बलबीर पुंज
हल्द्वानी में रेलवे जमीन अतिक्रमण मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में 7 फरवरी को सुनवाई होनी है। पिछली सुनवाई (4 जनवरी) में अतिक्रमण हटाने संबंधित उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगा दी गई थी। क्या इसके बाद क्षेत्र में अवैध निर्माण बढ़ने की आशंका है? गत 30 जनवरी को बनभूलपुरा स्थित नए अवैध निर्माणों की जानकारी प्रशासन को मिली। जब वे उसे हटाने पहुंचे, तो लोगों ने उनपर हमला और पथराव कर दिया। जिला प्रशासन द्वारा हाजी मोहम्मद इरशाद, सरफराज अहमद और मोहम्मद सलीम पर नगर-निगम कर्मियों पर हमला, जेसीबी पर पथराव करने, अवैध निर्माणस्थल में खनिज की चोरी करने, तो मोहम्मद गुरफान सहित 200 पर हिंसा हेतु उकसाने का मामला दर्ज करने का निर्देश दे दिया।
अदालती निर्देश के बाद प्रशासन ने बनभूलपुरा में अतिक्रमण को लेकर पुन: सीमांकन किया है। इसका उद्देश्य जिला प्रशासन, नगर निगम और रेलवे— तीनों नक्शों का मिलान कर वर्षों पुरानी रेल-लाइन का सीमा-निर्धारण करना है। क्षेत्र में पहला सीमांकन 2017 में हुआ था, जिसमें सामने आए सैंकड़ों अतिक्रमणों और उसपर होने वाली अदालत निर्देशित कार्रवाई को समाज के एक वर्ग— जिनका अपना राजनीतिक एजेंडा है, उसने विकृत ढंग से प्रस्तुत किया। यह मामला जब से सार्वजनिक विमर्श में आया है, तब से निहित-स्वार्थों के कारण इसे ‘सत्ता-अधिष्ठान बनाम गरीब’ और ‘हिंदूवादी सरकार बनाम मुस्लिम’ के रूप में स्थापित किया जा रहा है।
मूलत: यह पूरा मामला जरूरतमंद परंतु स्वछंद प्रकृति के लोगों द्वारा प्रशासन में व्याप्त बेईमान-अकर्मण्य अधिकारियों-कर्मचारियों और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की मिलीभगत से सार्वजनिक संपत्ति की चोरी करने का है। यह कदाचार न तो पहली बार हुआ है और न ही शायद आखिरी बार। देश में प्रत्येक वर्ग के लोग, चाहे वे छोटे हो या बड़े— अक्सर अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु कानून की धज्जियां उड़ाते है, उसका उपहास करते है और यह सब करते हुए वे अपराधबोध से मुक्त होते है।
हल्द्वानी का मामला विशुद्ध रूप से न्यायालय और अतिक्रमणकारियों के बीच का है। किंतु स्वयं को ‘सेकुलर’ कहने वाला एक कुनबा इसे ‘हिंदूवादी सरकार द्वारा मुस्लिम उत्पीड़न’ के रूप में प्रस्तुत कर रहा है, तो इसे ‘अमीर बनाम गरीब’ की संज्ञा देकर यह विमर्श बना रहा है कि यह गरीबों पर अत्याचार है, क्योंकि धनवान और साधन-संपन्न परस्त शासन-व्यवस्था में निर्धनों-साधनहीनों का शोषण हो रहा है। येन-केन प्रकारेण— इन सभी तर्कों का निचोड़ यह है कि चाहे कुछ भी हो जाए, दशकों से जिन लोगों का सरकारी भूमि पर अवैध कब्जा है— वह बना रहना चाहिए।
उच्च न्यायालय में हल्द्वानी प्रकरण पहली बार वर्ष 2013 में पहुंचा था, जो रेलवे स्टेशन के साथ बह रही गौला नदी क्षेत्र में अवैध रेत खनन से जुड़ा था। अदालत ने मामले का विस्तार करते हुए वर्ष 2016 में पहली बार अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया, जिसपर तत्कालीन राज्य सरकार ने पुनर्विचार याचिका दाखिल की, जो निरस्त हो गई। तब पश्चात संयुक्त सर्वेक्षण में 78 एकड़ से अधिक रेलवे भूमि पर 4,365 अतिक्रमण चिन्हित हुए, जिसमें लगभग 50 हजार लोग रहते है। निवासियों द्वारा पट्टे-बिक्री के माध्यम से भूमि का स्वामित्व का दावा करने के बाद भी उच्च न्यायालय ने 20 दिसंबर 2022 को रेलवे के पक्ष में निर्णय सुनाया और अतिक्रमण हटाने (बलपूर्वक सहित) का आदेश दिया। किंतु जब इसे शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई, तो वहां इसे ‘मानवीय मुद्दा’ बताकर उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगा दी। स्पष्ट है कि हल्द्वानी में अवैध अतिक्रमण को हटाने की अदालती प्रक्रिया में, कहीं कोई राजनीतिक भूमिका नहीं है।
