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नये राजनैतिक दल के गठन का प्रश्न: 1

नये राजनैतिक दल के गठन का प्रश्न: 1

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

वर्तमान स्थिति से क्षुब्ध होकर भारतीय संस्कृति और भारतीय समाज से आत्मभाव रखने वाले बहुत से लोग व्यग्र होकर नये राजनैतिक दल के गठन की इच्छा पाल लेते हैं। यह इच्छा स्वयं में बहुत ही महत्वपूर्ण और शुभ है परंतु आवश्यक जानकारी और विवेक के बिना यह केवल कष्ट और निराशा की ओर ले जायेगी। सर्वप्रथम तो यह जानना चाहिये कि यह जो आपमें नये राजनैतिक दल के गठन का उत्साह आ रहा है, वह स्वयं में कितना बड़ा वरदान है। कल्पना कीजिये कि भारत में तानाशाही होती और वह तानाशाह मुसलमानों के साथ मैत्री के कारण हिन्दू धर्म का बढ़-चढ़ कर दमन कर रहा होता। क्योंकि इंग्लैंड या अमेरिका को तो किसी भी राष्ट्रराज्य में तानाशाही के होने से कोई अंतर आज तक नहीं पड़ा है। विश्व के अनेक तानाशाहों से और तानाशाहियों से पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका के लोगों की खूब छनती है। यद्यपि अपनी कूटनीति के अंतर्गत वे रहरहकर लोकतांत्रिक अधिकारों और मानवाधिकारों के मुद्दे विविध अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के जरिये उठाते रहते हैं। ताकि सम्बन्धित तानाशाहों से सौदेबाजी ठीक से हो सके। तब उस स्थिति में भारत के हिन्दुओं की दशा कितनी भयावह होती। हिन्दुओं की विशाल संख्या के वोट से डरे रहने के कारण लोकतांत्रित राजनीति में खुल कर यह नहीं हो पा रहा है। यह एक वरदान की स्थिति है।
इसी प्रकार कल्पना कीजिये कि जिस प्रकार उत्तर-पूर्व के राज्यों में ईसाई चर्चों का आतंक है, कांग्रेस के कतिपय हिन्दूद्रोही नेताओं के सहयोग से शेष संपूर्ण देश में भी ईसाई चर्चों का वैसा ही आतंक छा जाता। दक्षिण में कुछ जगह तो यह प्रयास हो ही रहा है। ईसाई चर्चों के प्रभाव से ही स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या हुई, ग्राहम स्टेन्स की वीरोचित हत्या पर अंतर्राष्ट्रीय विलाप लगातार चल ही रहा है, परमपूज्य शंकराचार्य जी महाराज, श्रृंगेरी पीठ को झूठे आरोप में पुलिस ने जेल में डाल दिया और मुकदमे के निर्णय के बाद ही वे छूटे, आसाराम बापू को एक अपुष्ट आरोप की आड़ लेकर जेल में डाल रखा गया है और स्वामी रामदेव की हत्या की कोशिश की जा चुकी है। ऐसी स्थिति देश में और व्यापक होती तो क्या होता?
