उत्तराखंड में भाजपा के जीतने में किसी को कोई शक शुबा नहीं था। पिछले पांच सालों में जिस तरह कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने उत्तराखंड में लूट खसोट और भ्रष्टाचार किया था उसके बाद जनता ने मन तो साल भर पहले ही बना लिया था। वह तो सिर्फ चुनाव का इंतज़ार कर रही थी कि कैसे हरीश रावत सरकार से छुटकारा मिले। हरीश रावत को अपने मुख्यमंत्री रहते इस बात का आभास था इसलिए उन्होंने इस बार दो विधानसभा से चुनाव लड़ा। अपेक्षित रूप से दोनों ही विधानसभा क्षेत्रों से उनकी हार हुयी। बसपा तो इस बार खाता भी नहीं खोल सकी। 2017 के चुनाव परिणामों में सबसे बड़ी विजय के साथ जीती भाजपा की रणनीति एवं राष्ट्रपति चुनावों पर इसके प्रभावों पर अमित त्यागी प्रकाश डाल रहे हैं।
देवभूमि देवताओं का निवास मानी जाती है। इस बार देवभूमि ने एक नहीं दो मुख्यमंत्री दिये। एक उत्तराखंड को, दूसरा उत्तर प्रदेश को। पांचों राज्यों के चुनावों में सिर्फ उत्तराखंड ऐसा राज्य था जहां भाजपा की सरकार बनना तय लग रहा था। भाजपा के अंदर अगर प्रारंभिक आत्मविश्वास और जोश किसी ने भरा तो वह था उत्तराखंड का चुनाव पूर्व आंकलन। यहां, नरेंद्र मोदी की ईमानदार छवि एवं हरीश रावत की लूट की सरकार के बीच में कोई मुकाबला ही नहीं था। बस इसी जोश ने बाकी राज्यों में भी भाजपा को मजबूत कर दिया। भाजपा ने 70 में से 57 सीटें जीतीं एवं बसपा तो यहां खाता भी नहीं खोल पायी। सत्ता धारी कांग्रेस ने 11 सीटें जीतकर अपनी कुछ इज्ज़त बचा ली।
देवभूमि होने के कारण उत्तराखंड में लोगों में धर्म की प्रति अपार आस्था है। यहां धर्म एक पर्यटन के रूप में रोजगार का महत्वपूर्ण साधन भी है। केदारनाथ त्रासदी के समय तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा जन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे थे। त्रासदी के बाद उत्तराखंड का पर्यटन रोजगार ठप्प हो गया। लोगों में नाराजगी बढ़ गयी। भाजपा ने इसको खूब भुनाया। हालांकि, बाद में विजय बहुगुणा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा जॉइन कर ली। लोगों में गुस्से की एक वजह पहाड़ क्षेत्र में तुष्टीकरण की नीति भी रही जब पहाड़ पर मुस्लिमों को ले जाकर बसाया गया। नेपाल के सीमावर्ती होने के कारण उत्तराखंड के कुछ हिस्से बेहद संवेदनशील हैं। जनता इस बात को समझती है किन्तु कुछ दल जब अपने निजी स्वार्थों के लिए इस बात को नहीं समझते हैं तब जनता उसे गिरा भी देती है। उत्तराखंड में भी ऐसा ही हुआ।
त्रिवेन्द्र रावत हैं संघ के करीबी
उत्तराखंड में नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री संघ के करीबी हैं। यही करीबी उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तक ले गयी। एक बड़ा बहुमत मिलने के बाद उत्तराखंड में सतपाल महाराज, रमेश पोखरियाल निशंक, प्रकाश पंत और त्रिवेन्द्र रावत के नाम आगे हुये। भाजपा की जातिगत सोशल इंजीनियरिंग में त्रिवेन्द्र रावत फिट बैठे। उत्तराखंड राजपूत बहुल प्रदेश है। यहां इसी आंकड़े को देखते हुये भाजपा ने अपनी पहली सरकार का मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी को बनाया था। इसके बाद जब 2007 में भाजपा सत्ता में आई तब मुकाबला कोश्यारी और खंडूरी के बीच था। तब खंडूरी बाज़ी मार ले गए थे। इस बार भगत सिंह कोश्यारी ने त्रिवेन्द्र रावत की पैरवी की और वह एक राजपूत होने के नाते मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए। इसके साथ ही उनका अमित शाह और मोदी का विश्वास पात्र होना भी एक प्रमुख कारण रहा।
