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लेखक : राजेश आर्य, गुजरात
रोमन धर्म – एक रूपरेखा :
पढनें में यह थोडा विचित्र लगेगा, पर हम हमारे धर्म विषयक वर्तमान सभी विचारों को एक तरफ रख कर ही रोमन संसार में धर्म का स्वरूप और कार्य ठीक तरह से समझ सकते है। आज हमारी धर्म (मजहब या रिलीजन) की क्या अवधारणा है? प्रायः हम हमारे धर्म को पवित्र शास्त्र (वेद, बाईबल, कुरआन, आदि), संगठन या पदानुक्रम (जैसे कि विभिन्न ईसाई सम्प्रदाय, पोप, बिशप, पादरी, आदि), कर्म और उनके फल, परलोक में विश्वास, विभिन्न पूजा या उपासना पद्धति, नैतिक प्रतिबद्धता, मजहबी मान्यता (जैसे कि जीसस परमेश्वर का एकमात्र पुत्र है, जीसस ने हमारे पापों के लिए स्वयं का बलीदान दिया, आदि), धर्म और राज्य का अलगाव, आदि के संदर्भ में समझते है, पर एकमात्र यहूदी मत के अपवाद को छोड़कर, रोमन संसार के किसी भी धर्म पर इनमें से एक भी बिंदु लागु नहीं होता था!
धार्मिक मान्यताओं, कर्मकांड़ो और आचरण पर व्यक्ति का मार्गदर्शन करने के लिए रोमन धर्म कभी किसी ‘पवित्र शास्त्र’ पर केंद्रित नहीं थे। अधिकतर लोगों को परलोक में दृढ़ विश्वास नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि परलोक में विश्वास रखने वाले लोग इस विश्वास के कारण अधिक धार्मिक होते थे। धर्म और राज्य में अलगाव जैसी तो कोई चीज ही नहीं थी। इसके विपरीत, क्योंकि देवता ही राज्य को महान बनाते थे, इसलिए राज्य ही विभिन्न देवताओं की पूजा को प्रोत्साहित और प्रायोजित करता था। अंत में, मूर्तिपूजक रोमन संसार में कोई यह तर्क नहीं देता था कि यदि आप एक देवता की पूजा करते हैं, तो आप दूसरे किसी देवता की पूजा नहीं कर सकते हैं। वर्तमान में प्रचलित विभिन्न धर्मों, मजहबों और पंथों से इतने भिन्न धर्मों की थाह हम कैसे लगा सकते हैं? क्योंकि हम पहले से जो कुछ जानते हैं उसके प्रकाश में ही नया कुछ समझ सकते हैं, इसलिए अवार्चीन और प्राचीन मान्यताओं के संदर्भ में रोमन धर्म को समझने का प्रयास करेंगे।
एकेश्वरवाद और बहुदेववाद :
यहूदी मत, ईसाईयत और इस्लाम प्राय: एकेश्वरवादी (एक दिव्य सत्ता में विश्वास करने वाले) माने जाते है। परमेश्वर की सत्ता में विश्वास करने वाले प्रायः यही सोचते है कि (यदि किसी परमेश्वर का अस्तित्व है तो) वह एक और केवल एक ही हो सकता है। प्राचीन रोमन संसार के लोगों के लिए एकेश्वरवाद का विचार ही बेहूदा था; इसका कोई अर्थ ही नहीं था। उस समय हर कोई जानता था कि देवता कई होते है – विभिन्न प्रकार के और विभिन्न स्वरूप के, विभिन्न कार्यों के लिए और खास स्थानों के, कृषि के और वनों के देवता, नदियों और झरनों के देवता, घर के और गांव के देवता, फसल और मौसम के देवता, रोगोपचार और प्रजनन के देवता, युद्ध और प्यार के देवता!
