मेरे सहपाठी और चिकित्सक मित्र डॉक्टर प्रमोद अग्रवाल ने भी समाज में आ रहे बदलाव से व्यथित होकर अपने पेज पर हरियाणा के चरखी दादरी की उस घटना को स्थान दिया है, जिससे समाज का हर संवेदनशील व्यक्ति व्यथित है। इस घटना में संपन्न, पढ़े-लिखे व उच्च अधिकारियों के परिवार के बच्चों की ओर से घोर उपेक्षा के चलते बुजुर्ग मां-बाप ने आत्महत्या कर ली। समाज में इस प्रकार की घटना के अतिरिक्त “माँ” से सम्बोधित गौ, नदी, धरती की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। इसका विस्तार फिर कभी।
इस घटना में , वृद्ध दंपति का आरोप था कि उनके बच्चे तीस करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं और वे रोटी के लिये तरस रहे हैं। महिला की गंभीर बीमारी भी इस संकट का एक पहलू है। वैसे इस घटनाक्रम का विवरण पुलिस रिपोर्ट के आधार पर है और वास्तविक तथ्य तो जांच के बाद सामने आएंगे। लेकिन एक बात तो तय है कि यह मामला सिर्फ मां-बाप की भूख का ही नहीं है। निस्संदेह, यह मामला हमारे बदलते परिवेश में जीवन मूल्यों के क्षरण का है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि बढ़ती उम्र के साथ शरीर बीमारियों का घर बन जाता है। जीवन के अंतिम चरण का भय, अनुकूल परिस्थितियां न होने से व्यक्ति में उपजा तनाव कालांतर अवसाद व झुंझलाहट को जन्म देता है।
यह भी एक तथ्य है कि पुरानी पीढ़ी लगातार बदलते परिवेश में नई पीढ़ी के बच्चों के साथ सामंजस्य बनाने में असहज नजर आती है। ऐसे ही नई पीढ़ी भी पुरानी पीढ़ी की आकांक्षाओं के अनुरूप सामंजस्य नहीं बना पा रही है। बच्चे नौकरी, अपने परिवार के दायित्वों व पत्नी की पसंद-नापसंद से द्वन्द करते रहते हैं। वहीं दूसरी ओर परंपरागत भारतीय समाज में माता-पिता उस सोच से मुक्त नहीं हो पाये हैं कि बेटा तो अच्छा, बहू खराब है, बेटी तो अच्छी मगर दामाद खराब है।
समाज की मार्ग दर्शक पीढ़ी यानि बुजुर्गों को ढलती उम्र के साथ ही योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ना चाहिए। सेवानिवृत्ति से पहले ही आगे के जीवन के लिये कारगर योजना बनानी चाहिए। अपने स्वास्थ्य की प्राथमिकता तय करनी चाहिए। यह बात दिमाग में रखनी चाहिए कि ऐसा भी हो सकता है कि बुढ़ापे में बच्चों का सहयोग न मिले। गांठ का पैसा व सेहत का धन उम्र-दराज होने पर काम आ सकता है। इसके अलावा समय के हिसाब से पुरानी पीढ़ी को भी नई पीढ़ी के साथ सामंजस्य बनाना चाहिए। उन्हें अपने बच्चों के घर-परिवार के साथ हाथ बंटाना चाहिए। वक्त की सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए।
यह तय मान लें कि अब वो पीढ़ी नहीं रही जो सद संतति की तरह सेवा करने में विश्वास करती हो। इस तथ्य को मां-बाप को गारंटी मानकर नहीं चलना चाहिए कि जिन बच्चों को पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया वे बुढ़ापे में सेवा करेंगे ही। इसलिये बुजुर्गों को हाथ-पैर चलने तक अपना ख्याल खुद रखना चाहिए। प्रौढ़ता के साथ यह सोच लेना चाहिए कि बच्चों से तालमेल न बनाया तो वृद्धाश्रम की राह पकड़नी पड़ सकती है। ॰
यह सही है कि भारतीय जीवन दर्शन के अनुरूप ‘ओल्ड ऐज होम’ का विचार मेल नहीं खाता। माता-पिता भी आत्ममंथन करें कि बेटे-बेटियां यदि आपकी परवरिश से कतरा रहे हैं तो कहीं उनके लालन-पालन में आप से भी कोई कमी जरूर रह गई है। बहुत संभव है कि आपका व्यवहार अपने माता-पिता के प्रति ऐसा न रहा हो, जिससे बच्चे प्रेरित हुए हों। भारतीय समाज करवट बदल रहा है,यह बदलाव सही दिशा में तब ही चल पाएगा जब हमारी पूर्वज और अग्रज पीढ़ी में तालमेल हो। यह तालमेल किसी और को नहीं हमें ही बैठाना है भले ही हमारी भूमिका अभिभावक की हो संतान की।