रजनीश कपूर
कुख्यात अपराधी अतीक अहमद के बेटे असद अहमद के एनकाउंटर का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ
था कि पुलिस हिरासत में मेडिकल जाँच के लिये जाते समय अतीक और उसके भाई अशरफ़ की हत्या कर
दी गई। इस घटना से पुलिस प्रशासन एक बार फिर से सवालों के घेरे में आ गई है। उस पर कई तरह के
सवाल उठने लग गये हैं। सरकार ने भी जाँच के आदेश दे दिये हैं, जिसकी रिपोर्ट आने पर ही सही कारण
का पता चलेगा।
जब भी कभी ऐसी घटना घटती है तो राजनेता इस पर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकने से पीछे नहीं
हटते। हमेशा की तरह विपक्ष और सत्तापक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है। पर यहाँ
सवाल राजनीति का नहीं है। सवाल पुलिस की कार्यशैली का है। पुलिस की हिरासत में विचाराधीन
कैदियों का फ़िल्मी अन्दाज़ में मारा जाना पुलिस व्यवस्था को शक के घेरे में लाती है। ऐसा नहीं है कि इस
तरह की घटना पहली बार हुई हो। अफ़सोस की बात है कि कई बार पहले हो चुकी ऐसी घटनाओं से
पुलिस प्रशासन ने कोई सबक़ नहीं लिए।
हत्या अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ़ की हुई हो या किसी और विचाराधीन कैदी की ऐसी घटना
की जितनी भी निंदा की जाए उतनी कम है। विचाराधीन कैदी कितना कुख्यात है, उसे कितनी कठोर सज़ा
मिलनी चाहिए, ये काम अदालत का है। यदि अदालत के बजाय बदले की भावना से सड़कों पर न्याय होने
लगे तो भारत को गणतंत्र के बजाय ‘गन’-तंत्र कहा जाने लगेगा।
सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में हम सभी ने देख कि कोरोना काल के दौरान जब सभी कुछ घर बैठे हो
सकता है। तो ऐसे कुख्यात अपराधी व विचाराधीन क़ैदियों को न्यायालय के सामने भौतिक रूप से
उपस्थित करना कहाँ तक उचित है? ख़ासतौर से जब पुलिस के पास इस बात की जानकारी हैं कि ऐसे
क़ैदियों को छुड़ाया जा सकता है या उन पर हमला हो सकता है। तो क्या कारण था कि साबरमती की जेल
से लगभग 1300 किलोमीटर की दूरी सड़क मार्ग से ही पूरी की गई? इस पूरी यात्रा पर जो खर्च हुआ
उससे काफ़ी कम ख़र्च में क़ैदियों को दूसरे साधनों से भी लाया जा सकता था। ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश
में ही एक कुख्यात अपराधी को आजीवन कारावास की सज़ा वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से सुनाई गई
थी।
क्या अतीक और उसके भाई अशरफ़ की मेडिकल जाँच सुरक्षित माहौल में प्रयागराज के जेल में नहीं हो
सकती थी? इन दोनों अपराधियों की संवेदनशीलता और सुरक्षा के चलते पुलिस को अदालत में इस बात
को भी उठाना चाहिए था कि दोनों अपराधियों की मेडिकल जाँच जेल में ही हो। यदि उनकी मेडिकल
जाँच के लिये उनको अस्पताल ले जाना ही था तो एक कड़ा सुरक्षा घेरा क्यों नहीं बनाया गया? ऐसी
क्या मजबूरी थी कि इस जाँच को रात में ही होना था? इस जाँच की सूचना मीडिया को किस ने दी और
क्यों दी? ये सूचना इन युवकों तक कैसे पहुँची? किसी भी विचाराधीन कैदी को मीडिया से बात करने की
अनुमति नहीं होती है तो ऐसी अनुमति किस अधिकारी ने दी? जो मीडियाकर्मी इन क़ैदियों के इतने
नज़दीक आ गये थे क्या उनकी तलाशी हुई थी? दोनों क़ैदियों को एक ही हथकड़ी से बांधा जाना क्या
सही था? जिन विचाराधीन क़ैदियों की सुरक्षा को लेकर पहले से ही कई तरह के संदेह बने हुए थे, उनकी
सुरक्षा में अनुभवी पुलिसकर्मियों को क्यों नहीं लगाया गया? यदि इन अपराधियों को ले जा रहे
पुलिसकर्मी चौकन्ना रहते तो शायद ये वारदात न हो पाती।
वारदात को अंजाम देने वाले युवकों को सीधा न्यायिक हिरासत में क्यों भेजा गया? उनका पुलिस रिमांड
क्यों नहीं माँगा गया? वारदात के कई दिनों बाद तक पुलिस रिमांड का ना लेने से क्या इस कांड के
मास्टरमाइंड को सुबूतों को मिटाने व देश छोड़ कर भागने का मौक़ा दिया जा रहा था? इतने महँगे व
प्रतिबंधित हथियार इन युवकों के पास कैसे आए? इन युवकों को, जो कि छोटे-मोटे अपराधी थे, इन
अत्याधुनिक हथियारों को चलाने का प्रशिक्षण किसने दिया? यदि पुलिस रिमांड लिया जाता तो ऐसे कई
तथ्यों का पता चलता। परंतु ऐसा नहीं हुआ। इन सवालों का जवाब भी पुलिस को जाँच कमेटी को देना
पड़ेगा।
जिस तरह ज़्यादातर अदालतों में विचाराधीन क़ैदियों के प्रवेश के लिए अलग गेट बने होते हैं उसी तरह
अस्पतालों में भी सुरक्षित गेट होने चाहिए जहां क़ैदी व पुलिस के अलावा और कोई भी न आ सके। यदि
किसी जगह विचाराधीन कैदी या कुख्यात अपराधी को ले जाया जाता है तो पुलिस को सुरक्षा के पुख़्ता
इंतज़ाम रखने चाहिए। नहीं तो ऐसी घटनाएँ नहीं रुकेंगी और अपराधियों को क़ानून के हिसाब से सज़ा
नहीं मिल पाएगी। अपराधियों का ख़ात्मा या तो किसी षड्यंत्र के तहत या विरोधी गिरोह द्वारा होता ही
रहेगा और आरोप पुलिस पर ही लगेगा।
हर कोई चाहता है कि अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले, जिससे कि भविष्य में अपराधी अपराध
करने से पहले कई बार उसके अंजाम के बारे में सोचे। परंतु इसके साथ इस बात पर भी गौर करने की
ज़रूरत है कि क्या देश भर की अदालतों में लंबित पड़े लाखों आपराधिक मामलों में देरी होने के चलते
‘पुलिस एनकाउंटर’ या ऐसी हत्याएँ बढ़ने लग गई है? क्या यह न्याय का नया तरीक़ा है जो चलन में आ
गया है? क्या आपराधिक जाँच कर रही पुलिस को या किसी अन्य को ऐसी सज़ा देने का कोई हक़ है जिस
पर सवाल उठाए जा सकते हैं? यदि ऐसा नहीं है तो पुलिस द्वारा किए जाने वाले एनकाउंटर या पुलिस
की मौजूदगी में होने वाली ऐसी हत्याएँ भी कड़ी सज़ा की श्रेणी में ही आएँगी और पुलिसकर्मियों को
इसकी सज़ा भी भुगतनी पड़ सकती है।
*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र न्यूज़ ब्युरो के प्रबंधकीय संपादक हैं।