रोमन संसार एक से अधिक देवताओं के अस्तित्व को सहजता से स्वीकार करता था। ऐसा भी नहीं था कि हर कोई सभी देवताओं की पूजा करता था। इसके विपरीत, कई देवता किसी स्थान या परिवार विशेष के स्थानिक देवता थे। कभी-कभी विजेता अपने विजीत गांवों, नगरों या देशों के देवताओं का भी स्वीकार कर लेता था और विजीत प्रजा भी विजेता के देवताओं का स्वीकार कर लेती थी, या अपने देवताओं को विजेता के देवताओं का नाम दे देती थी। निस्संदेह, रोमन संसार में “महान देवता” भी थे, जो पूरे भूमध्यसागरिय प्रदेशों में पूजे जाते थे। महाकवि होमर और हेसिओड के महाकाव्यों में इन देवताओं का नामोल्लेख किया गया है।
एक सामान्य व्यक्ति महान देवताओं और उसके अपने स्थानिक देवताओं के बारे में क्या सोचती था? इस विषय पर शोधकार्य करने वाले विद्वानों के अनुसार, रोमन संसार में देवलोक को एक प्रकार के सत्ता के पिरामिड के रूप में देखा जाता था, जिसमें सबसे सामर्थ्यवान देवता सबसे ऊपर होते थे, और कम सामर्थ्यवान देवता सबसे नीचे होते थे। उच्च-शिक्षित चिंतकों, दार्शनिकों और उनके शिष्यों का मानना था कि पिरामिड के शीर्ष पर एक सर्वशक्तिमान देवता ज्यूपिटर (बृहस्पति) या ग्रीकों का ज़ीउस माना जाता था; यह पूरे संसार का देवता था। पिरामिड में इसके नीचे साम्राज्य के विभिन्न प्रांतों में पूजे जाने वाले शक्तिशाली और प्रशंसनीय देवताओं – नेप्च्यून, जूनो, विनस, डायना, बाचुस, आदि – का समावेश होता था। इनमें से कई देवता मानव समाज के महत्वपूर्ण कार्यों से सम्बंधित थे। यथा, मार्स (मंगल) युद्ध का देवता था, विनस प्यार की देवी थी, और बाचुस नशे का देवता था। इनके नीचे सीमित सामर्थ्य वाले छोटे-मोटे देवता आते थे, जिनमें स्थानिक देवताओं का भी समावेश होता था, फिर भी ये देवता मनुष्यों से तो कई गुना अधिक सामर्थ्यवान होते थे। वे सामान्य मनुष्यों के मामलों से सीधे संपर्क में रहते थे। इसके अलावा, अधिकांश लोगों के अपने परिवार के देवता थे। उदाहरण के लिए, हर एक परिवार पिनेट्स (penates) और लेर्स (lares) की पूजा करता था; पिनेट्स अन्न-भण्डार और खाद्य पदार्थों की निगरानी रखते थे और लेर्स घर और निवासियों की रक्षा करते थे। हर परिवार का एक कूलदेवता भी होता था, जिसे ‘जिनीयस’ कहा जाता था। ऐसा माना जाता था कि वह परिवार के मुखिया में रहता था!
अंत में, उस दिव्य पिरामिड के सबसे निचले स्तर पर वे दैवीय सत्ताएं आती थी, जो मनुष्यों और देवताओं के बीच सेतु का काम करती थी। इनमें उन मनुष्यों (प्रायः महान दार्शनिकों या योद्धाओं) का समावेश होता था, जिन पर उनकी मृत्यु के बाद देवत्व का आरोपण (divinized, deified) किया गया था। इनमें उन डेमीगोड्स (demigods) का भी समावेश होता था, जो किसी देवता/देवी और मनुष्य के संसर्ग से जन्मे थे। ग्रीक और रोमन मिथक-कथाएं और लोककथाएं ऐसे डेमीगोड्स से भरी पड़ी है। यह अंतिम श्रेणी हमारे लिए विशेष महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें अतिमानवीय शक्ति वाले कुछ खास मनुष्यों का समावेश होता था। पायथागोरस जैसे दार्शनिक, हेराक्लेस जैसे पहलवान, अलेक्जांडर जैसे सम्राटों का समावेश इस श्रेणी में होता था। कुछ लोग रोमन सम्राटों को भी इस श्रेणी में रखते थे। उसे सर्वशक्तिमान देवता तो नहीं कहा जा सकता, पर साम्राज्य की सामान्य प्रजा कि दृष्टि में वह बहुत शक्तिशाली और प्रशंसा और पूजा के योग्य होता था। इस श्रेणी में उन तथाकथित “परमेश्वर के पुत्रों” का भी समावेश होता था जिन्होंने अपनी अलौकिक शिक्षाओं और तथाकथित चमत्कारों से अपनी दिव्यता का प्रदर्शन किया था। अनेक देवताओं मे विश्वास करने वाले एक सामान्य मूर्तिपूजक रोमन के लिए जीसस और उसके चमत्कारों को समझना कठिन नहीं था। वह मानता था कि जीसस भी पृथ्वी पर उतरा एक दिव्य पुरुष था।
इहलोक और परलोक :
वर्तमान में असंख्य लोगों के धार्मिक जीवन परलोक में विश्वास से परिचालित होते है। परलोक में अनन्त यातना के डर से या अनन्त परमानंद प्राप्त करने की इच्छा से वे धर्म की शरण में आते है। ज्यादातर सामान्य रोमन ऐसा स्वप्न में भी नहीं सोचते थे! हाल के शोधकार्यों ने पाया है कि प्राचीन रोमन साम्राज्य में कुछ लोग परलोक में विश्वास करते थे, पर ज्यादातर लोग इसमें विश्वास नहीं करते थे। रोमनों के समाधि-पत्थरों पर छ: अक्षरों का [R.I.P. जैसा] एक संक्षिप्त रूप प्रायः पाया जाता था, जिसका लैटिन में अर्थ होता था, “मैं नहीं था, मैं नहीं हूँ, मुझे परवाह नहीं है।” (I was not, I am not, I care not!) फिर भी लगभग सभी लोग अभी और इस लोक में अपने जीवन की सुरक्षा के लिए देवताओं में विश्वास करते थे और धार्मिक कर्मकांडों में सम्मिलित होते थे!
