यंत भावुक होकर सोचते हैं और भावुकता उन्हें आत्ममुग्धता के तट पर ले जाती हैं-जहां उन्हें यह अनुभव होता है कि जो वाल्मीकि नहीं देख सके, वह मैं देख पा रहा। मैं तो अश्रुपात के साथ बहा जा रहा! साहित्य की भावभूमि स्वतंत्र होती है। वहां कोई बंधन नहीं होता। कवि, नाटककार और उपन्यासकार अपनी दृष्टि से पात्रों को गढ़ते हैं। भवभूति की सीता वाल्मीकि की सीता से भिन्न हैं। अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। किन्तु रामायण के संदर्भ महत्वपूर्ण क्या है? उसके प्रतिपाद्य क्या हैं? रामायण के अनेकानेक छोटे-बड़े पात्र अमर हैं। किन्तु उनकी कोई स्वतंत्र सत्ता महाभारत के पात्रों की तरह नहीं है। वे सभी रामकेंद्रित हैं। निषादराज से लेकर पूरा वानरदल, राम के भाई, माता-पिता, आर्य सुमन्त्र और न जाने कौन कौन! और कौन नहीं ! दशरथ का अस्तित्व ही राम से है। जबकि वह उनके पिता हैं।‌ उन सबकी उपस्थिति भगवान राम के आलोक में है। यहां तक कि हनुमान जैसी महान बलशाली और जितेन्द्रिय शक्ति राम में समाहित होकर ही भासित होती है।

उर्मिला के जीवन में वियोग है। नवविवाहिता स्त्री चौदह वर्ष का विरह काटती है। उदात्त चरित्र है उनका। किन्तु वियोग तो सीता-राम के भाग्य में अधिक कारुणिक, कष्टकारी है। वे बार-बार एक दूजे से छूट जाते हैं। और अंततः सीता के वियोग में ही राम सरयू में समाधिस्थ हो जाते हैं। वहां आदर्श सीताराम हैं। उर्मिला नहीं। उस आदर्श ने भारत की जीवनधारा को युगों युगों से जीवंत प्राणवंत रखा है। राम हमारी स्मृति-सत्ता के प्रतीक पुरुष हैं और सीता महानतम स्त्री का उदाहरण बन कर देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उर्मिला का अपना स्थान है। किन्तु उनके साथ अन्याय होने की अवधारणा भारतीय नहीं है। उनकी नियति ही उस वियोग में है। उन्हें यथावत स्वीकारा जाना चाहिए।‌ यशोधरा को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। सखि! वे मुझ से कहकर जाते बड़ा मार्मिक है किन्तु उस कह कर जाने के आग्रह में एक दुराग्रह ने भी जन्म लिया है-कि अगर सिद्धार्थ के बदले यशोधरा संन्यासिन हो जातीं तो…! यह संभव नहीं है। इसलिए संभव नहीं कि यशोधरा कभी जा नहीं सकती थीं। इसलिए कि जीवन मृत्यु दुख और मोक्ष के वे प्रश्न उन्हें सिद्धार्थ की तरह आलोड़ित नहीं करते थे। वे प्रश्न तो यशोधरा के मन में उठे ही नहीं। उन प्रश्नों को सिद्धार्थ के मन में ही उपजना था। इसलिए सिद्धार्थ को ही जाना था। और जिन स्त्रियों के मन में वे प्रश्न उपजे,वे संन्यासिन भक्तिन हो गयीं। उन्हें कोई रोक नहीं पाया।

