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old age miseries in India

क्या पितृ- तर्पण के देशमें यह हाल होगा बुज़ुर्गों का?

आर.के.सिन्हा

अब मध्य प्रदेश में अपने अभिभावकों का अनादर, अपमान और उन्हें राम भरोसे छोड़ने वाले सरकारी कर्मियों की खैर नहीं। दुर्भाग्यवश, हमारे देश में वृद्धों का जिस तरह से घोर अपमान होने लगा है, उसे देखते हुए मध्य सरकार के नक्शे कदम पर केन्द्र, अन्य राज्य सरकारों और निजी क्षेत्रों को भी चलना चाहिए। मध्य प्रदेश सरकार उन असहाय बुजुर्ग मां-बापों के लिए ‘श्रवण कुमार’ बनने जा रही है , या कम से कम प्रयास तो कर ही रही है। जो शासकीय अधिकारी-कर्मचारियों ने अपने ही माता- पिता को जीवन की सांझ में बेसहारा छोड़ दिया है, उनके लिए मध्य प्रदेश की सरकार ने ऐसा नियम बनाया है, जिसके तहत अपने मां-बाप को बेसहारा छोड़ने वाले शासकीय कर्मचारियों के वेतन से एक निश्चित राशि उनके माता-पिता की सहायता के लिए काटी जाएगी। नियम के तहत उन सभी कर्मचारियों के वेतन से यह राशि कटेगी, जिनके मां-बाप अपने बच्चों की इस बारे में शिकायत करते हैं। आमतौर पर सरकारें तो बड़ी योजनाओं और परियोजनाओं पर काम करने में ही लगी रहती हैं। उन्हें समाज में आ रही कुरीतियों और अभिशापों पर हल्ला बोलने की फुर्सत ही कहॉं मिलती है? लेकिन, इस पृष्ठभूमि में मध्य प्रदेश सरकार का निर्णय़ को तो सराहनीय माना ही जाएगा। दरअसल जिस तेजी से हमारे यहां वृद्धाश्रम या सीनियर सीजिटन्स होम बन रहेहैं, उससे डर लगने लगा है। इससे ये भी संकेत मिलता है कि अब बड़ी संख्या में बच्चों ने अपने माता-पिता को घर से अलग कर दिया है।क्या पितरों के तर्पण करने वाले देश में बुज़ुर्गों का यह हाल होने वाला है?

कौन देखेगा बुजुर्गों को ?

आपने भी गौर किया ही होगा कि हमारे देश हर स्तर पर युवा शक्ति की विशेष रूप से बहुत चर्चा होती है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। पर इस क्रम में उनकी तो अनदेखी नहीं हो न , जो जीवन भर देश के लिए दिन-रात सेवा करने के बाद अब चैन पूर्वक मरने का इंतजार कर रहे हैं? देश में बुजुर्गों की आबादी भी तेजी से बढ़ रही है। देश की औसत आयु में भी लगातार वृद्धि हो रही है। इसलिए उनके लिए भी सुखी जीवन की अनुकूल स्थितियां बनानी ही होंगी। बुज़ुर्गों को अलग- थलग या उपेक्षित कदापि नहीं छोड़ा जा सकता है। पिछले एक दशक में वरिष्ठ नागरिकों की संख्याि में 39.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और देश की आबादी में इनकी हिस्सेदारी वर्ष 2001 के 6.9 प्रतिशत की तुलना में बढ़़कर वर्ष 2011 में 8.3 प्रतिशत हो गई है।बेशक, सरकार के अनेक सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रम हैं, लेकिन इनके लाभार्थी तो सीमित ही हैं। इनमें असंगठित क्षेत्र के बहुत कम कामगार या उनके परिवार ही लाभार्थियों में शामिल हो पाते हैं। गैर-संगठित क्षेत्र के श्रमिकों और उनके आश्रितों को बीमारी,अधिक उम्र, दुर्घटनाओं या अकाल मृत्यु के कारण बेहद गरीबी का सामना करना पड़ता है। इस तरफ सरकार और समाज को गंभीरता से विचार कर कोई न कोई कारगर उपाय तो करना ही होगा।