यह कल्पना करने पर आप वर्तमान स्थिति को बेहतर पायेंगे। अतः यह कभी भूलना नहीं चाहिये कि स्थिति वैसी निराशापूर्ण नहीं है, जैसी आपको लगती है। अगर आप भारत की स्थिति को वैश्विक संदर्भ में रखकर देखने की सामर्थ्य नहीं रखते तो वर्तमान समय में राजनीति का विचार छोड़ देना चाहिये।
इस प्रकार किसी भी स्थिति को बेहतर बनाने के लिये या अस्वस्थ स्थिति का उपचार करने के लिये सर्वप्रथम स्थिति का निदान आवश्यक है। उसके बिना, देश दुनिया की वास्तविक जानकारी का ध्यान रखे बिना, भारतीय मीडिया की गपोड़बाजियों के आधार पर और अलग-अलग दलों और समूहों के नियोजित प्रोपेगंडा को बौद्धिक बहसें मानकर उनके आधार पर राजनैतिक दल बनाने की लालसा अंत में कष्ट बढ़ायेगी।
स्थिति का आकलन
15 अगस्त 1947 ईस्वी तक भारत में 12 बड़े हिन्दू राज्य थे और 60 मझोले हिन्दू राज्य थे। इनके साथ 3 बड़े मुस्लिम राज्य और 12 मझोले मुस्लिम राज्य थे। इसके अतिरिक्त 615 छोटे-छोटे राज्य थे, जिनमें से 500 से अधिक हिन्दू राज्य थे और 100 से कुछ अधिक मुस्लिम रियासतें थीं। छलपूर्वक लगभग आधे भारत में 90 वर्षों के लिये इंग्लैंड ने अपना शासन जमा लिया था परंतु कभी भी इंग्लैड के राज्य शासन ने भारत के विरूद्ध या हिन्दुओं के विरूद्ध या मुसलमानों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा का साहस नहीं किया था। सदा सबके साथ मैत्री और सबके विकास में साझेदारी की ही बात ब्रिटिश शासन करता रहा था। उस ब्रिटिश शासन की इस स्थिति के संदर्भ में हिन्दू राजाओं और मुस्लिम नवाबों ने उससे विभिन्न प्रकार की संधियां कर रखी थीं। ये संधियां भारतीय अनुभवों और भारतीय राज्य परंपरा से प्रभावित थीं। भारत के हिन्दू राजा परस्पर धर्ममय युद्ध करते रहे थे और अधिक शक्तिशाली के साथ संधियां करते रहे थे। मुसलमानों में जब कुछ लोग यहां वहां नवाब बने तो उन्होंने सदा हिन्दुओं से साझेदारी में ही शासन किया। परंतु इसके साथ ही मुस्लिम उलेमाओं और उनसे प्रभावित समुदायों तथा सूफी गुटों ने हिन्दुओं के साथ सदा छल किया और समय-समय पर अचानक धोखाधड़ी से भरी हुई मारकाट करते रहे और दबाव बनाते रहे तथा झटके में बलपूर्वक और लोभपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान भी बनाते रहे। अतः उनकी वंचना और विश्वासघात का भी हिन्दू राजाआंे को अनुभव तो था ही। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों के जो संधि हिन्दू राजाआंे ने की उसमें अपने-अपने राज्य की रक्षा का ही मुख्य ध्यान रहा। 18वीं शताब्दी ईस्वी तक यूरोप में भी एक भी राष्ट्रराज्य नहीं था। इसलिये भारत में भी राष्ट्र राज्य की कल्पना हो ही कैसे सकती थी। परंतु राष्ट्र की वैदिक अवधारणा की निरंतरता में ब्राह्मणों और राजधर्म के पालक राजाओं तथा धर्मपोषक वैश्यांे सहित संपूर्ण धर्मेनिष्ठ प्रजा अपनी आध्यात्मिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दिनचर्या और गतिविधियों तथा संगठित पुरूषार्थों के द्वारा