यह बराबरी का पश्चिमी दर्शन जब हमें प्रभावित करता हैं-जो कि कभी समतामूलक दर्शन रहा नहीं तब हम अपने प्राचीन स्त्री पात्रों के साथ अन्याय होने का विचार मन में लाते हैं और इसी विचार को अत्यंत महत्व देते हुए पूछते हैं कि भला राजस्थान में स्त्रियों को जौहर करने की आवश्यकता ही क्या थी। बंगाल का कथित पुनर्जागरण इसी सिद्धांत से चालित रहा। मैं यह नहीं कहता कि अकेली हिन्दू स्त्रियों के जीवन में दुख नहीं आया। या उस दुख के प्रति हमारी करुणामय दृष्टि नहीं होनी चाहिए। किन्तु उर्मिला और यशोधरा जैसी स्त्रियों के दुख को आधुनिक महिलावादी सोच से देखने का तुक नहीं है। गार्गी ने याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछे। पूरे अधिकार से पूछे। भरी सभा में पूछे। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिए। किन्तु जब उन्हें लगा कि अब यह अनर्गल प्रश्न पूछ रही तो उन्होंने गार्गी को रोक दिया।यह कहते हुए कि अब तुम्हारा सिर फट जाएगा..! अब इस वाद में कोई पुरुपसत्ता को सूंघ सकता है। किन्तु वह तो केवल यही संदेश देता है कि व्यर्थ प्रलाप न करो!

इसे भिन्न परिप्रेक्ष्य में देखें तो आदि शंकर मण्डन की विदुषी पत्नी उभय भारती के अशास्त्रीय प्रश्नों का उत्तर देते हैं। वह परकायाप्रवेश कर ज्ञान अर्जित करते हैं और उनके प्रश्नों के उत्तर देकर उन्हें शांत करते हैं। भारतीय सभ्यता की मूल चिन्ता क्या है। वह पिछले हजारों-हजार वर्ष से कहां मगज खपा रही है। उसकी मूल चिन्ता सत्य की खोज और धर्म की स्थापना है। आत्मतत्व की खोज है। जीव-जगत को सूक्ष्मतम रूप में समझना है। त्याग तप उसके आधार हैं। वादसंवाद उसके शस्त्र हैं। यहां शत-शत झरने बेमेल चलते हैं। आप उसकी मूल भावना को पकड़िए। रामायण का प्रतिपाद्य क्या है। क्या वह उर्मिला के विरहगान को समर्पित है? अगर वह उस विरहगान को समर्पित होती तो हमें क्या मिलता? महाभारत अगर कर्ण और दुर्योधन के साथ अन्याय होने को आधार बनाकर लिखा जाता तो क्या होता। आप रामायण महाभारत की विराटता देखिए। इन ग्रंथों में जिसकी जितनी पात्रता है, उसे उतना ही मिला है। लेकिन यह तो हमारे मंत्रद्रष्टा रचनाकारों की महानता है कि उन्होंने सबके लिए कुछ न कुछ छोड़ रखा है। सभी अपनी दृष्टि से उसे देख सकते हैं। कोई मेघनाद में ही नायकत्व खोज लेता है। लेकिन वह नायकत्व समाज का नहीं है। लोक का नहीं। आपकी कविदृष्टि के लिए ठीक है।

रामायण में शबरी भी है। शबरी वर्षों तक वन में राम की प्रतीक्षा करती रहीं। अब कोई यह कहे कि भला उन्हें राम की प्रतीक्षा करने की जरूरत ही क्या थी। यह तो स्त्री जीवन के साथ अन्याय है। मीरां की स्वतंत्र सत्ता पर कोई आधुनिकतावादी यह तो नहीं कहता कि वह विवाहिता होकर भी कृष्ण के लिए पागल क्यों थीं? उनकी महानता ही इस बात में निहित है कि वह अपनी भौतिक अवस्था से परे जा चुकी थीं। उर्मिला और यशोधरा के लिए विलाप करने वाले भावुकतापूर्ण साहित्य तो रच सकते हैं किन्तु वाल्मीकि व्यास नहीं हो सकते। दूसरे वाल्मीकि और व्यास हो भी नहीं सकते। आप शिकायत करते रहिए। विलाप कीजिए। छाती पीटिए। समानता की ढफली बजाइये।‌ समय आपको उतार देगा। वाल्मीकि और व्यास जीवंत रहेंगे। आप उनसे कुछ सीख लीजिए। वहां से सृजन की अजस्र धारा झरती है।

-देवांशु झा जी

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