पाई-पाई को मोहताज

आप अपने आसपास रहने वाले बुजुर्गों से उनकी मली हालात या उनके आय नियमित ष्रोतों के संबंध में बात करके देख लीजिए। आप पाएंगे कि 10 में से 8 की नियमित आय का कोई स्रोत ही नहीं है। वो पूरी तरह से अपने परिवार पर ही निर्भर है। अब यह परिवार के कमाऊ पूतों पर है कि वे उनका कितना ख़याल करते हैं। चूंकि, बुजुर्ग आर्थिक रूप से स्वावलंबी नही है, इसलिए उन्हें अपने ही घर में दुत्कारों को सहना पड़ रहा है। अगर किसी शख्स के दो या तीन पुत्र हैं तो वो उनके पास बारी-बारी से रहने के लिए अभिशप्त हैं।शायद ही कोई उन्हे स्थायी रूप से अपने पास रखकर राजी है। यानी बुजुर्ग होने पर ज़्यादातर मॉं- बाप स्थायी यात्री की भूमिका में आ जाते हैं। इस बाबत सरकारों को तो सोचना ही होगा। अपने जीवन के संध्याकाल में पहुंच गए बुजुर्गों के हितों को समझना होगा और उसका स्आथायी निदान ढूँढना होगा। आजकल महानगरों और बड़े शहरों में धडल्ले से ओल्ड एज होम खुल रहे हैं। इनमें पर्याप्त सुविधाएं भी प्राय: उपलब्ध भी रहती हैं। लेकिन, इनमें भी वे ही रह सकते हैं,जिनकी माली हालत ठोस है। यानी यदि एक बुजुर्ग लगभग बीस हजार रुपया हर माह खर्च करने के लिए तैयार है, तभी इस सुविधा का पात्र हो सकता है। पति-पत्नी हैं तो ये आंकड़ा सीधा दुगना हो जाता है। पर नौकरी से मुक्त होने के बाद भी हर माह 50-60 हजार रुपये की कमाई करने वाले बुजुर्गों की तादाद तो देश में वास्तव में बहुत ही कम है।इसलिए इन ओल्ड एज होम्स का खर्चा वहन करना सबके बूते की बात नहीं है।

अकेले रहते डेढ़ करोड़

देश में बुजुर्गों, या यूँ कहें कि 60 साल से अधिक उम्र की आबादी के संबंध में कुछ चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में डेढ़ करोड़ बुजुर्ग बिलकुल अकेले जीवन व्यतीत कर रह रहे हैं।इनमें तीन-चौथाई आबादी तो सिर्फ औरतों की है।ग्रामीण भारत के 32.5 फीसद घरों में कम से कम एक बुजुर्ग तो है ही।जबकि, शहरी भारत में यह संख्या 29 फीसद ही रह जाती है। ग्रामीण भारत में 28 लाख महिलाएं अकेले जिन्दगी बसर कर रही हैं। शहरों में यह संख्या 8.2 लाख है। जरा सोचिए कि इन अकेले जीवन यापन करने वाले बुजुर्गों का जीवन कितना कठोर होगा और अपमानजनक होगा? “ घुट- घुटकर मरना”, इसे नहीं कहेंगें तो क्या कहेंगें?

जरूरत और की

बेशक बुजुर्गों की सुख-सुविधा के लिए अनेक तरह के कदम उठाए भी गए हैं। आपको अस्पतालों के बाहर वरिष्ठ् नागरिकों के लिए अलग से लाइनें मिलेंगी। इसी तरह सेकुछ राज्य सरकारों ने सरकारी अस्पतालों में वरिष्ठ नागरिकों के लिए विशेष क्लिनिकों की भी व्यवस्था की है। इसके अलावा वरिष्ठ नागरिकों के लिए टैक्स में विशेष छूट तथा अन्य प्रावधान तो हैं ही। जैसे कि वरिष्ठ नागरिकों को उनकी बचतों पर अधिक ब्याकज दर मिलती है। सभी वरिष्ठ नागरिकों को रेल किराए में ठीक-ठाक ही छूट मिलती है। बैंक भी इन्हें फिक्स्ड डिपोजिट पर अधिक ब्याज दे रहे हैं। यहां तक सब ठीक है। लेकिन , आवश्यकता इस बात की है कि सरकार और समाज हरेक बुजुर्ग के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाए। सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों में देश के दूर-दराज क्षेत्रों में रहने वाले बुजुर्गों को छत, दवाई, भोजन की अवश्य व्यवस्था हो। बीते साल नवंबर महीने के अंत में सरकारी और निजी क्षेत्र की कंपनियों से सेवानिवृत हो गए रिटायर्र्ड कर्मचारी बैंकों के चक्कर काट रहे थे। इन्हीं बैंकों में इनकी सांकेतिक पेंशन आती है। दरअसल इन्हें बैंकों में इसलिए जाना पड़ रहा था , ताकि ये वहां पर जाकर यह प्बरमाणित कर सकें कि ये अभी इस संसार में जीवित हैं? ये वार्षिक सरकारी कर्मकांड है,जो इन पेंशनभोगियों को अपमानपूर्कवक करना ही पड़ता है।

