Shadow

भगवा सुनामी

उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत ने पूरे देश में संदेश दिया है कि अब धर्म निरपेक्षता के नाम पर देश को ठगने वाले राजनैतिक दलों का काला चेहरा जनता के सामने आ चुका है। अब न तो कोरे दिखावे चलने वाले हैं और न सेकुलर छवि के नाम पर बहुसंख्यकों का शोषण। अब न राजकुमार और राजकुमारी की खुमारी जनता पर चढऩे वाली है और न ही समाजवादी विरासत की परंपरा। न खुद को देवी कहलाने वाली धन-पशु से युवा को लगाव है न ही जाटों के स्वयंभू नेता दिखाने वाले सत्ता लालची की। अब आरोप-प्रत्यारोप का ज़माना जा चुका है। स्पष्टवादी और दो टूक को जनता पसंद करती है। जाति की राजनीति तो उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों ने खत्म कर दी है। धर्म की राजनीति खत्म होगी या नहीं यह योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व की सरकार की नीतियां तय करेंगी। अब यह देखना रोचक होगा कि भाजपा सबका साथ सबका विकास भगवे रंग के अंतर्गत करेगी या अल्पसंख्यकों के भीतर से भगवा ब्रिगेड का भय खत्म होगा। विकास के रास्ते पर पिछड़ा दिखता उत्तर प्रदेश अब केसरिया रंग में रंगने के बाद कितना विकास कर पायेगा? इन सब विषयों को विश्लेषित करता विशेष संवाददाता अमित त्यागी का एक लेख। 

उत्तर प्रदेश का सिर्फ राजनैतिक महत्व नहीं है बल्कि यह एक ऐसा प्रदेश है जो देश की अर्थव्यवस्था में भी एक बड़ा योगदान रखता है। आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश देश के उन्नत प्रदेशों में गिना जाता था। उस समय उत्तर प्रदेश इतना पिछड़ा नहीं था। 1951 में उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय लगभग बराबर (90 प्रतिशत) थी। वर्तमान में यह राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय के आधे से भी कम (लगभग 40 प्रतिशत) है। 1991-92 के दौर में जब देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तब बहुत से पिछड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश से आगे निकल गए। उत्तर प्रदेश को अस्थिर और क्षेत्रीय दलों की सरकारों ने विकास के रास्ते पर पीछे धकेल दिया। इस दौरान रहीं सपा, बसपा और भाजपा की सरकारें सभी क्षेत्रीय सरकारें ही थीं क्योंकि उस दौरान भाजपा राष्ट्रीय परिदृश्य में दिखती तो ज़रूर थी पर उत्तर प्रदेश में उसकी हैसियत एक क्षेत्रीय दल से ज़्यादा की नहीं थी। 2012 के विधानसभा चुनावों तक भाजपा उत्तरप्रदेश में तीसरे नंबर का दल थी।

उत्तर प्रदेश के इस पिछड़ेपन की प्रमुख वजह उत्तर प्रदेश की वह सामाजिक एवं भौगोलिक परिस्थितियां रहीं जिन्होंने उत्तर प्रदेश को जाति और धर्म के चंगुल में फांस दिया। सबसे पहले एक मूर्खतापूर्ण हरकत राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री रहते की जिसमें उन्होंने शाहबानो प्रकरण के बाद अति महत्वाकांक्षी होते हुये राम मंदिर विवाद को तूल दिया। राजीव गांधी का एक भ्रमित आंकलन था कि शाहबानो प्रकरण के बाद कानून पास करने के कारण मुस्लिम वोट तो उनको मिल ही रहे हैं। राम मंदिर का ताला खोलकर हिन्दू वोट भी उन्हें मिल जाएंगे। राजीव गांधी को इस बात का एहसास नहीं था कि जिस हिन्दू वोट बैंक पर उनकी नजऱ है वह आडवाणी जी रथ यात्रा करके ले उड़ेंगे। बाबरी मस्जिद कांड के समय मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने आडवाणी का विरोध करके मुस्लिम वोट बैंक अपनी तरफ कर लिया था। चूंकि उस समय उत्तर प्रदेश जातियों में विभक्त था इसलिए दलित वोट बैंक पर मायावती का अधिकार हो गया। इस तरह सब अपने अपने हिस्से का वोट बैंक लेकर बैठ गये। जिस समय आर्थिक उदारीकरण के द्वारा देश के अन्य प्रदेश विकास के रास्ते पर बढ़ रहे थे उस समय उत्तर प्रदेश राजनीति के चक्रव्यूह में ठीक वैसे ही भटक गया जैसे लेख में विकास की बात करते हुये मैं भटक गया हूं।