राष्ट्र का पोषण करती रही थी। शास्त्रों तथा इतिहास और पुराण की कथाओं के नेटवर्क के द्वारा और मंिदिरों तथा उपासना पद्धतियों के विराट तंत्र के द्वारा भारतीय राष्ट्रीयत निरंतर समृद्ध रही और अत्याचारी मुस्लिम नवाब इसमें छोटे-मोटे राक्षसों और दस्यु दलों जैसी बाधायें ही डाल सके। अतः अंग्रेजों से भी उसी अनुभव के आधार पर हिन्दू राजाओं ने सहायक संधियां कीं। इन राजाओं के सहयोग से अंग्रेजों ने भारत की सबसे बड़ी मराठा शक्ति को बुरी तरह रौंद दिया और सिक्खों तथा राजपूतों सहित शक्तिशाली समूहों को संधि की स्थिति में ला दिया।
इसके साथ ही व्यवस्थित रूप से भारतीय शिक्षा के विनाश का महाअभियान चलाया गया। एक ओर विद्या परंपरा से सर्वथा विहीन इंग्लैंड का शासक था और दूसरी ओर विद्या की विराट परंपरा का ही अभ्यस्त और उसी से परिचित हिन्दू राजा और रानियां थीं। जिन्होंने इंग्लैंड के प्रोपेगंडा को तथ्य मान लिया और अंग्रेजी शिक्षा के प्रति इतने सम्मोहित हुये कि वे लंदन जाकर बपतिस्मा लेने और नाईटहुड लेने को कूटनैतिक रस्म मात्र की तरह देखा और लपेट में आते गये। इसी के कारण उनका आंतरिक बल घटता चला गया और वे अधिकांशतः ओजविहीन हो गये। इस स्थिति का लाभ शासक अंग्रेजों ने उठाया और उन्होंने अपने द्वारा पोषित एक शक्तिशाली राजन्य वर्ग खड़ा करने का प्रयास किया। लोकमान्य तिलक और लाला लाजपतराय तथा विपिनचन्द्र पाल की मृत्यु एवं श्री अरविन्द के द्वारा राजनीति से विरक्त होने के बाद अंग्रेजों को सफलता मिलने लगी और उन्होंने गांधीजी तथा जवाहरलाल नेहरू आदि अपने द्वारा पोषित राजन्य वर्ग को ही राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रोपेगेट किया।
अंग्रेजी शिक्षा के असर से देशभक्त वीर युवकों और युवतियों के शक्तिशाली समूह तैयार हुये जिनसे अंग्रेज न केवल भारत में, अपितु स्वयं लंदन में और इंग्लैंड में थर-थर कांपते थे। इसलिये उन्होंने गांधी और नेहरू को व्यवस्थित ढंग से पोसा और बढ़ाया। देशभक्त वीर युवकों में अद्भुत वीरता और तेज था परन्तु ब्रिटिश शिक्षा के कारण वे राष्ट्र राज्य की नई उभर रही धारणा के प्रति सम्मोहित थे और उन्होंने राष्ट्र तथा राष्ट्रराज्य को कई बार एकाकार करके देखने का स्वभाव विकसित कर लिया था। इसके परिणामस्वरूप      धर्म तथा अध्यात्म चेतना भी उन्हें राजनीति का ही एक अंग दिखने लगी और उसकी उपेक्षा उनके लिये सामान्य बात हो गई। राष्ट्र की अपनी धारणा में उन्होंने हिन्दुओं में राजनैतिक चेतना का यूरो-ईसाई रूप पोषित करने का काम किया और हिन्दू राजनैतिक चेतना लगभग भुला दी गई। केवल हिन्दू राष्ट्रीयता का नाम ही लिया जाता रहा। वैसे भी, इसकी काट विद्या के स्तर पर ही हो सकती थी। परंतु ऐसी विद्या का एकमात्र बड़ा केन्द्र जो बना – काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, उसे भी तत्कालीन शिक्षा सचिव बटलर ने नेहरू और गांधी के सहयोग से बड़ी सीमा तक यूरो-ईसाई बुद्धि के दबाव में ले लिया।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में अंतिम बड़े भारतीय राजनेता हुये जिनको भारत के राजनैतिक पटल से हटाने में गांधी और नेहरू की सहायता से अंग्रेज सफल हुये और द्वितीय महायुद्ध में जर्मनी की पराजय की ऐतिहासिक घटना का भी इसमें योगदान रहा। मानों यह महाकाल की अज्ञात और अदृश्य इच्छा के सामने भारतीय राष्ट्रीयता की विवशता ही थी।