केंद्र की योजनाओं को लागू करने के लिये कसने होंगे नौकरशाही के पेंच
उत्तराखंड में सरकारी योजनाओं की असफलता के लिये जितनी कांग्रेसी सरकार जिम्मेदार थी उतनी ही भ्रष्ट नौकरशाही भी। उत्तराखंड में अगर मोदी कार्यालय अफसरों को ठीक ढंग से फेंटने में कामयाब हो गया तभी भाजपा की साख बचेगी। उत्तराखंड में ऐसा सुना जा रहा है कि अब पीएमओ सीधे ध्यान देगा। उन अफसरों को जि़म्मेदारी दी जाएगी जो मुख्यमंत्री नहीं पीएमओ के करीबी होंगे। ऐसी भी संभावनाएं हैं कि केन्द्रीय योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के लिये केंद्र में सेवारत और काबिल अफसर उत्तराखंड का रुख कर सकते हैं। उत्तराखंड की जनता ने मोदी के चेहरे को वोट दिया है इसलिए वह अपने प्रदेश में भी वही तेज़ी और ईमानदारी चाहती है जिसके लिये मोदी जाने जाते हैं। उत्तराखंड में नौकरशाही का काम इसलिए भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि 100 दिन के मैनीफेस्टो में ट्रान्सफर पॉलिसी लागू करने और लोकायुक्त के गठन का वायदा किया गया है। इन दोनों वादों को समय से पूरा करने के लिये काबिल और जिम्मेदार अफसरों की आवश्यकता है।
उत्तराखंड की नयी सरकार के पास पहले की सरकारों की असफलताएं हैं। मोदी से अपेक्षाएं हैं। 2019 के लिये प्राथमिकताएं हैं। इन सबसे निपटना और इनके पार पाना त्रिवेन्द्र रावत सरकार के लिये आसान नहीं है। मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किए गए सतपाल महाराज की नाराजगी से नए मुख्यमंत्री को दो चार होना है। चूंकि, वर्तमान सरकार पूर्ण बहुमत की सरकार है इसलिए इन समस्याओं से निपटना कोई बहुत बड़ी चुनौती होने नहीं जा रहा है।
भाजपा के लिये अब खुल गया है राष्ट्रपति भवन का रास्ता
उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में जीत के सिर्फ क्षेत्रीय मायने नहीं है। इसका प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पडऩे जा रहा है। चुनाव परिणाम से पहले भाजपा के पास राष्ट्रपति चुनाव के लिये 42 प्रतिशत मत थे। ऐसे में उसे अपने उम्मीदवार को जितवाने के लिये 8 प्रतिशत मतों के लिये विपक्षी दलों के साथ की आवश्यकता थी। अब भाजपा के पास 48 प्रतिशत मत हो गए हैं। यह आंकड़ा अपने उम्मीदवार को जितवाने के काफी करीब दिख रहा है। अब 2 प्रतिशत के लिये तो भाजपा अपने किसी भी सहयोगी दल से जोड़ तोड़ कर सकती है। इसके साथ ही अब भाजपा राज्यसभा में मजबूती की तरफ बढऩे लगी है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश की 31 राज्यसभा सीटों में भाजपा के पास सिर्फ तीन सांसद हैं। राज्यसभा में भाजपा के पास कुल 56 सीटें हैं जबकि पूरी तरह चौपट कांग्रेस के पास अभी भी राज्यसभा में 59 सांसद हैं। राष्ट्रपति के लिये चुनाव जून 2017 एवं राज्यसभा के लिये 2018 में होना है। मोदी ने राज्यसभा में बहुमत के लिये भी वोट मांगा है। जनता ने उन्हें दोनों हाथों से दिया भी है। राज्यसभा में सांसद कम होने के कारण बहुत से आर्थिक सुधार एवं महत्वपूर्ण बिल अटके पड़े हैं। बहरहाल जो भी हो, अब राष्ट्रपति के पद पर भाजपा का उम्मीदवार ही काबिज होने जा रहा है।