शायद यही रही है पिछले दो दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति। यहां भटकने में देर नहीं लगती है। यहां विकास की बात करते करते राजनीति में भटक जाने में कुछ भी नया नहीं है। यहां की आब-ओ-हवा ही कुछ ऐसी है कि एक योगी ही यहां संयमित रह सकता है। भोगियों के प्रदेश में पान और गुटखा साहब लोगों की शान माना जाता है। गुटखा खाकर दीवारों पर रंगोली बनाने से उत्तर प्रदेश वासियों को तो स्वच्छ भारत अभियान भी नहीं रोक पाया था। आखिरकार, हमारे यहां तो बड़े से बड़े नेता भी पान और गुटखे के शौकीन हैं। छुटभैये ‘गुरुओ’ का तो कहना ही क्या? पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुक्का और पूर्वांचल में खैनी एक राष्ट्रीय आहार है। अगर मेहमान के सामने पेश न करो तो बुरा मान जाता है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सरकारी दफ्तरों में गुटखा खाने पर पाबंदी लगा दी है। इस सराहनीय कदम के बाद बहुत से सरकारी अफसर बेहद परेशान हैं क्योंकि उनका तो अपने काम पर फोकस ही गुटखा खा कर सेट होता था। अब हमारे नए मुख्यमंत्री तो योगी हैं। सुबह तीन बजे उठ जाते हैं और हवन पूजन करके अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं। उनको गुटखे का आनंद नहीं पता है। वह तो उत्तर प्रदेश को सुधार रहे हैं। उत्तर प्रदेश को अब विकास के रास्ते पर ले जाना है।

बात विकास की करें तो 1977-78 से 1991-92 के बीच के दौर में एक बार उत्तर प्रदेश की विकास दर देश की विकास दर के करीब पहुंच गयी थी। उस समय गन्ना उत्पादन में प्रदेश पहले नंबर पर था। वर्तमान में भी प्रदेश पहले नंबर पर है किन्तु महाराष्ट्र के गन्ना किसानों की हालत उत्तर प्रदेश से बहुत बेहतर है। महाराष्ट्र में सहकारी समितियों ने किसानों का कायापलट कर दिया है। उत्तर प्रदेश में गन्ने का जो समर्थन मूल्य बसपा सरकार में निर्धारित हो गया था वही आज भी है। अखिलेश सरकार के पूरे कार्यकाल में इसमें कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुयी। गन्ना किसान परेशान रहा। हां, अखिलेश सरकार ने मवेशियों की संख्या बढ़ाने में उल्लेखनीय काम किया। उनके कार्यकाल में दुग्ध उत्पादन बढ़ा। दूध की कीमते स्थिर हुयी किन्तु पशुओं की कटान पर वह रोक नहीं लगा सके। अपने वोट बैंक और गौ मांस के मुनाफे के चलते प्रतिबंधित होने के बावजूद गौ मांस का कारोबार पूरी तन्मयता से चला। गौ-हत्यारों को पकडऩे वाले पुलिस अफसर प्रताडि़त हुये एवं इसमें मुनाफा देने वाले अफसर मलाईदार थानों के थानेदार बना दिये गये। जनता में अंदर ही अंदर गुस्सा भरता चला गया। हिंदुओं की भावनाएं भीतर ही भीतर उसे आहत करती रही। वह अंदर ही अंदर एकजुट होने लगा। योगी आदित्यनाथ के चुनाव पूर्व के तल्ख तेवर उसको मरहम जैसे लगे।