अंग्रेजों से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के विरूद्ध संधि में अनुचित शर्तें स्वीकार कर नेहरू गद्दी पर बैठे और अपने मुख्य ब्रिटिश भक्त प्रतिस्पर्धी मोहनदास करमचन्द गांधी को पटकनी देने मंे वे सफल हुये। अंग्रेजों के दबाव से उनके अनुगत रहे मोहनदास करमचन्द गांधी ने भी भारत राष्ट्र के भीतर ‘एनिमी स्टेट’ तथा ‘एलियन स्टेट’ खड़े करने में अपने भीषण शब्दजाल के माध्यम से तथा नित्य पलटती राजनीति के जरिये बड़ी मदद की तथा भारत के भीतर नेशन स्टेट के नाम पर एक एलियन स्टेट खड़ा कर दिया गया और  उसके पूर्व और पश्चिम में पाकिस्तान के नाम से दो बड़े एनिमी स्टेट भी खड़े कर दिये गये। हिन्दुओं से भयभीत नेहरू ने हिन्दुओं के विखण्डन के लिये अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये, भौगोलिक सीमा को और    अधिक घटाने के लिये तिब्बत को माओ-जे-दुंग द्वारा निगलने में सेना और खाद्यान्न तथा उपकरण भेजकर सहायता की जो खुला देशद्रोह है और साथ ही भारतीय ज्ञान परंपरा को नये विश्वविद्यालयों से पूर्णतः निष्कासित कर संस्कार और ज्ञान दोनों की परंपराओं की जड़ों में मठ्ठा डालने का कार्य सम्पन्न किया।
संस्कारांे के स्तर पर ब्राह्मणों के द्वारा जीवन्त और राजाओं तथा महाजनों के द्वारा पोषित एवं शेष समाज के द्वारा पूरी तरह आत्मसात हिन्दुत्व इस भयानक षड़यंत्र के सम्मुख भी जीवित बच सका। परंतु ज्ञान और विवेक के स्तर पर कुंठा और मतिभ्रम बढ़ते गये। 15 अगस्त 1947 के बाद हिन्दू समाज के सभी      अधिकार छीने लिये गये, हिन्दू सामाजिक और सांस्कृतिक इकाइयों को शक्तिहीन और अप्रतिष्ठित कर दिया  गया- जाति, खाप तथा धार्मिक आचार्य सभी को प्रतिष्ठाशून्य बना डाला गया।
ऐसी स्थिति में लगभग अर्धमृत दशा में से अधमरे से हिन्दू संगठन पैदा हुये जिनमें समकालीन पदावली में अपनी बात कहने का सामर्थ्य तक नहीं है और जो हिन्दूद्रोही नेताओं की कृपा किसी न किसी रूप में प्राप्त करने के लिये विवश हैं। विद्या और तप के अभाव में उनमें आवश्यक आत्मबल और शौर्य दोनों का अभाव है।
यह है वर्तमान स्थिति का निदान।
ऐसे में राजनीति के क्षेत्र में धर्मपुरूषार्थ के आकांक्षी लोग क्या करें।
क्रमशः

नये राजनैतिक दल के गठन का प्रश्न: 2

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