उस काल में रोगों को रोकने या निवारण करने के लिए आधुनिक मेडिकल सुविधाएं या शल्य-चिकित्सा के तरीके उपलब्ध नहीं थे। दांत का एक फोड़ा भी अक्सर घातक सिद्ध होता था। महिलाएं बहुधा प्रसवपीड़ा में ही मर जाती थी और सामान्य सी शल्य-चिकित्सा भी भयंकर सिद्ध हो सकती थी। कृषि की आधुनिक पद्धतियाँ नहीं थी और सिंचाई की सुविधाएं सीमित थी; एक सामान्य से अकाल के कारण पुरे गांव को अगले साल तक भुखा रहना पड़ता था। परिवहन की आधुनिक सुविधाएं नहीं थी। सामान्य लोगों के जीवन युद्ध, भुखमरी, रोग और गरीबी से त्रस्त रहते थे। प्रकृति के सामने लाचार विश्व में, देवता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है: वे फसलों के लिए वर्षा की और परिवार के लिए बच्चों की व्यवस्था करते है; युद्ध में विजय दिलाते है और शांतिकाल में समृद्धि लाते है; बीमार को चंगा करते है और दबे-कुचलों को दिलासा देते है; वे सुरक्षा, प्यार और नई आशा देते है। ये सब चीजें सामान्य लोगों के सामर्थ्य से बाहर होती है; इसे केवल देवता ही दे सकते है।
क्रियाकाण्ड और मजहबी मान्यता :
व्यक्ति के इस जीवन की जरुरतों को पूरी करने के लिए उन शक्तिशाली देवताओं को कैसे प्रसन्न या प्रभावित किए जाते थे? देवता उनके बारे में किसी के विश्वासों से प्रभावित नहीं होते थे, न ही उन्हें कोई अपेक्षा थी कि लोग उनके बारे में सत्य जाने और उस सत्य का स्वीकार करें। मजहबी सिद्धांतों (doctrines) की रोमन धर्मों में लगभग कोई भूमिका नहीं थी; लोग क्या मानते थे इसका कोई महत्व नहीं था! लोग देवताओं के प्रति अपने समर्पण या निष्ठा का प्रदर्शन कैसे करते थे यही महत्वपूर्ण था। कुछ खास कर्मकांडों (cultic acts) से उनकी पूजा की जाए, यही देवताओं की यही अपेक्षा रहती थी। (आंग्ल शब्द ‘cult’ एक लैटिन शब्द से बना है जिसका अर्थ होता था ‘देखभाल’। इस तरह, cultus deorum की प्राचीन अवधारणा का अर्थ होता था ‘देवताओं की देखभाल’, agriculture का अर्थ होता था ‘खेतों की देखभाल’, आदि।)
तो व्यक्ति देवताओं की देखभाल कैसे करता था? देवताओं का अनुग्रह वह कैसे प्राप्त करता था? प्रार्थना और बलिदान से। देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए दैनिक कर्मकांड में प्रार्थना या भोजन से पूर्व परिवार के देवताओं के सम्मान में थोडी सी शराब उंडेलना, आदि का समावेश होता था। खास त्योहारों पर उपासक या उपासकों का समूह स्वयं या पूजारी के माध्यम से जानवर की चढ़ाता था। बलि किए गए जानवर के अखाद्य हिस्से देवता के समक्ष जला दिए जाते थे; बाकी के हिस्सों को पकाकर उपासक खा जाते थे। पूरे साम्राज्य में, राज्य देवताओं की पूजा के लिए विशेष त्योहार के दिन अलग रखे गए थे। ये वही सामर्थ्यवान देवता थे जिन्होनें रोम पर विशेष अनुग्रह कर उसे महान बनाया था। उनसे निरंतर कृपा और संरक्षण प्राप्त करने के लिए लोग उनकी पूजा करते थे। प्रति वर्ष इन अवसरों पर राजधानी रोम में प्राचीन परम्पराओं के जानकार पूजारिओं द्वारा विशेष अनुष्ठान किए जाते थे और बलिदान के कर्मकांड और प्रार्थनाओं के बाद उत्सव का आयोजन किया जाता था। रोमन आम तौर पर मानते थे कि यदि ये विधियां या अनुष्ठान काम करते थे, तो ये सही होने चाहिए और उन्हें चालु रखा जाना चाहिए। ये काम करते थे यह रोम के वैभव और ताकत से ही स्पष्ट था।