इसके बाद जैसे ही योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने तो मुख्यमंत्री जी ने आते ही अवैध बूचडख़ानों को बंद कर दिया। सड़कों पर खुले में बिकने वाला मीट बंद हो गया। मंदिर के रास्तों में पडऩे वाली मीट की दुकानें बंद करा दी गयी। वास्तविक गौसेवा करने वाले मुख्यमंत्री ने छद्म गौसेवकों को एक करारा राजनैतिक तमाचा मारा। उनकी चुनाव पूर्व कथनी उनकी करनी में बदल गयी। इसके साथ ही लव जेहाद का विरोध करने वाले योगी आदित्यनाथ ने एंटी रोमियो स्क्वाड बनाने का वादा किया था। अपने कार्यकाल के शुरुआती सात दिनों में उन्होंने इसका गठन भी कर दिया। हालांकि, उन्होंने अखिलेश सरकार की महिला हेल्पलाइन को ही परिवर्तित किया किन्तु उनका कदम सराहनीय एवं युवतियों में आत्मविश्वास भर गया। जिस तरह से मुख्यमंत्री की पहली ही बैठक के बाद से सभी बड़े अफसरों के हाथ में भाजपा का संकल्प पत्र दिखाई दिया उसने भगवा ब्रिगेड की नयी राजनीति का इशारा कर दिया है। यह एक नए तरह का विकास होगा। हां, हम तो विकास की बात कर रहे थे। फिर बात करते करते भटक गये। ऐसे ही तो उत्तर प्रदेश विकास के रास्ते से भटक जाता रहा है। पर क्यों भटक जाता है उत्तर प्रदेश विकास के रास्ते से? ये प्रश्न ज़्यादा महत्वपूर्ण है।

जिस प्रदेश में चुनाव विकास के मुद्दे पर न होकर जाति और धर्म पर होते रहे हों वहां विकास की तो सिर्फ आड़ ली जाती रही है। असली चुनाव परिणाम विकास पर नहीं जाति और धर्म के आधार पर प्रभावित करने वाला रहता था। अब बहुत सालों बाद जनता ने जाति और धर्म के बंधनों को तोड़ दिया। युवाओं ने मोदी का चेहरा देखा। महिलाओं ने उज्जवला योजना से प्राप्त लाभ को देखा। मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक पर सरकार की नीयत देखी। बसपा के वोट बैंक दलितों ने अपना उज्जवल भविष्य देखा। ग्रामीण क्षेत्रों में यादवों ने मोदी का शासन देखा। मायावती के मुख्य वोट बैंक जाटव का 15 प्रतिशत भाजपा को मिलना एक नयी शुरुआत है। और तो और सपा के यादव भी उनसे छिटक गये। अब ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में वास्तविक विकास होगा। उत्तर प्रदेश विकास के रास्ते पर भटकेगा नहीं। अब नयी केन्द्रित सरकार बन गयी है तो हम भी भटकेंगे नहीं।

गरीबों ने दिखाया है मोदी में भरोसा

नोटबंदी के बाद सबसे ज़्यादा लाइन में लगने की दिक्कत गरीबों को हुयी थी। नोटबंदी को ऐसे प्रचारित किया जा रहा था जैसे यह गरीबों के विरोध में जाने वाला फैसला हो। इस फैसले को अल्पसंख्यक विरोधी कहकर भी खूब दुष्प्रचारित किया गया। यह सब वह दुष्प्रचार था जिसे मोदी विरोधियों ने फैलाया था मोदी की छवि खराब करने के लिए किन्तु इसने हिन्दुओं को एकजुट कर दिया। गरीबों ने तो खास तौर पर उज्जवला और नोटबंदी के बाद खुल कर मोदी का समर्थन किया।  उत्तर प्रदेश में गरीबों की हालत सुधारने की बात करने से पहले गरीबों से संबन्धित कुछ आंकड़ों पर बात करते हैं।

तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के अनुसार गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का राष्ट्रीय औसत 21.9  प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में उत्तर प्रदेश 27वें एवं प्रति व्यक्ति सकल उत्पाद के मामले में 32वे स्थान पर है। इसके साथ ही साक्षरता के मामले में उत्तर प्रदेश देश में 29वे पायदान पर है। यह आंकड़े बताते हैं कि कैसे उत्तर प्रदेश विकास के रास्ते से उतर चुका था। एक तरफ तो साक्षरता में हम 29वे पायदान पर दिखते हैं तो दूसरी तरफ शिक्षा मित्रों को ज़बरदस्ती सिर्फ राजनैतिक फायदे के लिए अखिलेश सरकार ने नियम और कायदों को धता बताते हुये समायोजित कर दिया। सक्षम और मेधावी बाहर बैठे रह गये और अक्षम पदों पर काबिज हो गये। अखिलेश कार्यकाल में हर बड़ी नियुक्ति पर हाई कोर्ट ने रोक लगाई। साक्षात्कार वाली परीक्षाओं में यदुवंशी भर गये। पैसे के खुले लेनदेन के द्वारा पदों पर भर्ती हुईं। हद तो तब हो गयी थी जब उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल यादव स्वयं अनियमितताओं के चलते बर्खास्त कर दिये गये।

यह सब घटनाएं आम जनता में घुटन पैदा करती रही। अखिलेश यादव सिर्फ चिल्ला चिल्ला कर कहते रहे कि काम बोलता है किन्तु जनता के दिमाग में उनके कारनामे बोल रहे थे। प्रधानमंत्री के द्वारा अपने तीन साल के कार्यकाल में किसी भ्रष्टाचार का उजागर न होना और सरकारी नीतियां जनता तक पहुंचने की वजह से गरीब सीधे केंद्र सरकार से जुड़ा। पहले गरीबों के खाते खुले। फिर उन्हे गैस कनेक्शन फ्री मिला। इसके बाद नोट बंदी के द्वारा उसकी गरीबी ने उसे अमीरों से ऊपर महसूस कराया। नोटबंदी के दौरान प्रधानमंत्री का भावुक सम्बोधन भी जनता को याद था। मोदी जी का कहना कि ये लोग उन्हें मार डालेंगे। इससे जनता को लगा कि जिन लोगों ने दशकों से उनका हक़ उन्हें नहीं मिलने दिया वह लोग उनके रहनुमा मोदी के भी पीछे पड़े हैं। इन सब बातों ने मिलकर मोदी और भाजपा के पक्ष में ऐसा माहौल बनाया कि सर्वे में भाजपा को अपूर्ण बहुमत देने वाले दिग्गज भी दांतों तले उंगलियां दबाने को मजबूर हो गये। डायलॉग इंडिया पिछले कई माह से उत्तर प्रदेश में भाजपा की पूर्ण बहुमत सरकार का दावा प्रकाशित करती रही है। शायद जनता की नब्ज़ समझने के लिए जनता के बीच जाना आवश्यक होता है।

मुसलमानों के लिये आत्मचिंतन का समय

यह समय भारत के मुसलमानों के लिए एक संक्रमण काल है। उन्हें अब अपनी स्थिति पर एक बेहद गंभीर और संयमित विचार की आवश्यकता है। अब उनको यह तय करना है कि क्या सिर्फ मोदी का भय दिखाने वाले उनके हितैषी हैं या उनके लिए रोजगार का प्रबंध करने वाले। मुसलमानों के रहनुमा के रूप में मुसलमानों ने सपा को भी देखा और बसपा को भी। केंद्र में मुसलमानों ने कांग्रेस को भी परखा है। सबने सिर्फ मुसलमानों के वोटों का तो इस्तेमाल किया, उन्हें दिया कुछ नहीं। कांग्रेस की तो नीति ही अभाव की राजनीति रही है। इन सभी दलों ने मुसलमानों के अंदर मोदी और संघ का खौफ पैदा किया। एक ऐसा खौफ जिसका आधार ही निराधार था। इन सभी दलों की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के कारण हिन्दू प्रताडि़त हुआ। अंदर ही अंदर उसका गुस्सा इतना बढ़ा कि वह मुसलमानों के विरोध में भाजपा के पक्ष में एकजुट हो गया। मोदी के खिलाफ किया जाने वाला दुष्प्रचार भी आज की जागरूक जनता में गुस्सा भरता रहा। मुस्लिम नेताओं के द्वारा मुस्लिमों के लिए कुछ न करने से मुस्लिम वोटर भी कुछ तटस्थ हुआ। जैसे ही तीन तलाक के मसले पर मोदी ने सही नीयत दिखाई, मुस्लिम महिलाओं ने हाथो हाथ लिया। अब मुस्लिम नेताओं और कट्टर पंथियों के लिए यह एक सही समय है कि वह चिंतन करें कि वह अपनी कौम को किधर ले जाना चाहते हैं। उन्हे अपनी कौम की तरक्क़ी चाहिए है या उन्हें अपना वोट बैंक बना कर ही रखना है। हिन्दू अब जाग चुका है। मुस्लिम जागरूक होना शुरू हो चुका है। अब समय है मुस्लिमों के रहनुमाओं के जागने का।

योगी सरकार के दूरगामी प्रभाव

यह एक बेहद महत्वपूर्ण  विषय है कि योगी सरकार के दूरगामी प्रभाव क्या होने जा रहे हैं। राजनैतिक रूप से 2019 के लिये मोदी ने अपने ऊपर से भार कम कर लिया है। उत्तर भारत में अब योगी आदित्यनाथ की सभाएं हिन्दू वोटबैंक को एक जुट रख सकेंगी। मोदी अपने समय का ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग पूर्वोत्तर और दक्षिण के राज्यों में कर सकेंगे जहां भाजपा अभी अपेक्षाकृत रूप से कमजोर है। मोदी के जादुई व्यक्तित्व जैसा जादुई व्यक्तित्व ही योगी का है। उनकी जनता से सीधे संवाद की शैली है। जनता उनसे जुड़ती है और उनके आक्रामक हिन्दुत्व की शैली को पसंद करती है। तुलनात्मक रूप में देखें तो जिस तरह मोदी के सामने अटल बिहारी एक नर्म संघी दिखते हैं ठीक वैसे ही अब योगी के सामने मोदी नर्म संघी दिखने लगे हैं।

यदि प्रशासनिक स्तर पर बात करें तो अब तक नेपाल बॉर्डर तस्करी का एक बड़ा माध्यम बना हुआ है। भारत की सीमाएं नेपाल से खुली हुयी हैं। इसका फायदा उठाकर नेपाल बोर्डर से बहुत से मदरसों में अवैध काम होते रहे हैं। नेपाल से इनको फंडिंग की जाती रही है। स्वयं योगी आदित्यनाथ के कर्मक्षेत्र गोरखपुर के बॉर्डर पर ऐसा होता है। योगी जी अक्सर इन पर खुली चर्चा करते रहे हैं। योगी जी के अतिरिक्त अगर कोई और मुख्यमंत्री होता तो शायद सरकार बनने के बाद इन मुद्दों पर थोड़ा नर्म हो जाता किन्तु योगी जी ने आते ही इन मसलों पर तीखे तेवरों के साथ काम करना शुरू कर दिया है। एक सबसे अहम विषय लव जेहाद एवं कट्टरपंथ है। योगी जी के शपथ ग्रहण करते ही एंटी रोमियो स्क्वाड का गठन हो गया। कहने को तो इसको महिला सुरक्षा के लिए बनाया गया है किन्तु इसका लक्ष्य उन मजनुओं पर ज़्यादा है जो लव जेहाद में लिप्त हैं। योगी के नाम से ही कई रंगबाज़ अंडर ग्राउंड हो गए हैं। जहां तक बात कट्टरपंथ की है तो अब न तो किसी के तीखे बयान सुनाई दे रहे हैं न ही धार्मिक स्थलों से लाउड स्पीकरों का शोर। अचानक से उत्तर प्रदेश शांत और संयमित हो चला है। अब न तो चौराहों पर शौहदों का जमघट है न ही आती जाती महिलाओं पर छींटाकशी। पान की पीकें भी कम होने लगी है। सोशल मीडिया पर मोदी के विरोध में विद्वेषपूर्ण तर्क गढऩे वाला धड़ा भी अब शांत है। क्या सचमुच उत्तर प्रदेश बदलाव की ओर है? क्या यही रामरात्य का आगाज है? हवा का रुख तो कुछ कुछ ऐसा ही आभास कराने लगा है।