सर्वप्रथम तो राजनीति के क्षेत्र में धर्म पुरूषार्थ के आकांक्षी लोगों को स्थिति का निदान भलीभांति स्मरण रखना चाहिये। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र उनके लिये बहुत बड़ा वरदान है, यह सदा स्मरण रखना चाहिये और किसी भी स्थिति में इस पर आंच अपनी ओर से नहीं आने देना चाहिये। क्योंकि कांग्रेस शासन में तथा अब भाजपा शासन में भी सेना और पुलिस पूरी तरह हिन्दू निरपेक्ष चित्त वाली बना दी गई है। अतः सेना के नेतृत्व में कोई हिन्दू शासन आने की संभावना निकट भविष्य में नहीं है। इसीलिये लोकतंत्र पर  ध्यान केन्द्रित रखना चाहिये।
दूसरी बात जो ध्यान में रखने की है, वह है भारत के वर्तमान छोटे हो चुके आकार की भी अन्य राष्ट्रों की तुलना में विराटता। यह अभी भी, बचा हुआ भारत भी, यूरोप के 34 राष्ट्रराज्यों के बराबर है। आकार में इससे बड़ा सोवियत संघ विघटित हो चुका है, चीन विघटित होने जा रहा है, ब्राजील और आस्ट्रेलिया तथा कनाडा कृत्रिम राष्ट्र राज्य हैं और भारत से उनकी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। एकमात्र बड़ा राष्ट्रराज्य जो ध्यान देने योग्य है, वह है संयुक्त राज्य अमेरिका जो ताकत का पुजारी है और अगर भारत अभी की तरह शक्तिशाली नेतृत्व वाला दिखा तो अमेरिका को एक हिन्दू भारत अपना परम मित्र नजर आयेगा। इसलिये मुख्य ध्यान यह देना है कि श्री नरेन्द्र मोदी या योगी आदित्यनाथ जैसों का नेतृत्व तब तक राष्ट्र में प्रतिष्ठित रहे, जब तक इनसे भी अधिक श्रेष्ठ धर्मनिष्ठ राष्ट्रीय राजपुरूष राजनीति के पटल पर नहीं उभरते। इसका अर्थ है कि नया राजनैतिक दल यदि बने भी तो उसे मुद्दों की बात उठानी चाहिये, नेतृत्व पर निरंतर प्रहार  नहीं करना चाहिये, मुद्दों के संदर्भ में समय-समय पर प्रहार तो करना ही होगा। इस प्रकार राजनैतिक चतुराई की अत्यधिक आवश्यकता है।
इसके साथ ही बचे हुये इस भारत की भी विराटता का स्मरण करके अपने प्रयत्नों की लघुता का ध्यान सदा रखना चाहिये और सदा भीतर से विनम्र रहना चाहिये। बाहर की विनम्रता तो कई बार लोक में उपहास या तिरस्कार का कारण बनती है। अतः बाहर तेजस्विता की संपूर्ण अभिव्यक्ति करते हुये आंतरिक विनय कभी नहीं छोड़नी चाहिये।
इस संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार राजनैतिक अभिक्रम प्रारंभ करना चाहिये। इसके लिये एक साथ कम से कम चार या पांच स्तरों पर काम आवश्यक है। पहला तो कार्यकर्ताओं के सघन प्रशिक्षण की पक्की व्यवस्था आवश्यक है। दूसरे ऐसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक मुद्दों को हाथ में लेना होगा जो तत्काल हिन्दू समाज का ध्यान आकर्षित करें। जैसे, मंदिरों पर से सरकारी नियंत्रण की समाप्ति, शिक्षा में भारतीय ज्ञान परंपरा की उपेक्षा का मुद्दा उठाकर उसकी प्रतिष्ठा का आग्रह, आरक्षण का विरोध आदि। परंतु इन मुद्दों को उठाते रहकर यह मूल मुद्दा उठाने की शक्ति संजोनी चाहिये कि जैसा संपूर्ण विश्व में प्रजातांत्रिक राष्ट्र राज्यों मंे स्थिति है, भारत में भी बहुसंख्यकों के धर्म को अधिकृत मान्यता एवं संरक्षण दिया जाना चाहिये। मुख्य कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण इस प्रकार से देना होगा कि वे किसी भी मुद्दे को अतिवाद तक न ले जायें और स्वयं अपनी तथा संगठन की हानि नहीं करें।