इसलिए देशभर में करोड़ों पेंशन भोगी बैंकों में जुलूस बनाकर चले जा रहे थे। इन सभी को मिलती है मासिक1250 रुपये से लेकर 10 हजार रुपये तक की पेंशन। आप समझ सकते हैं कि इतनी कम राशि में जीवन यापन करना लगभग असंभव है। हां,केन्द्र और राज्य सरकारों के रिटायर कर्मियों को पेंशन अब काफी संतोषजनक मिलने लगी है। वे खुद भी इस बात को मानते हैं। अब केन्द्र सरकार से सेक्शन आफिसर पद से रिटायर होने वाले कर्मी को मासिक 40 हजार रुपये से अधिक मासिक पेंशन मिल जाती है। रिटायर होने पर उसे पीएफ और दूसरे लाभ तो मिलते ही हैं। लेकिन, अगर देश भर की बात करें तो केन्द्र और राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों में काम करने वालों से लेकर रिटायर हो गए कर्मियों का कुल आंकड़ा तीन-चार करोड़ ही होगा। अगर इसमें केन्द्र और राज्य सरकारों के उपक्रमों में काम कर रहे या फिर सेवानिवृत हो गए कर्मियों को भी जोड़ लें तो ये आंकड़ा पांच-छह करोड़ के आस पास हो जाता है। ये संख्या कुछ कम या ज्यादा हो सकती है। इन सबको तो एक तरह से सामाजिक सुरक्षा मिल रही है। पर बाकी की स्थिति बद से बदत्तर होती जा रही है। निजी क्षेत्र में अब ठेके पर ही ज़्यादातर कर्मियों को रखा जा रहा है। इनमें काम करने वाले मुलाजिम तो फेयरवेल पार्टी भी नहीं देख पाते। ज्यादातर को उनकी रिटायरमेंट से पहले ही चलता कर दिया जाता है। ये वरिष्ठ नागरिक होने पर तिल-तिल को मोहताज होते हैं। ये अपने जीवन का शेष भाग जैसे-तैसे गुजारते हैं।

बेहाल असंगठित क्षेत्र वाले बुजुर्ग

सबसे विकट स्थिति है देश में असंगठित क्षेत्रों से जुड़े करोड़ों लोगों की। इनकी सामाजिक सुरक्षा के बारे में क्या कोई सोच रहा है? और जब असंगठित क्षेत्रों से जुड़े मजदूर 60 साल की आयु को पार कर लेते हैं,तो उन्हें कौन देखता है। इनकी छत, भोजन, बीमार होने पर दवाई वगैरह की व्यवस्था किस तरह से होती है? स्वास्थ्य देखभाल और बुढ़ापा पेंशन जैसे सा‍माजिक सुरक्षा के लाभ संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों को ही मिलते हैं। अगर बात गैर-संगठित क्षेत्र में काम करने वालों की करे तो इन्हें सही तरह से सरकारी योजनाओं के लाभ नहीं मिल पाते। देश की कुल श्रम शक्ति का 90 फीसद हिस्सा अंसगठित क्षेत्र से ही जुड़ा है। जरा सोचिए कि 60 साल की उम्र के बाद इनका क्या होता होगा।

दरअसल देश अपने वरिष्ठ नागरिकों को उनके जीवन के संध्याकाल में लाचारी की हालात में मरने के लिए नहीं छोड़ सकता। इन्होंने राष्ट्र निर्माण में अहम भूमिका निभाई है। देश का इनके ऊपर कर्ज है।उससे देश और समाज इंकार नहीं कर सकता।इनकी चिन्ता करना सरकार और समाज का कर्तव्य है।

(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)

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