इसके अतिरिक्त, देवताओं ने किसी खास कर्मकांड या अनुष्ठान का स्वीकार किया या नहीं, यह जानना भी सम्भव था। विशेष रूप से प्रशिक्षित पुजारी बलि किए गए पशु की अंतड़ियों को पढकर बता सकता था कि देवता ने बलि का स्वीकार किया है या नहीं। यदि अंतड़ियां सही या पूर्ण नहीं पायी जाती (यदि वे निरोग, योग्य आकार की, या योग्य जगह में नहीं होती) तो पुनः बलिदान करना पड़ता था। यह बताता है कि रोमन धर्म में देवताओं के पास भी मनुष्यों के साथ संवाद करने के विशेष तरीके थे! ऑगर (augur) नाम से पुकारे जाने वाले रोमन पूजारी पक्षियों की उड़ान या खाने की आदतों का अभ्यास कर बता सकते थे कि देवता राज्य की किसी भावी योजना के पक्ष में हैं या नहीं। देवताओं से निजी मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए ऑरेकल्स (oracles) नामक विशेष पवित्र स्थान होते थे, जहां अपने भविष्य के बारे में चिंतित लोग देवता के समक्ष अपनी समस्या प्रस्तुत करने जाते थे। देवता की पुजारिन समाधि अवस्था में प्रवेश कर दिव्य आत्मा से ओतप्रोत हो जाती और देवता की ओर से समाधान प्रस्तुत करती थी। कभी-कभी देवता वज्रपात या स्वप्न जैसे अधिक प्राकृतिक माध्यमों से संवाद करते थे। इस तरह, प्राचीन रोमन संसार में दिव्य और मनुष्य लोक के मध्य संवाद या सम्पर्क होता था। देवता स्वप्नों, ऑरेकल्स या प्राकृतिक संकेतों के माध्यम से मनुष्यों से संवाद करते थे, और मनुष्य देवताओं की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना और बलिदान से उनकी सेवा या पूजा करते थे।
धर्म और राज्य :
रोमन संसार में धर्म के पालन और राज्य के कार्य के बीच कोई विभाजन रेखा नहीं थी। सैद्धांतिक रूप से राज्य और धर्म दोनों मनुष्य के जीवन को समृद्ध, अर्थपूर्ण और सुखी बनाने के एक ही उद्देश्य से कार्य करते थे। देवता शांति और समृद्धि लाते थे और राज्य को महान बनाते थे। बदले में, राज्य देवताओं की पूजा को प्रोत्साहित और प्रायोजित करता था। इसी कारण रोमन साम्राज्य में राज्य के पूजारियों की नियुक्तियाँ राजनीतिक तरीके से की जाती थी। ये पूजारी सीनेटर और बड़े-बड़े अधिकारी बन सकते थे। महान सैन्य विजयों के कारण मंदिर देवताओं को समर्पित किए जाते थे, मंदिर के कर्मचारियों की आपूर्ति राज्य करता था, और प्रशासन उत्सवों और समारोहों पर देखरेख रखता था। सम्राट देवपूजा को प्रोत्साहित करता था, और साम्राज्य के कुछ हिस्सों में सम्राट को भी ‘दैवीय’ माना जाता था। प्रारम्भ में, सम्राटों की मृत्यु के बाद और राज्य द्वारा उन पर देवत्व का आरोपण (deification) करने के बाद ही उनकी पूजा की जाती थी। बाद में रोम से बाहर, साम्राज्य के “उद्धारक” के रूप में जीवित पराक्रमी सम्राटों की पूजा (emperor cult) की परम्परा शुरु हो गई थी। कुछ सम्राटों ने इस परम्परा को हतोत्साहित किया, परंतुं प्रांतों के अधिकारी इसे प्रोत्साहित करते थे। इस तरह, जब पॉल ईसाईयत का प्रचार करने एशीया मायनर (तूर्की) पहुंचा तब वहां सम्राट-पूजा का प्रचलन हो चूका था। दूसरी शताब्दी का अंत आते-आते पूरे रोमन साम्राज्य के शहरों में उत्सवों का आयोजन किया जाता था, जिसमें सम्राट या उसके कूलदेवता की ओर से पशुओं के बलिदान दिए जाते थे। इस प्रकार की पूजा के कुछ राजनीतिक निहितार्थ भी थे। देवता प्रत्यक्ष रूप से राज्य में शामिल होते थे इस मान्यता ने साम्राज्य में शांति बनाए रखने में मदद की थी। कोई व्यक्ति ताकतवर मनुष्य के विरुद्ध तो विद्रोह कर सकता है, परंतु देवता के विरुद्ध कौन हथियार उठा सकता है?
सहिष्णुता – असहिष्णुता :
प्रारंभिक तीन शताब्दियों के दौरान रोमन साम्राज्य के कुछ हिस्सों में कभी-कभी रोमन अधिकारियों द्वारा सताये गए ईसाइयों के दुर्भाग्यपूर्ण अनुभव के कारण, आज बहुत से लोगों के मन में यह धारणा बन गई है कि धर्म के मामले में रोमन कुल मिलाकर असहिष्णु थे। वास्तव में यहा धारणा बिलकुल निराधार है; इससे अधिक गलत और कोई धारणा हो ही नहीं सकती। ईसाई लोग रोमन देवताओं के समक्ष सम्राट के लिए पशुबलि चढ़ाने के लिए तैयार नहीं होते थे। इस इनकार को राजनीतिक तौर पर देखा जाता था; इसे राज्य की शक्ति और परम्परा तथा देवताओं के सर्वसामर्थ्य की खुली अवहेलना के रूप में देखा जाता था। क्योंकि उस समय सब जानते थे कि पूजा के योग्य बहुत सारे देवता होते हैं, इसलिए बलिदान आदि धार्मिक कृत्यों में भाग लेने से इनकार करने का कोई मतलब नहीं था।
सहिष्णुता प्राचीन ग्रेको-रोमन धर्म के महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक था। ईसाईयत का उद्भव, विकास और फैलाव भी रोमन साम्राज्य में हुआ था, पर बाद में उसके के कई असहिष्णु रूप भी अस्तित्व में आए। ईसाईयत के उन असहिष्णु रूपों के विपरीत, साम्राज्य के अन्य धर्म एक दूसरे के प्रति बिलकुल सहिष्णु होते थे। सभी देवता पूजा के योग्य माने जाते थे। जब लोग किसी नई जगह की मुलाकात लेते थे या वहाँ स्थानांतर करते थे तो वे प्रायः अपने देवताओं के साथ-साथ वहाँ के देवताओं को भी स्वीकार कर उनकी पूजा करने लगते थे। रोमन धर्मों में ‘केवल मेरे देवता सच्चे है; तुम्हारे झुठे है, इसलिए तुम्हें मेरे देवताओं को मानना पड़ेगा’ ऐसी किसी भावना का कोई स्थान नहीं था। रोमन साम्राज्य में लगभग सब लोग धार्मिक क्रियाओं में भाग लेते थे, और यहूदी मत के अपवाद को छोड़कर, साम्राज्य में सभी धर्म बहुदेववादी थे। उनमें से कोई एकमात्र सच्चा धर्म होने का दावा नहीं करता था। उन धर्मों में कोई ‘परमेश्वर का एकमात्र पुत्र’ या ‘अंतिम दूत’ होने का दावा नहीं करता था। इस तरह, जिस धार्मिक वातावरण में ईसाईयत का उद्भव हुआ वह हमारे वर्तमान धार्मिक वातावरण से बिल्कुल भिन्न था।
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लेखक : राजेश आर्य, गुजरात (03.10.2022)
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