परंतु इन सबसे बढ़कर महत्व का मुद्दा कोष का है। अंग्रेजों से शांतिपूर्ण लंबी लड़ाई केवल इसलिये सहजता से चल पाई कि हमारे यहां संयुक्त परिवार थे और अपने घर का एक बच्चा धर्म कार्य के लिये देने की अत्यन्त प्राचीनकाल से परंपरा थी। जब इस बात की ओर ध्यान गया कि मीठी-मीठी और ऊंची-ऊंची बातें करने वाले वंचक, वचनभंगी, विश्वासघाती और छली तथा कपटी अंग्रेज वस्तुतः हमारे धर्म की जड़ों को ही कमजोर करना चाह रहे हैं, तब से उनको भगाने के लिये विविध मोर्चों पर अपने घर का एक युवक या युवती छोड़ देने को धर्म कार्य की उसी परंपरा का अंग ही माना गया।
परंतु कांग्रेस शासन में संयुक्त परिवारों को योजना पूर्वक तोड़ा गया और निष्प्रभावी बनाया गया। इसके लिये परिवार व्यवस्था की सभी मान्यताओं को छिन्न-भिन्न करने के लिये शिक्षा और संचार माध्यमों का सहारा लिया गया तथा विधिक स्तर पर केवल व्यक्ति (इनडिविजुअल) को मान्यता दी गई ताकि परिवार के सभी सदस्य व्यक्ति अपनी-अपनी स्वतंत्र अस्मिता के आग्रह के नाम पर परस्पर कलह करके परिवार को तोड़ते चले जायें। इस प्रकार पोषण का एक बड़ा आधार राजनीति के लिये अब अनुपस्थित है। ऐसे में धन का स्रोत क्या होगा? चंदा तो तब मिलेगा जब आप चंदा देने वाले का कुछ उपकार करने की स्थिति में हों अथवा जब आप धार्मिक कथा आदि के द्वारा उनका मन छू रहे हों। अतः धार्मिक कथायें और प्रवचन एक बड़ा आधार हो सकते हैं और उसकी नेटवर्किंग करनी चाहिये। साथ ही स्वयंसेवी संगठनों के रूप में वित्तीय ढंग से सक्षम हो सकने वाली इकाइयों की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। परंतु इसमें भी निकट अतीत का तथ्य सदा सामने रखना चाहिये। स्वामी रामदेव जी ने अपने स्वयंसेवी संगठन का बहुत बड़ा नेटवर्क तैयार किया परंतु उस दिशा में बड़ी सफलता मिलते ही शासक समूहों का ध्यान उन पर गया और उन पर दबाव बना दिया गया। अतः इन सब तथ्यों से सजग रहकर कार्यनीति बनानी होगी।
इन 75 वर्षों में एक बहुत महत्वपूर्ण घटना घटित हुई है। राष्ट्रभाव को सामने रखकर एक अत्यंत शक्तिशाली संगठन खड़ा हो गया है – ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’। यह स्पष्ट राजनैतिक आकांक्षाओं वाला संगठन है और किसी भी नये प्रयास को दबाने या बदनाम करने की कला में अत्यंत सजग लोग इसमें आ गये हैं। अतः आपके प्रयास के बढ़ते ही इसे आत्मसात करने या इसके बारे में मिथ्या प्रवाद फैलाने का काम वे लोग भी अवश्य करेंगे। कांग्रेस तो करेगी ही। अन्य लगुए भगुए भी पीछे नहीं रहेंगे।