राम मंदिर निर्माण की तरफ दिख रही है पहल 

उत्तर प्रदेश में योगी और केंद्र में मोदी। अब इससे बेहतर क्या हो सकता है। राम मंदिर निर्माण के मुद्दे पर राजनीति में छाई भाजपा के लिए यह समय निर्णायक लड़ाई का है। योगी के मुख्यमंत्री बनते ही संयोग देखिये कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी इस मामले में गति बढ़ाते हुये समाधान की तरफ गेंद उछाल दी है। सुब्रमण्यम स्वामी की पहल पर देश के मुख्य न्यायाधीश का कहना है ‘संबन्धित पक्षकारों को आपसी सहमति से इसका हल निकालना चाहिए। कोर्ट तो आखिरी उपाय होना चाहिए। अदालत तभी इस मसले के बीच में आएगी जब दोनों पक्षकार बातचीत से मामला न निपटा पाये।’

इसके आगे मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि किसी समाधान पर पहुंचने के लिए आप नए सिरे से प्रयास कर सकते हैं। जरूरत पड़े तो विवाद को खत्म करने के लिए कोई मध्यस्थ भी चुना जा सकता है। पक्षकार अगर चाहेंगे कि मैं भी दोनों पक्षों द्वारा चुने गए मध्यस्थों के साथ बैठूं तो मैं इसके लिए तैयार हूं। यहां तक कि इसके लिए साथी जजों की सेवाएं भी ली जा सकती हैं। इसके साथ ही दोनों पक्ष अगर चाहें तो मुख्य वार्ताकार भी नियुक्त कर सकते हैं।

न्यायालय और मुख्य न्यायाधीश की एक सराहनीय पहल का योगी आदित्यनाथ, सुब्रमण्यम स्वामी आदि हिन्दू नेताओं ने तो स्वागत किया किन्तु मुस्लिम नेताओं जैसे जफरयाब जिलानी और ओवैसी आदि को यह सलाह नागवार गुजऱी है। वह चाहते हैं कि अदालत इस पर अपना निर्णय दें। यदि इस मसले के बारे में देखा जाये तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पहले ही इस मसले में मंदिर के पक्ष में निर्णय दिया था जिसको सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। वहां भी यह निर्णय मंदिर के पक्ष में आने की संभावना ज़्यादा है। ऐसे में मुस्लिम पैरोकारों को आगे बढ़कर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अंतर्गत फैसले की तरफ बढऩा चाहिए। अब समय साथ देने और साथ चलने का है। उत्तर प्रदेश में छद्म राजनीति करने वाले और मुखौटे की राजनीति करने वाले इन चुनावों में पहले ही हार चुके हैं। राम एक आस्था का विषय है। उससे समझौता कोई हिन्दू नहीं करेगा। उत्तर प्रदेश का नया निज़ाम तो खैर बिलकुल भी नहीं।

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