क्या हल्द्वानी में अतिक्रमणकारियों को केवल इसलिए निशाना बनाया गया, क्योंकि वे ‘गरीब’ है? क्या संपन्न वर्ग सदैव ऐसे मामलों में बच जाते है? गत 31 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर में ‘रोशनी’-कचहरी आदि सरकारी भूखंडों पर अतिक्रमण हटाने की अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया। यह मामला विवादित ‘राज्य भूमि (कब्जाधारकों के लिए स्वामित्व का अधिकार) अधिनियम, 2001’ से जुड़ा है, जिसे उच्च न्यायालय असंवैधानिक घोषित कर चुका था। शीर्ष अदालत का कहना है कि “इसके लाभार्थी बड़े लोग है… यदि हम याचिकाकर्ता को राहत देते हैं, तो इसका प्रभाव पूरे जम्मू-कश्मीर पर पड़ेगा।”
गत वर्ष अदालती निर्देश पर उत्तरप्रदेश में नोएडा स्थित बहुमंजिला अवैध ‘ट्विन टावर’ को विस्फोट करके ढहा दिया था। इससे भवननिर्माता कंपनी को 500 करोड़ रुपये की क्षति हुई। यह कार्रवाई तब हुई, जब अवैध इमारत का निर्माण बिल्डर के स्वामित्व वाली भूमि पर ही हुआ था। यही नहीं, यमुना नदी के बाढ़ क्षेत्र में बने एक हजार अवैध फार्महाउसों को नोएडा प्राधिकरण ध्वस्त कर रहा है। गत वर्ष ऐसे 150 अवैध निर्माणों को मलबे में परिवर्तित कर दिया गया, जिसका खर्चा तक प्रभावितों से वसूला गया था।
दक्षिण मुंबई स्थित आदर्श हाउसिंग सोसायटी में क्या हुआ? भ्रष्टाचार, फर्जीवाड़े और आपराधिक षड़यंत्र का खुलासा होने के बाद कोलोबा में कारगिल युद्ध नायकों के लिए बनी यह इमारत वर्ष 2010-11 से विवादों में है। 29 अप्रैल 2016 को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने पर्यावरण मंत्रालय को 31 मंजिला सोसाइटी को गिराने के आदेश दिए थे, जिसपर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी और तभी से यह भवन रक्षा मंत्रालय के अधीन है। भले ही यह इमारत अभी तक खड़ी है, किंतु जिन लोगों ने करोड़ों रुपये खर्च करके अनैतिक रूप से इन फ्लैटों को हथियाना चाहा, उनके हाथ कुछ नहीं लगा।
कहने की आवश्यकता नहीं कि उपरोक्त चारों मामलों में प्रभावितों की आर्थिक स्थिति क्या है? अब जो समूह हल्द्वानी में चिन्हित अतिक्रमणकारियों के मौलिक अधिकारों की दुहाई देकर उसमें ‘मानवीय पक्ष’, ‘अमीर-गरीब’ या ‘इस्लामोफोबिया’ ढूंढ रहे है, उनमें से अधिकांश की संदेवना हरियाणा में फरीदाबाद स्थित खोरी गांव मामले में वैसे क्यों जागृत नहीं हुई? क्या इसका कारण हल्द्वानी प्रकरण में लगभग सभी अतिक्रमणकारियों का मुसलमान होना है?
हल्द्वानी मामले से डेढ़ वर्ष पूर्व, 7 जून 2021 को शीर्ष अदालत ने फरीदाबाद के खोरी गांव में 80 एकड़ की वन भूमि पर अवैध अतिक्रमण को छह सप्ताह के भीतर हटाने का निर्देश दिया था। तब क्षेत्र में 10,000 घरों में लगभग एक लाख लोग रहते थे। जब अदालत में कार्रवाई रोकने हेतु याचना की गई, तब सुनवाई कर रही खंडपीठ ने यह कहते हुए इससे इनकार दिया कि ‘यह वन भूमि है, कोई साधारण भूमि नहीं’। स्पष्ट है कि तब न्यायालय ने मानवीय पक्ष से अधिक वन भूमि की सुरक्षा और पर्यावरण पर चिंता प्रकट की थी। उस समय संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञ समूह ने इस कार्रवाई को रोकने का आह्वान किया था, जिसे भारत सरकार ने देश के कानूनी शासन को कमजोर करने वाला बताकर अस्वीकार कर दिया।
सच तो यह है कि सरकारी भूखंडों पर अतिक्रमण और अवैध निर्माण भारत में बड़े पैमाने पर होता है। अकेले रेलवे की लगभग दो हजार एकड़ भूमि पर अब भी अतिक्रमण है। यदि व्यवस्था अतिक्रमित भूमि को मुक्त करने की दिशा में आगे बढ़ती है, तो इसे रोकने के लिए भू-माफियाओं, निहित स्वार्थ युक्त राजनेताओं और प्रभावित जनसमूह, अराजक तत्वों और भ्रष्ट-अकर्मण्य अधिकारियों-कर्मचारियों के साथ मिलकर उसे अवरुद्ध करते है। हल्द्वानी में अवैध अतिक्रमण और उसे हटाने का योजनाबद्ध विरोध— इसका मूर्त रूप है।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।