वस्तुतः राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नामक संगठन अपने नाम से ही प्रचंड रजोगुणी क्रियाशीलता दर्शाता है। निश्चय ही, प्रार्थना, प्रातःस्मरण एवं विवेकानन्द केन्द्रं जैसे उपक्रम सत्व, प्रकाश एवं ज्ञान परक हैं, परंतु शेष इसके बीसों उपक्रम मुख्यतः रजोगुणी क्रियाशीलता वाले ही हैं। उनमें सत्व, प्रकाश, ज्ञान की उपेक्षा है। राष्ट्र की प्रज्ञा एवं धर्म की वृद्धि तथा रक्षण का ज्ञानात्मक उपक्रम इस संगठन ने स्वधर्म नहीं माना है। फलस्वरूप प्रारम्भ में व्यापक सांस्कृतिक लक्ष्य सामने रखकर किए गए कार्य अंतिम चरण में राजनैतिक आकांक्षाओं पर स्पष्ट केन्द्रित हैं। वर्तमान सरकार्यवाह द्वारा स्वयं को राइट-लेफ्ट की राजनैतिक पदावली से परिभाषित करने का प्रयास इसका लक्षण एवं प्रमाण है।
अपने संगठन-कौशल एवं राजनैतिक आकांक्षा के कारण ही संघ ने कांग्रेस द्वारा सर्वोदय वालों की सहायता से हिन्दुओं को बहलाने-भरमाने के लिए चलाए जा रहे गौरक्षा आंदोलन का वैसे ही अपहरण कर लिया, जैसे कम्युनिस्टों और ईसाइयों ने भारतीय बौद्धों के उभार के आंदोलन का अपहरण कर लिया।
न तो प्रथम से गौरक्षा की सिद्धि हुई और न ही द्वितीय से बौद्ध धर्म को नई ऊर्जा मिली, केवल उन-उन संगठनों-संघ परिवार एवं कम्युनिस्ट तथा ईसाई चर्च – की शक्ति बढ़ी।
इसी प्रकार कांग्रेस संरक्षित रामलला विराजमान के अभियान को भी बाद में संघ ने विराट आंदोलन बना दिया और अब राममंदिर के घोषित विरोधी उस मंदिर से स्वयं को जोड़कर संघ परिवार के पुरूषार्थ का फल छीनना चाहते हैं। इस तरह राजनैतिक उठापटक का यह खेल चलता ही रहता है।
हिन्दू महासभा एवं रामराज्य परिषद की चमक को संघ प्रेरित जनसंघ ने खींच लिया। अन्ना आंदोलन को अंतिम चरण में संघ ने ही शक्ति दी और केजरीवाल ने उससे अपनी चमक बढ़ा ली तथा आंदोलन को मार दिया।
अतः नया राजनैतिक दल बनते ही एक ओर कांग्रेस उसे बदनाम करेगी, दूसरी ओर संघ के कई लोग भी उस बदनामी को हवा देकर राजनैतिक आनंद लेंगे। यह सदा ध्यान में रखकर, पूरी तैयारी के बाद ही, नया दल बनाने की सोचना चाहिए।
आज जो राष्ट्र की स्थिति है, उसमें कांग्रेस की वास्तविक उत्तराधिकारी भाजपा बन चुकी है और कांग्रेस पूरी तरह ईसाई राजनीति की सेवक पार्टी बन चुकी है जो हिन्दुत्व को कमजोर करने के लिये संकल्पित है और इसके लिये मुस्लिम उग्रवाद और अलगाववाद का भी खुलकर पोषण करती है तथा ईसाइयत के पोषण के प्रयोजन से संचालित दलितवाद का भी पोषण करती है। सपा, बसपा आदि अनेक दल राष्ट्र की दृष्टि से वस्तुतः केवल राष्ट्रकार्य में विघ्न की तरह हैं। यही स्थिति आप और तृणमूल पार्टियों की है। इसलिये बहुसंख्यक हिन्दू समाज अपने विवेक के कारण निश्चित रूप से संघ एवं भाजपा का ही रक्षण एवं पोषण करेगा। इसलिये संघ एवं भाजपा पर आक्रमण नये राजनैतिक दल की भ्रूण हत्या का कारण बन जायेगा। अतः ऐसी मूढ़ता से बचना आवश्यक है। मुद्दों को लेकर ही प्रहार होते रहना चाहिये।
इन सब तथ्यों के संदर्भ में बलाबल का विचार कर नया राजनैतिक दल बनाना चाहिये और इस तैयारी में रहना चाहिये कि या तो आप भाजपा को बदलने को विवश कर देंगे अर्थात् उसे हिन्दुत्वनिष्ठ और धर्मनिष्ठ बनने को विवश कर देगें या फिर एक नये व्यापक धर्मनिष्ठ हिन्दू मोर्चे के प्रेरक और सहायक बनेंगे।
इस सबके लिये विद्या केन्द्रों एवं प्रशिक्षण केन्द्रों का होना आवश्यक है। उसके बिना कोई भी प्रयास टिकेगा नहीं। इसके साथ ही धार्मिक अभियानों के लिये आवश्यक संगीत, नृत्य एवं नाट्य की मंडलियां तैयार करना और उनको लोकप्रिय बनाकर उनके द्वारा अपेक्षित संदेश का प्रसार आवश्यक होगा। अन्य उपाय कार्य के साथ-साथ स्वतः आते जाते हैं और कार्यकर्ताओं का फीडबैक भी मिलता जाता है।
जहाँ तक अर्थव्यवस्था का सवाल है, वर्तमान अर्थव्यवस्था अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा नियंत्रित है और भारत सरकार उनके नियंत्रण में है। इसलिये प्रोपेगंडा के लिये भले ही आर्थिक मुद्दे उठाये जायें परंतु वस्तुतः स्वतंत्र आर्थिक नीति भारत का शासन अपनाये, ऐसी कोई स्थिति नहीं है।
इसी प्रकार बेरोजगारी का कोई भी समाधान राज्य की वर्तमान संरचना में नहीं है। इसलिये बेरोजगारी के सवाल केा उठाकर असंतोष का उभार और उससे समर्थन जुटाना तो संभव है परंतु वह समर्थन कब तक टिक पायेगा, इस पर भारी संदेह है क्योंकि राज्य और वर्तमान राजनीति के पास इसका कोई समाधान नहीं है और राज्य के ढांचे से लाभान्वित हो रहे समूह अर्थात मंत्री, अफसर और टेक्नोक्रेट इस ढांचे की सेवा में तत्पर रहकर वस्तुतः रोजगार के स्वतंत्र अवसरों को एक सीमा से अधिक बढ़ने नहीं देंगे। क्योंकि तब उन्हें बेरोजगार लोगों को दबाने की सुविधा नहीं रह पायेगी और यह आज की राजनीति का एक बड़ा आधार है। राजनीति के नाम पर जलसा, जुलूस, भीड़ और सभायें बेरोजगारों के मोबलाईजेशन के बिना हो नहीं पाते। इसलिये बेरोजगारी में संपूर्ण वर्तमान राजनीति का निहित स्वार्थ है और इसीलिये बेरोजगारी को हटाने के दावे मे ंभी हर दल का निहित स्वार्थ है। यह ऐसा दावा है, जिस पर उन्हें कभी भी चलना नहीं है केवल दावा करते रहना है। जब 60 से अधिक वर्षों तक बेरोजगारी और गरीबी के ही प्रश्न पर सत्ता में बनी रह सकी कांग्रेस पार्टी का वर्तमान नेतृत्व पूरी निर्लज्जता से और ढ़िढाई से आज भी बेरोजगारी और गरीबी के मुद्दे हवा में उछाल सकता है और इसके आधार पर समर्थन भी जुटा सकता है तो इन मुद्दों की ताकत और इनको जीवित रखने में राजनैतिक दलों का निहित स्वार्थ स्पष्ट है। इसलिये शासकीय नीतियों और कदमों के द्वारा बेरोजगारी हटाने का कोई भी दावा नये राजनैतिक दल को नहीं करना चाहिये। उसके स्थान पर प्राप्त परिस्थिति में ही छोटे-छोटे समूह बनाकर न्यूनतम सामर्थ्य संचित करने पर ध्यान देना चाहिये।
संपूर्ण वर्तमान राजनीति पापमय आवेगों (ब्लैक पैशंस) को मोबिलाइज करने पर टिकी है। ऐसी स्थिति  में लोकप्रियता के लिये क्या कदम उठाये जायें, यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। नये राजनैतिक दल को धर्ममय भावनाओं और आवेगों को मोबिलाइज करने पर ध्यान देना होगा। इसके व्यवहारिक रूपों पर समय-समय पर विचार होता रह सकता है।

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

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